उनके पास कैंचियाँ थीं
आदर्शों, अपेक्षाओं की
कतर दी जाती थीं जिससे
उभरती-पनपती इच्छाएं,
मन के हौसले
और उड़ान…
कि ढलना चाहिए सांचों में
तय मानकों के अनुरूप।
अलग-अलग
खूबसूरत कैंचियां
रंग-बिरंगी
प्रेम की, ममता की
कुछ अनुभव की
नक्काशीदार…
छाँटती कुछ ख्वाब
और ख्वाहिशें सारी।
पांव के नीचे आती,
वांछाओं, कामनाओं की
कतरनों पर पांव धरती
कदम दर कदम बढ़ती
कतरे जाने की
इतनी आदी हो गई
कि कब एक कैंची
ले ली अपने हाथ
वो जान ही न पाई!
और अब बरसों से
अपने ही आप
कतर रही है
अपने पंख,
अपनी परवाज़
कभी इस कारण
कभी उस कारण
औरों की खुशी को
बनाकर अपनी खुशी
तोलती अपना अस्तित्व
कतरा-कतरा कतरा हुआ…
प्राकृत की कतरन सा
छोटा बहुत छोटा…