उन्मुक्त गगन,मदमस्त पवन है,
दिल खोल के सुबह खिली है।
चहक खगों की सुन सुन कर,
झूमझूम हर कली हिली है।
लहराया आँचल अवनी का,
सूरज की किरणें निकलीं हैं,
चमक दमक कर चाल से अपनी,
भोर सुहानी धूप खिली है।
चहल पहल से सड़कों की,
थीं बरसों साँसें घुटी रहीं,
आपा धापी से लोगों की,
जाकर अब रफ़्तार थमी है।
थमी हुई रफ़्तार में देखो,
ज़िन्दगी खुद अपने से मिली है
मानव के भीतर सोयी,
मानवता की ज्योत जली है,
अपने ही जीवन से मिलकर,
चेहरों की रंगत भी खिली है।
इंसा को खुद से मिलवाने को
इक नया सबेरा लाने को,
सबक़ नया सिखलाने को,
अध्यात्म जगत ले जाने को,
इंसानियत दिलों में जगाने को,
फिर नयी शुरुआत करवाने को,
रब तूने ही ये चाल चली है ।
बरसा कर बूँदों को नभ से
तु, खुद भी तो रोया है,
जग को पाठ पढाने को,
तूने भी चैन तो खोया है।
तू ही दाता,विधाता तू है,
हर क्षण का निर्माता तू है,
तू है रक्षक,तू प्रहरी है,
सोच तेरी बड़ी गहरी है
तू पालनहार, तू ही करतार,
बस कर,अब जगत को तार,
सुना है,रब मेहर तेरी बड़ी है।
आदरणीय संपादक महोदय,
पुरवाई में मेरी कविता को स्थान देकर आपने मुझे अनुग्रहित किया है । आपका ह्रदय से धन्यवाद ।
डॉ. सुमन जी की कविताओं में संवेदना, सत्य और सामयिक गतिविधि मुखर होती है. मुझे पसंद आई ये रचना. शुभकामनाएं