हर किसी को किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए एक कठिन परिश्रम के दौर से गुज़रते हुए कई परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. मैंने भी ठीक उसी तरह खुद को मुकम्मल सिंधी बनाने के लिए अपनी मातृभाषा सिंधी सीखने के लिए कठिन परिश्रम किया. परिश्रम क्या था एक जद्दोजहद थी. यह १९९२-९३ का दौर था. उन दिनों सिन्धी अंतरराष्ट्रीय अखबार ‘हिंदवासी’ मेरे पास आती थी. उसे मुश्किल से पढ़ पाती थी, पर  कुछ उर्दू लिपि पढ़  पाने के कारण सिन्धी के उन्वानों को पढ़ लेती.
एक दिन अचानक मन में ख्याल आया कि मैं भी कुछ लिखूं, और वह भी सिन्धी में. पर लिखूं तो क्या लिखूं? किस विषय पर लिखूं? लेखन की दुनिया से दूर  मात्र एक ग्रहणी रही, वो भी संयुक्त परिवार की परिधियों में जकड़ी हुई. उन्मुक्त कुछ भी नहीं था. 
मैं 1961 में शादी के बाद मुंबई महानगर में आन बसी. परिवार में मस्त रही, ग्रहस्ती सँभालने में माहिर पर बाहर की दुनिया से दूर. 1983 और 1985 के दौरान दोनों लड़कियां व्याह कर अपने संसार का हिस्सा बन गई.  बेटा उन दिनों 20 साल का था, कांधों से जवाबदारियों का बोझ कम होते ही अचानक अपनी भाषा में कुछ लिखने की सोच कौंध उठी.
मेरी पहली प्रेरणात्मक सोच को स्वरूप देने के लिए उन्वान की तलाश शुरू हुई. तीस साल संयुक्त परिवार में गुज़ारते हुए बस रिश्ते और रिश्ते ही देखे. उन रिश्तो के निर्वाह व् निबाह की दिशा में अनेक अवस्थाएं देखी. कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ दुखद, कुछ सुखद. वैसे भी आज के दौर में जीते हुए यही लगता है कि स्थाई कुछ भी नहीं. बदलाव अनिवार्य है. उन्हीं जिए हुए, भोगे हुए रिश्तो के जंगल से बाहर निकलते लगा, क्यों न मैं अपने अनुभव लिखूं. यह कुछ सिन्धी भाषा में मेरी पहली पहल थी जिसकी एवज आज मैं कलम की नोक से हिन्दी, अंग्रेजी व् सिन्धी भाषा में लिख रही हूँ. 
उन्वान तय हुआ “नज़ाक़त रिश्तों की”. उस उन्वान के तहत कहूँ  या एक जुनून के तहत, मैंने सिन्धी देवनागरी में चार किस्तें इन्हीं रिश्तो की कशमकश पर लिख डाली. रिश्ता पति पत्नी के बीच, दोस्तों की दोस्ती, नौकर-मालिक का नाता, उस्ताद व् शागिर्द के बीच का नाता. बस जूनून में तीन चार दिन में चारों  लेख लिखे-जो मेरे पहले प्रयास के प्रतिफल थे. 
पहला प्रयास 15 16 पन्नों का था, जिन्हें मैं बार-बार पढ़ती और खुश होती कि आखिर मैंने भी कुछ लिखा है. यह खुशी कुछ ऐसी रही जैसे माँ-बाप अपने पहले बच्चे का पहली बार क़दम उठाकर स्कूल की ओर जाते हुए देखकर खुश होते हैं.  
एक दिन हिम्मत करके बांद्रा से ट्रेन पकड़कर’ हिंद्वासी’ के ऑफिस चली गई. वहाँ सह-संपादक श्री राधाकृष्ण जी बैठे थे. मैंने उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा तो उन्होंने मुझे मुख्य संपादक श्री सिपाहीमलानी जी से मिलने का सुझाव दिया.
जब मैं उनकी कैबिन में पहुँची तो पता चला उस दिन वे ऑफिस नहीं आए थे. चारों खाने चित हो गई. एक सुघड़ कर्मचारी ने वहीं फोन पर उनसे मेरी बात करा दी और सिपाहीमलानी जी ने  फोन पर ही मुझे हिदायत दी कि मैं टैक्सी लेकर मर्चेंट चेंबर के पास उनके घर पहुचूँ 
जैसा कहा गया, मैंने वैसा किया. दरवाजा खोलते ही सिपाहीमलानी जी ने मुझे भीतर आने के लिए कहते हुए अपनी पत्नी को आवाज़ दी. उसके आते ही मेरा परिचय उनसे कराया और मुझे बैठने की ताकीद की. उनकी पत्नी भीतर जाकर कुछ काजू और लस्सी का एक गिलास ले आई और दोनों के आग्रह पर मैं उसे ग्रहण करने के लिए राज़ी हो गई.
अब मेरे आने का कारण के बारे में उन्होंने सवाल किया. मैंने उन्हें अपनी अपनी  सोच से वाकिफ कराते हुए अपने लिखे हुए कागज निकालकर दिखाए. देखते ही ‘मुझे तो हिंदी आती नहींकह दिया और यह भी कि इसका प्रकाशन नामुमकिन है.’
चारों खाने चित पहले ही हुई थी अब लगा मुंह के बल गिरी हूँ. मैं उन्हें विश्वास दिलाती रही कि यह मूल सिन्धी लेखन है बस लिपि अलग है. पर नाकामी सामने खड़ी मेरा मुंह चिढ़ाती रही. उन्होंने कागज मुझे लौटाते हुए हिदायत दी कि मैं उस लेख को सिन्धी अरबी लिपि में लिखकर उन्हें भेज हूँ. सुनते ही मुझे यह लेखन का आगाज नहीं, अंत लगा.
 सिंधी भाषा कभी स्कूल में पढ़ी न थी, लिखने का कभी कभी मौका ही न मिला था. हाँ हैदराबाद दक्षिण में स्कूल-कॉलेज के दिनों में उर्दू की पत्रिकाएं देखते-सुनते, पढ़ते उस लिपि से एक पहचान हुई,  उसी आधार पर ‘हिंदवासी’ के कई अक्षर भी तोड़ तोड़ कर सिन्धी पढ़ने का प्रयास करती थी. 
आखिर बुझे मन से उन निकम्मे पुलिंदों को लेकर थकी-हारी घर लौटने के लिए मुड़ी. सोचों में संघर्ष शुरू था. अगर लेख छपवाने हैं तो लिपियांतर का सहारा लेना होगा. यह बात मुझे नामुमकिन लगी. उदासी और निराशा ने घेर लिया. लिखे हुए देखकर जो ख़ुशी हुई थी, उसने वहीं दम तोड़ दिया. समस्त परिश्रम पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया.
घर लौटने के पहले जाने क्या सोचकर वापस हिन्द्वासी की ऑफिस जाकर राधा कृष्ण जी को सारी बात बताई. वहाँ उनके सामने बांद्रा के रहवासी हीरो ठाकुर जी बैठे हुए थे जो साहित्य-संस्कृति- कला से जुड़ी एक सशक्त हस्ती थे. मेरा परिचय पाकर कहने लगे –“ अब तुम ऐसा करो, तुम्हारे करीब ही मधुवन बिल्डिंग में मेरे मित्र प्रभु वफ़ा रहते हैं. मुझे उम्मीद है कि वे तुम्हारी मदद जरूर करेंगे. कल तुम उनके यहाँ चली जाना, पर जाने से पहले उन्हें फोन जरूर कर लेना. आज शाम मैं उनसे बात कर लूँगा.’ ऐसा कहते हुए एक कागज़ पर अपना व् वफ़ा जी का फ़ोन नंबर लिख कर मुझे दिया.
लिखे हुए को सिन्धी अखबार में छपवाने की ललक शायद लालच बनी थी, वह भी शिद्दत से. बस अखबार के पन्ने पर मेरा लिखा हुआ हो मेरे नाम से, यह लगन लगी रही. दूसरे दिन बारह बजे के करीब मैंने प्रभु वफ़ा जी को फोन किया और हीरो ठाकुर का नाम लिया. कहने लगे- ‘कल उनका फोन आया था तुम चार बजे आ जाना.’
तीन चार घंटे का इंतजार जैसे एक काल की तरह गुजरा. चार बजे उनके द्वार को खटखटाया. दरवाजा खुला मुझे भीतर आने के लिए कहकर वे हाल की ओर मुड़े और मुझे बैठने का इशारा करते हुए खुद भी सोफा पर बैठ गए. कुछ ही देर में उनकी पत्नी जिन्हें बाद में मैं ‘भाभी’ कहकर संबोधित करने लगी थी, बिस्किट और रखकर चाय चढ़ाकर आती हूँ, कहकर रसोईघर में चली गई.
क्या लिख कर लाई हो,  पढ़ कर सुनाओ?’
 मैंने भी जैसा लिखा था वैसे ही पढ़ कर सुनाया. पहली किस्त सुनकर बोले- ‘लिखा तो बहुत अच्छा है. भाषा भी सुंदर है लय -ताल में. और बोली भी साफ़-सहज-सुलझी हुई है .
 बस वे उठे और चार-पांच बड़े पेपर ले आए. मेरी ओर देखते हुए कहने लगे- तुम पढ़ती जाओ, मैं सिन्धी में लिखता जाता हूँ. मुझे तो हिन्दी नहीं आती. पर थोड़ा धीरे-धीरे पढ़ना जैसे मैं रफ्तार से लिख पाऊँ.’
 यह सिलसिला 2 हफ्ते चला, उन चार किस्तों को देवनागरी से सिन्धी अरबी लिपि में लिखने के लिए. उनके अथक श्रम और सबूरी के सामने आज भी मेरा सर सजदे में झुक जाता है. जैसे ही पहली किस्त तैयार हुई, मैंने उनके कहे अनुसार संपादक के नाम लेख पोस्ट के ज़रिये भेजकर, उन्हें फोन भी कर दिया.
और
अगले रविवार अखबार में छपा था- 
नज़ाक़त रिश्तों की – भाग पहला- देवी नागरानी
  और इस तरह मेरा एक नया जन्म हुआ. फिर तो हर इतवार की सुबह सिलसिलेवार निरंतर तीन और भाग प्रकाशित हुए. इसका एक कारण और भी था सिन्धी के हस्ताक्षर ग़ज़लकार ‘वफ़ा’ के हाथ से लिखी तहरीर, मोती दानों की तरह लिखे हुए अक्षर, और उनका  मुकाम तो सभी जानते थे. बस जैसे करिश्मा हो गया. वे भी बहुत खुश हुए और फोन पर मुझे बधाई दी और कहा कुछ और लिखो मैं मदद करूंगा. यह उनकी निस्वार्थ भावना थी जो आज भी मैं उनकी कृतज्ञ हूँ. 
उसके बाद एक सिलसिलेवार उन्वान ’कर्म और विचार’ तीं किस्तों में लिखे जो दादा ने लिप्यांतर कर दिए. और वे भी जल्दी जल्दी छपते रहे. 
उस खुशी के पीछे एक उलझन का गहरा साया था. सोच सकते में समाई रही. क्या मैं इसी तरह डिक्टेट करती रहूंगी और वे लिखते रहेंगे? क्या यह लेखन का और इस प्रकाशन का मुनासिब हल है? दादा वफा शायद मेरी परेशानी समझ गए और एक और सुझाव मेरे सामने रखा.
 ‘तुम सीधे सीधे सिन्धी कर लिखकर ले आओ, मैं शुद्धीकरण कर दिया करूंगा.’
 बात मन को ठीक लगी
 कुछ दिनों के बाद अरबी सिन्धी में ‘प्रीत अपने पिया की’ नाम से अढाई पन्ने का भावनात्मक जगबीती से आपबीती तक का सफर लिखा, जो दादा को बहुत पसंद आया. उन्होंने सुनते हुए कहा- पढ़ते लगता है जैसे तुम मुझे ही सुना रही हो, सादी सुलभ भाषा में.जैसा सोचती हो वैसा ही लिखती हो’ यह भी एक अच्छी कला है.
 अपनी तारीफ सबको अच्छी लगती है, मुझे भी लगी. पर उसकी कीमत मैंने समय देकर, अपनी रातों की नींद गंवाकर चुकाई (इसी लेखन के बारे में कभी फिर लिखूंगी)
 ‘प्रीत अपने पिया की’  पाण्डुलिपि दादा के पास गुरुवार के दिन छोड़ने के पहले उन्हें पढ़कर सुनाई. लिखा हुआ भाषा-भाव के नज़रिए से बिल्कुल सही लगा, पर सिंधी लेखन में गलतियां थीं. वे तो होनी ही थी. लेख उनके यहाँ छोड़ा और दो दिन बाद आदेशानुसार उसे लेने गई. मेरे हैरत भी सकते में आ गई जब देखा कि उन्होंने वह पूरा लेख अपनी सुंदर लिखावट में लिख दिया था.  साथ में मेरा लिखा हुआ कम से कम 70 80 लाल रंग से सुधार के निशानों के साथ भी दे दिया और  कहा-‘ आज शनिवार है, इसे कल ही पोस्ट कर देना ताकि अगले इतवार को ही प्रकाशित हो पाए.
  और ऐसा ही हुआ. पूरे पन्ने पर मेरा लेख, उन्वान के साथ अपना नाम देखकर मैं बहुत खुश हुई, पर अनजाने चिंता  के बादल मेरे भीतर उमड़ते रहे, सोच की तलवार मेरे सर पर मंडराती रही. हर दुश्वारी का एहसास था मुझे पर मैंने भी कदम आगे रखने की ठान ली.
 इस बार “ममता” नामक कहानी लिखी जो दादा को बहुत अच्छी लगीउन्होंने लाल पेन से मेरे लिखे कागजों पर दो दिन में शुद्धीकरण कर दिया और मुझे फिर से साफ लिखने के लिए हिदायत दी. लिखा हुआ उनके पास ले गई तो वही एक घंटे में पढ़कर 1012 गलतियों का लाल पेन से सुधार करते हुए कहा-‘अब यह कहानी मैं बिल्कुल ठीक है, लिखकर उन्हें भेज दो.’
 मैंने दादा के सामने ही धीमे स्वर में कहा- ‘हाँ वो तो ठीक है, पर इन तीन पन्नों को फिर से दोबारा लिखना पड़ेगा. अगर यही हालत रही तो मुझे नहीं लगता मैं सिन्धी में लिखने की जुर्रत कर पाऊंगी.’ एक तरह से यह मेरी हार का ऐलान था. 
  वे मुस्कुरा कर कहने लगे-‘तुम बहुत हिम्मत वाली हो जो छः महीने से शुद्धिकरण करके भेज रही हो और वह छप भी रहा है.’
खैर धक्के मारकर गाड़ी आगे बढ़ाई.
 उनके लाल पेन से शुद्ध किये हुए को मैं फिर काला करती और इस तरह लिखते लिखते मेरे लेखन में भी सुधार आने लगा. पर हौसले शायद पस्त होने लगे,  समय सिकुड़ने लगा, और अब मेरे कदम दादा के घर की ओर कम उठने लगे. लिखना जैसे बंद ही कर दिया. पहले लिखना, फिर लाल को काला करना.  उफ़…
 एक थकान ओढ़ कर बैठ गई.
 एक दिन दादा ने फ़ोन करके मुझे बुलाया और परिस्थिति को समझते हुए मुझसे कहा- तुम्हारे लेखन  में लय है-ताल है. तुम्हारे पास सोच शब्दावली का संगम है,  संगीत का इल्म है. तुम ग़ज़ल लिखो. दो दो लाइनों का एक शेर जो तुम अपनी सोच अनुसार शब्दों में ढाल सकती हो. मुझे विश्वास है तुम ज़रूर कामयाब होगी.’ 
मुझे आत्म निर्भर बनना था, जिसके लिए कोशिश और मेहनत अत्यंत ज़रूरी है, साधना कि हद तक. यह लेखनी भी नदी की तरह प्रवाहमान होती है, पर शुरूआती दौर में बूँद बूँद पिघलना, पिघलकर बहन ज़रूरी है. मैंने भी वही किया, उठते बैठते सिन्धी लिखने के कार्य को बरक़रार रखा और आज पूरी तरह से सिन्धी बनी आपके सामने हूँ. जैसी भी थी, जैसी भी हूँ, आपके स्नेह व् स्वीकृति की तराशी हुई हूँ.  
और मैं मुक्ति द्वार के पास आकर एक और बंधन में जकड़ी जाने लगी. ग़ज़ल लेखन का आगाज़ जो करना था. इस पर फिर कभी लिखूंगी. 
आज याद के झरोखे से झाँकते लगता है –
Everything is a package deal, nothing is individual. 

देवी नागरानी
ईमेल – dnangrani@gmail.com

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