स्मृतियों का घरौंदा

  • मीना धर द्विवेदी पाठक

आज बहुत दिनों बाद महेश समंदर किनारे घूमने आया था | समंदर की लहरें एक-एक कर आतीं और किनारों से टकरा कर लुप्त हो जातीं, लहरों की सरगम उसके कानों में मधुर संगीत घोल रही थी, गीली मुलायम रेत पाँवो को ठंडक पहुँचाने के साथ एक मादक स्पर्श भी दे रही थीं | समुद्री हवाएँ तन-मन पर सुखद अनुलेपन सा कर रही थीं | समंदर की आगोश में समाता हुआ दिनेश मुस्कुरा रहा था क्यों कि पूरे दिन की थकन लिए वह आरामदायिनी संध्या से मिलने जो जा रहा था !  सुकून का आभास हो रहा था, एक सुखद एहसास भिगो रहा था मन को | आस-पास बहुत से लोग गीली रेत पर चहलकदमी कर रहे थे | कुछ जोड़े समंदर के खारे जल में अठखेलियाँ कर रहे थे | एक जोड़ा रेत पर कुछ लिखता और थोड़ी देर में समंदर की एक लहर आती और उस लिखे शब्दों को अपने साथ ले जाती | वो फिर लिखता और फिर से लहर आ कर उसे मिटा जाती, यही खेल बहुत देर से चल रहा था जैसे जंग छिड़ी हो दोनों में लिखने और मिटाने की |
महेश इस सुंदर वातावरण का आनंद लेते हुए गीली रेत पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा था तभी पीछे से एक दस-बारह वर्ष का लड़का भागते हुए उसके आगे निकल गया, उसके तुरंत बाद ही उसके कानों में आवाज पड़ती है —
महेंद्र….महेंद्र…रुक जा…मैं छोडूंगी नहीं तुझे….तूने मेंरा घरौंदा तोड़ा है…..रुक….रुक जा ..महेंद्र !
और हवा की तेजी से एक लड़की महेश के बगल से उसी लडके के पीछे दौड़ती हुई चली गई | महेश को एक झटका सा लगा..
’घरौंदा’ !
यह शब्द उसके दिलोदिमाग पर ठक्क से लगा,..रुक…रुक जा..मैं तुझे नहीं छोडूँगी….एक आवाज जो समंदर की लहरों से उठ रही हो जैसे, उसके अंतर्मन को झकझोरती चली गई, उसकी आँखें सोचने की मुद्रा में सिकुड़ गयीं, जैसे दिमाग पर जोर दे कर कुछ याद कर रहा हो, अचानक उसकी आँखें फैलती चली गयीं, मुँह से अनायास ही निकल पड़ा…गंगा !
उसका हृदय वेदना से भर गया और समंदर उसकी आँखों में उतर गया | अतीत की स्मृतियों ने आ घेरा और उसके अंतर में पीड़ा की लहरें उठने लगीं |
*
कुछ दिनों पहले ही उसकी बगल की खोली में रहने के लिए नये किरायेदार आये थे उनके साथ एक छोटी लड़की भी थी जो अक्सर अकेले ही गोटियाँ खेलते, रस्सी कूदते या कभी-कभी अपनी गुड़िया को सजाते सवाँरते हुए दिख जाती थी | महेश अपने दरवाजे से उसे देखता रहता, वह अपनी ही दुनिया में अकेले मगन रहती थी |
महेश उस समय आठवीं का छात्र था, उसके पिता एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करते थे; पर अपने बेटे के लिए उनके ख्वाब बहुत ऊँचे थे | महेश भी पढ़ने में अच्छा लड़का था |
उस दिन स्कूल से आते हुए महेश ने देखा, वह लड़की लाल रंग की सूती लम्बी फ्राक पहने, अपनी खोली के सामने बैठी गोटियाँ खेल रही थी, उसके दोनों चोटियों को मोड़ कर दोनों कानों के ऊपर लाल रंग के रिबन से सुंदर से दो फूल बनाए गये थे | वह एक गोटी हवा में उछालती तब तक दूसरी जमीन पर पड़ी हुयी गोटी उठा लेती और हवा में उछाली हुयी गोटी नीचे गिरने से पहले ही लपक लेती | बड़ी सफाई से सारी बिखरी हुयी गोटियाँ इसी तरह समेट रही थी वह |
“मुझे भी अपने साथ खेलने दोगी ?”
अचानक खेल में खोई हुयी लड़की चौंक कर आवाज की तरफ देखती है और सामने एक लड़के को देख कर झट से सारी गोटियाँ अपने फ्राक में समेट कर खोली के भीतर भाग जाती है और झट से दरवाजा बंद कर के खिड़की से बाहर देखती है, बाहर वही लड़का खड़ा मुस्कुरा रहा था, वह जल्दी से खिड़की भी बंद कर लेती है | महेश मुस्कुराता हुआ अपने घर की ओर बढ़ जाता है |
धीरे-धीरे समय बीतने लगा, घर के सामने अशोक के पत्ते पतझड़ में गिर गये थे  अब उन पर बसंत के प्रभाव से नये हरे स्निग्ध पत्ते आ गये | गुलमोहर और अमलतास की छटा मनोहारी हो गई | तितलियाँ मंडराने और भौंरे गुनगुनाने लगे | समय के साथ-साथ दोनों पड़ोसियों में मेल-जोल हो गया | कभी कभार आना-जाना भी हो जाता अब | महेश को भी उस लड़की से ज्यादा मिलने का मौका मिलने लगा था |
महेश स्कूल से जब भी लौटता वह वहीँ सीढ़ी पर बैठी मिलती | एक दिन वह अपने दरवाजे की सीढ़ी पर बैठी अपनी गुड़िया के केश बना रही थी,  उस दिन बोला महेश —
“ये क्या कर रही हो ?”
“देखते नहीं क्या कर रही हूँ ?” खनकदार आवाज में जवाब दिया गंगा ने , महेश की तरफ देखे बिना, हाथ अपने काम में तल्लीन थे |
महेश बोला – “तुम्हारा नाम क्या है ?”
“गंगा नाम है हमारा; पर तुम्हें क्या ?” हाथ अब भी गुड़िया के बालों से खेल रहे थे |
“अरे ! गंगा तो महेश के सिर पर रहती है |”
“का ?” वो चौंक कर महेश की तरफ देखती है, गुड़िया की केश से उलझे हाथ रुक जाते हैं, चेहरे पर मासूमियत के साथ विस्मय के भाव उभर आते हैं |
“अरे गंगा को शंकर जी ने अपनी जटाओं में धारण किया था ना ..और शंकर जी का दूसरा नाम महेश भी है |” कह कर वह शरारत से मुस्कुरा दिया
“धत्त !” कह कर वह घर के भीतर भाग गई |
महेश मुस्कुराता हुआ अपनी खोली की ओर बढ़ गया |
समय के साथ उन दोनों की मित्रता प्रगाढ़ होती गई, स्कूल की छुट्टियाँ थीं,  दोनों परिवारों का घूमने जाना तय हुआ | वो लोग बिहार प्रांत के सहरसा से थे, कोसी के विकराल रूप को तो कई बार देखा था उन लोगों ने पर कभी समंदर नहीं देखा था सो समंदर के किनारे सैर करने का प्रोग्राम तय हुआ | वहाँ पहुँच कर गंगा ने जैसे कोई अजूबा देख लिया हो |
“अरे बाप रे ! इहाँ तो पानी ही पानी है ..इसका दूसरा छोर कहाँ  है ?” महेश की ओर गंगा प्रश्न वाचक निगाहों से देखती है जैसे महेश तुरंत उसके प्रश्न का उत्तर दे देगा  |
“ये तो मुझे भी नहीं पता गंगा कि इसका दूसरा छोर कहाँ है, बस् यही छोर देखता आ रहा हूँ |”
गंगा विस्मित सी खड़ी सागर की उठती गिरती लहरों को देखती है |
“चल पानी में खेलते हैं |” महेश गंगा की बाँह पकड़ कर सागर से आती हुयी लहरों की ओर खींचता है, गंगा चौंक पड़ती है |
“अरे ना …मुझे पानी से डर लगता है महेश |” वह अपने को पीछे खींचने लगती है | खींच-तान में महेश के हाथ से गंगा का हाथ छूट जाता है और वह गीली रेत पर धम्म से गिर पड़ती है | महेश जोर से हँस पड़ता है | गंगा गुस्से में मुँह बनाए कुछ देर यूँ ही पड़ी रहती है फिर तुनक कर उठती है |
“अब मैं घरौंदा बनाऊँगी और तुम्हें अपने घरौदे में नहीं आने दूँगी |” वह पैर पटकती हुयी थोड़ी दूर जा कर बैठ जाती है और अपने दोनों पैरों के ऊपर गीली रेत थोपने लगती है थोड़ी देर बाद वहाँ एक छोटा सा टीला बन जाता है तब वह धीरे से अपने पैर बड़ी सफाई से निकाल लेती है जिससे उस टीले के अन्दर खाली जगह बन जाती है फिर से वह अपनी उँगलियों की सफाई से एक सुंदर सा घरौंदा बनाती है | जिसमें एक कमरा है, उसके सामने एक सुंदर सा लान है, छोटी सी बाउंड्री है, इसका एक सुंदर सा गेट है |
ईश्वर ने स्त्री को जन्म से ही सृजन करने की और उसे सँवारने की कला दी है, उस कला का भरपूर प्रयोग किया था गंगा ने | गंगा ने घरौंदा के रूप में एक सुंदर सा सपनों का महल तैयार कर लिया था उसी समय वहाँ महेश आ पहुँचा |
“अरे ! बहुत सुंदर महल बनाया तूने गंगा |” विस्मित हो बोला महेश
“पर तुझे नहीं आने दूँगी इस महल में |” महल के गुम्बद को तरासती हुयी बोली गंगा |
“क्यों ? क्यों नहीं आने देगी ?”
“क्यों कि तू बात-बात पर मुझे सताता है |”
“अच्छा ! जो मैं ना सताऊँ तो आने देगी ?”
“सोचूँगी |” घरौदे को देखते हुए बोली गंगा, फिर कुछ सोचते हुए बोली
“अच्छा.. चल तू मेरे महल का पहरेदार बन जा, मैं जब इसमें आऊँ या कहीं बाहर जाऊँ तब गेट खोलना और बंद करना | अपनी छोटी सी गुड़िया के रूप में उसने स्वयं को राजकुमारी के रूप में महल में स्थापित कर लिया था |
गंगा की बात सुन कर महेश को क्रोध आ गया | पुरुष का अहंकारी मन भला यह कैसे स्वीकारता कि वह एक सुंदर सी राजकुमारी का पहरेदार नियुक्त हो, भले ही वह खेल ही क्यूँ ना हो | एक क्षण गँवाए बिना उस अहंकार ने पशु का रूप धर लिया और तहस-नहस कर दिया एक सुंदर सा सपनों का राज महल | राजकुमारी के सुंदर नैनों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी |
एक क्षण के लिए वह आवाक हो कर अपने घरौंदे को देखती है और दूसरे ही क्षण झपटती है महेश पर |
महेश भागता है..आगे महेश और पीछे गंगा…गीली रेत…समंदर का किनारा…शीतल पवन और गंगा की वेदना व क्रोध मिश्रित आवाज ! इस सुंदर मनोहारी वातावरण में भी उसके कानों में गर्म सीसे के समान उतर जाती है और कानों के रास्ते हृदय तक पहुँच कर उसे विदीर्ण कर देती है |
महेश….!….रुक…तूने मेरा घरौंदा तोड़ा है…मैं तुझे छोडूँगी नहीं….नहीं छोडूँगी तुझे |
महेश उससे दूर भाग जाता है,  वह थक कर वहीं बैठ जाती है और फूट-फूट कर रो पड़ती है |
महेश देखता है, वह लड़का उस रोती हुई लड़की का मनुहार कर रहा था | महेश की आँखों में गंगा की सूरत घूम जाती है | गंगा भी जार-जार रोई थी जब उसे नहीं पकड़ पायी थी |
उसे याद आता है कि कुछ महीनों बाद ही माँ, पापा से बता रही थीं कि पड़ोस के लोग लड़की का ब्याह करने गाँव चले गये | बड़ी प्यारी लड़की थी, अभी तो वह बहुत छोटी थी | मैंने बहुत समझाया उसकी माँ को; पर वह कहने लगी कि “जात-बिरादरी की बात है जब ये लड़की पैदा हुयी थी तभी हमने रिश्ता तय कर दिया था, वो लोग बहुत पैसे वाले हैं कहीं मुकर गये तो हम कहीं के नहीं रहेगें |”
माँ कहती जा रही थी – “कब इन लोगों की सोच बदलेगी, पढाने-लिखाने की बजाय लड़कियों की शादी जल्दी से जल्दी हो जाय इस जुगत मे लगे थे ये लोग | कितनी बार मैंने समझाया कि अभी इसकी उम्र पढ़ने लिखने की है; पर वो लोग नहीं माने कहने लगे कि  हर साल ‘कोसी’ खेती, मवेशी, झोपड़ी सब कुछ लील लेती है और हमें बरबाद कर के चली जाती है नहीं तो अपना घर, गाँव-गिराव कौन छोड़ता है भला, लोग दाने-दाने को मुहताज हो जाते हैं, जिनकी तीन-तीन, चार-चार बेटियाँ हैं उनमे से कईयों को हमने चुपके-चुपके बेटियों का सौदा करते देखा है, मेरी गंगा भागमान है जो उसका ब्याह हो रहा है, आगे वो जाने और उसकी किस्मत |”
सुन कर मैं क्या बोलती; पर गंगा के लिए बहुत बुरा लग रहा है, ये खोली भी उनके जिस रिश्तेदार ने रहने को दी थी उन्होंने खाली करने को कह दिया है, अब शायद ही वो लोग लौट कर दुबारा आएँ |
“गरीबी से बड़ा कोई दूसरा अभिशाप नहीं है मृदुला |” एक लम्बी साँस खींच कर पापा बोले – “तुमने ये सारी बातें मुझसे पहले बताई होती तो शायद मैं उनकी कोई मदद कर सकता था; पर अब मैं क्या करूँ उन लोगों के लिए ?” पापा सारी बात सुनने के बाद दुखी हो कर बोले थे  |
महेश आवाक हो कर अपनी माँ और पापा का मुँह देखता ही रह गया था, माँ कुछ बोलती जा रही थी; परन्तु उसे ऐसा लगा जैसे उसके हाथ से उसकी सबसे प्यारी चीज छूट कर रसातल में जा गिरी हो |
अचानक पीड़ा से कराहता हुआ समंदर को देखते हुए बोल पड़ता है महेश “आखिर तुम महेश को छोड़ चली ही गई गंगा !” तभी उसके कंधे पर कोई हाथ रखता है वह घूम कर देखता है |
“अब चलें ?”
उसकी पत्नी  माया मुस्कुराती हुयी खड़ी थी | महेश ने जल्दी से अपनी आँखें पोंछी और गंगा की याद व समन्दर को पीछे छोड़ते हुए माया के साथ आगे बढ़ गया | जाते-जाते उसने देखा कि वह लड़की फिर से घरौंदा बना रही थी; पर इस बार वह अकेली नहीं थी, महेंद्र भी उसके साथ था |

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परिचय
नाम- मीना पाठक
जन्म तिथि- 27-5-1967
संप्रति – गृहिणी , स्वतंत्र लेखन
शिक्षा- कानपुर यूनिवर्सिटी, हिन्दी से परास्नातक
प्रकाशित कृतियां – साझा संग्रह-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-2’,  ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’ और ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ लघुकथा अनवरत,
‘लमही’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘कथाक्रम’, विश्वगाथा  आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं , विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग पर नियमित रचनाएँ प्रकाशित होतीं हैं .

ई – मेल आईडी– meenadhardwivedi1967@gmail.com
फोन- 09838944718
पताः मीना पाठक, 437 दामोदर नगर, बर्रा, कानपुर-208027, (U.P.)

 

1 टिप्पणी

  1. मीना जी की बढ़िया कहानी। ज्ञान रंजन ज्जि की कहानी “फैन्स के इधर और उधर” के कथानक पर अलग तरह की कैशोर्य प्रेम की कहानी है यह।

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