आँखें बंद थीं—- क्या मैं जाग रही थी?
हाँ जाग ही रही थी, क्योंकि मनहर के झिंझोड़ने पर आँखें खोली। पर आँख खोलने पर आँखों को नहीं मली और आश्चर्य से उसको देखा भी नहीं——जो नींद के बाद अक्सर होता है।
“हद है सुम्मी। इतनी देर कोई सोता है ! जल्दी करो , ऑफिस के लिए देर हो जायेगी।”
मन किया कुछ कटू वाक्य बोल दूं। लेकिन सुबह का माहौल ख़राब नहीं करना चाहती थी।
मनहर बाथरूम में चला गया । पर मैं — मैं वहीं थी। उसकी कही बातें,  रात की चुप्पी  और उसके चीखने-चिल्लाने की आवाज़।
गलती—- इसको गलती नहीं कहते। पार्थ खेलते खेलते गिर गया था और उसके पैरों में हल्की खरोंच आ गई थी। चोट को देखते ही मनहर ने चिल्लाना शुरू कर दिया – ,” क्या करती हो सारा दिन? एक पार्थ को नहीं सम्भाल सकती।”
सारा दिन क्या करती हो? ये लगभग हर पुरूष का व्यंग्य बाण है । जिससे आहत हो हम स्त्रियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। चौबीस घंटे का बेशर्त  श्रम हमारे जिम्मे होता है—- फिर भी !
मैं जल्दी – जल्दी हाथ चलाने लगी। चाय के साथ नाश्ता तैयार करना ,पार्थ के लिए दूध, मनहर का कपड़ा, सब करते करते नौ बज गये।
“जल्दी करो, आज फिर बगैर लंच ऑफिस जाना पड़ेगा क्या?”
मनहर की चुभती आवाज़ को अनसुना कर डायनिंग टेबल पर ब्रेड, आमलेट और चाय रख दी और साथ में लंच बाॅक्स भी।
बहुत सावधानी से सहजता का लेप चेहरा पर चढ़ाया और होठों पर मुस्कान के साथ उसके सामने बैठ गयी। पर कितनी तरह के युद्ध मेरे भीतर चल रहा था।
मनहर चला गया और मेरे हिस्से आया घुटन,टूटन और मन का अवसाद।
जिस दिन मैं और मनहर मिले थे वो गरमियों की शाम थी और जिस दिन हमारी शादी हुई थी वो भी गरमियों की रात थी। मुझे लगा था कि मनहर को चुनकर ज़िंदगी की सारी परेशानियां खत्म हो जायेगी। पर पता नहीं था कि एक नई मुसीबत अपने साथ लाई हूँ। अपनी बेचैनी का हल मुझे मिल नहीं रहा था।
पहली बार जब मनहर को देखा था, बोसा लेने का मन किया था। उसके होंठ और उसकी आँखें  दोनों बोलती रहती थीं। काॅलेज का नायक कब मेरा बन गया— मुझे भी नहीं पता चला।
उसने एक दिन हंसते हुए कहा था  कि तुम जब किसी के प्यार में होगी तब तुम उसकी गुलाम बन जाओगी। और मेरा तन मन कब उसका गुलाम बन गया–समझ में तब आया जब मुझे होश आया ।
मेरी स्वतंत्रता , मेरी अस्मिता, आत्मविश्वास सब उसके कैदी बन गये।
एक बार मैंने उससे कहा,” मनहर मुझे गाड़ी चलाना सिखा दो। अच्छा लगता है खुद से ड्राइव करना। सशक्त होने का एहसास होता है।”
“क्या करोगी गाड़ी चलाकर। जहाँ तुम कहती हो मैं  ले जाता हूूँ न तुम्हें। अकेले मौजमस्ती करने का मन कर रहा है क्या? लेकिन मैं जानता हूँ तुम्हारा संस्कार और मेरे प्रति प्यार ऐसा नहीं करने देगा। तुम स्त्रियाँ हमारे पहलू में ही सुरक्षित हो और घर की चारदीवारी तुम्हारी सुरक्षा कवच।अच्छा सुम्मी, तुम्हारा मन नहीं करता कि मुझसे छुपकर कुछ ऐसा करो जिसमें तुम्हें थ्रिल महसूस हो। “उसने हंसते हुए कहा था पर पता नहीं उसकी आँखों में कैसा व्यंग्य था कि मेरी नज़रें झुक गई।
मूक समझौता मेरी आदत बन गई थी। या घर टूटने का डर मुझे आतंकित करता —इसलिए गुलामी ही अपनी नियति मानने लगी थी।
उस दिन बरसात की शाम थी। पेड़-पौधे धुल गये थे और मिट्टी से आती सोंधी महक मेरे मन में बसती जा रही थी। बादलों की आवाजाही, नीले-सफेद की बनती बिगड़ती आकृतियाँ और इन आकृतियों में मैं मेरा अक्स तलाशती हुई। सुखद लग रहा था। हवा के झोंको से बजता विंड चाइम और हल्की आवाज़ में गुलाम अली की गजल—– सबकुछ रोमानी अहसास।
गाड़ी की आवाज़ सुन मैं चौकी।मनहर इतनी जल्दी?
मैं अभी सम्भलती की अजहर को देखा ।
अजहर मेरा और मनहर का दोस्त। नीली आँखों का जादू और प्यारी मुस्कान उसके चेहरे को आकर्षक बनाती थी।
मैंने उसको गले लगा लिया।
ओह! अजहर  कितने दिन बाद दिखे– जैसे सदियां बीत गई हो। तुम कहाँ थे? न कोई खोज और न कोई ख़बर।ऐसा भी क्या बेगानापन।
वो हँसते हुए बोला,” तुम चुप रहोगी ,तब तो बताऊंगा। सच, अभी भी तुम नहीं बदली। एक बच्चे की माँ अनु ।”, उसने चिढ़ाते हुए कहा।
तभी मेरी निगाह मनहर पर गई। उसकी आँखों में गुस्सा दिखाई दिया । समझ नहीं पाई ,क्यों? शादी के पहले हम ऐसे ही तो मिला करते थे।
उस शाम के बाद अक्सर हमारी शाम अच्छी गुज़रने लगी। अजहर का आना हमारी ज़िंदगी में खुशियों का आना था।
वो मुझे समझाता।  तुम क्यों ऐसी हो गई हो? तुम्हारा बदलना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। तुम फिर से काॅलेज वाली सुमन बन जाओ। वही जो मुझे पसंद थी। शादी क्या हुई कि तुम अपना ही अक्स भूल गई।
मैं हंसती पर अंदर से दंश चुभता रहता। कैसे कहूँ? मनहर को मेरा यही रूप पसंद है।
अजहर ने बताया कि उसने शादी नहीं की। अकेला है और अकेला ही रहना चाहता है। बंधन में बंधना उसे पसंद नहीं है।
कभी-कभी मज़ाक करता, तुम मिल जाओ बंधन पसंद आने लगेगा।
वक्त पैरहन बदल चुका था।नवम्बर की गुलाबी ठंडक आ गई थी। खिड़की से छनकर आती धूप कमरे को रोशनी से भर देता थी।
रात गहराई। बिस्तर पर आई ही थी कि मनहर का हाथ मेरे शरीर पर। थकान से चूर मेरा मन बिल्कुल हिलने का मन नहीं कर रहा था। मैंने धीरे से कहा,” मेरे शरीर में दर्द है प्लीज मुझे सोने दो।”
इतना सुनते ही उसकी आवाज़ में व्यंग्य की धार बहने लगी। मुझे लगा कौन सा अपराध कर दिया है मैंने। । इच्छा-अनिच्छा का मान रखना भी तो प्यार है। लेकिन यहाँ तो पुरूष अहं पर चोट लगी थी। वैसे भी ये आज की बात नहीं है।  जब भी मैंने मना करने की कोशिश की है—या तो मनुहार से या आहत मन करके बात मनवा ही लेते हैं। पर आज तो— ऐसे व्यंग्य बाण से कभी छलनी नहीं किया। तो आज! अजहर हमदोनों के बीच आ गया है?
सपनों की दुनिया पहले से ही लहू-लुहान थी अब चोट और बेदर्दी से। धैर्य ने जवाब दे दिया और मैं अपने कमरे में।  नींद भी अपने पूरे तेवर में—–नहीं आऊंगी कहकर दगा दे गई।
दीवार पर टंगी बुद्ध की पेंटिंग पर नज़र गई, जिसमें बुद्ध का चेहरा आधा था। पता नहीं क्यों मुझे ये तस्वीर बहुत अच्छी लगी थी और मैं खरीद कर लाई थी। पेन्टर ने क्या सोचकर ऐसी तस्वीर बनाई होगी। क्या  हम स्त्रियाँ इसके केन्द्र में थीं ?
तभी टेबल पर रखी किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगे। जैसे मुक्ति के लिए वो भी छटपटा रही हो। रात उतर रही थी —-मेरी आँखें बरस रही थी।
सुबह का उजाला दंभ लेकर आया ।
“सुम्मी”, मेरे पति की भीगी और नरम आवाज़।
“सुनो”,
“हाँ कहो न!”, मेरी आवाज़ कहीं दूर से आ रही थी।
“तुम मुझे तुम नहीं लगती अब। एकनिष्ट और पतीव्रत। तुम में कुछ तो बदला है। क्या यह बदलाव अजहर के आने की दस्तक है? मुझे ऐसा ही लग रहा है। आज उसको घर आने से मना कर दो।”
मैं सिहर गई। क्या इनके मन में अजहर दुश्मन की तरह पैठ बना रहा है। काॅलेज के दिनों में हमारी दोस्ती बहुत गहरी थी। तब तो शक नहीं था ।तो क्या प्रेमी जब पति बन जाता है तो पत्नी के प्रति बहुत पज़ेसिव हो जाता है।
अपराध बोध से मैं दब गई।  पर जिन पहलुओं को छुआ है मनहर, वो मेरे दिमाग में बैठ गया। अब अजहर जब भी आता , खुलकर मिल नहीं पाती। संकोच और दायरा बढ़ने लगा।
दीवार पर कैलेन्डर बदल गया।
मैंने खिड़की का पर्दा सरकाया। आसमान में सफेद बादल और बादलों के बीच काले धब्बे। अचानक बिजली चमकी। परदे के पीछे से कड़कती आवाज़।
मैंने बिस्तर पर मनहर को गहरी नींद सोते देखा। ख़्याल आया, अभी सपनों में वो किसे देख रहा होगा— मुझे,पार्थ या अजहर को?
कुछ दैर बैठे रहने के बाद किचिन में आ गई। सोच का पतंग उड़ने लगा। अजहर अब भी आता है। मनहर से बातें करता है, पार्थ के साथ खेलता है। बातें वो मुझसे भी करता है पर मैं ही अपने खोल में सिमटी रहती।
चाय अपने रंग में आने लगी थी।कमरे में जाकर खिड़की का परदा सरकाया। मनहर को जगाकर चाय दी और खुद भी उसके बगल में बैठकर चाय पीने लगी। मेरा मन सोचने लगा । कहाँ क्या बदल गया? मेरे मन से प्यार कहाँ लुप्त हो गया ?
मनहर का हिटलर अंदाज।बात बात पर तानाकशी। मेरी खूबियाँ जो कभी बहुत पसंद थी अब उसे बेवकूफ़ी लगती। बात बेबात उग्र हो जाना उसकी आदत बन गई थी।चाय की अंतिम घूंट भरी और उठ गई। इस दरम्यान हमारे बीच कोई बात नहीं हुई।
किस्मत— हमें  मिलवाने में किस्मत का हाथ था ।
दोस्ती की शुरुआत अजहर से ही हुई थी।
उसकी  आँखों में कई बार अपने लिए प्रशंसा का भाव देखा था मैंने ।उसका नरम व्यवहार और हर समय सहायता के लिए तत्पर रहना पसंद था मुझे।
पर मनहर का आकर्षक व्यक्तित्व और बेपरवाह अंदाज़ उसको अलग करता था सबसे।
अजहर हमारे प्यार का साक्षी बना।
तारीख़-दर-तारीख़ मुझे सबकुछ याद आता रहा और अजहर का दूर जाना भी। तो क्या अजहर ?
आज शाम अजहर आया । मनहर घर में नहीं था।
सहजता से मैं उसके पास बैठ गई। बातों का सिलसिला निकल पड़ा। काॅलेज की कई मीठी यादें हमने याद किया। बातों में पता नहीं चला कब मनहर आया। पता नहीं क्यों आज मुझे डर या झिझक का एहसास नहीं हुआ। बल्कि आत्मशक्ति के साथ उठी और चाय बनाने चली गई।
अजहर के जाने के बाद अजीब सा सन्नाटा हमारे घर और मन पर छा गया।
कुछ देर के बाद मनहर बोला,” आज मेरी अनुपस्थिति में क्यों आया था। तुम उसे मना क्यों नहीं करती हो , कि मत आये मेरे घर।” उसकी आवाज़ तल्ख़ थी।
मैंने उसकी आँखों में देखा। ,” मैं मना नहीं कर सकती।”
“तुम्हारा आशिक है तो तुम क्यों मना करोगी।  रखैल अजहर की।”
“मनहर, हद से आगे मत जाओ। सबकुछ बर्दाश्त कर सकती हूँ चरित्र पर दाग नहीं। खबरदार।” तभी गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़। मेरा आत्मविश्वास, स्वाभिमान सब ढह गया एक पल में।  कांपते पैरों को सम्भाल मैं वहीं सोफे पर बैठ गई।।पूरा वजूद चूर चूर हो रहा था।मनहर बाहर चला गया।
दिमाग सोचता पर दिल धड़कता अपने ही आरोह-अवरोह में। अब नहीं हो सकेगा मुझसे , निबाह मुश्किल है। कोई जानते समझते अंगार में कैसे रह सकता है।
मैंने फ़ैसला किया —– अब अंत होगा और यही अंत मेरी ज़िंदगी की शुरुआत।
मैं चल दी अजहर के घर। मनहर के नाम एक संदेश लिखकर टेबल पर रख दी,” जब कोई रिश्ता नहीं चल पाये तो उसे ढोना नहीं चाहिए,  बल्कि उसे एक खूबसूरत मोड़ पर छोड़ देना चाहिए।”
दिल में एक टीस उठी कि मेरे बगैर मनहर रह लेगा पर पार्थ के बगैर—!
अजहर मेरी मनःस्थिति समझता था। काॅफी हाथ में पकड़ाते हुए पूछा,” क्या सोच रही हो?”
“कमरे में जो कैलेंडर है। उसमें उदास ,अकेली और टूटी हुई जो स्त्री है ,उसमें खुद को तलाश रही हूँ। “
अजहर हंसा, “और मैं उस स्त्री के होठों पर हँसी देख रहा हूँ।”
अजहर के कंधों पर मैं बोझ नहीं डाल सकती थी। एमबीए की डिग्री काम आई, प्राइवेट कम्पनी में नौकरी मिल गई।
एक बार मनहर आया था मुझे बुलाने पर मेरी आँखों में शुन्य देखकर चला गया। ख़ामोश गुजरते दिन और धड़कती रातों में एक दिन मैं और अजहर एक हो गये। मैंने मनहर से तलाक नहीं लिया और ना ही अजहर से शादी की।
अजहर और मेरा रिश्ता दोस्ती और प्यार से बना था।मेरी ज़िंदगी, मेरा रहन-सहन,  मेरी आस्था-अनास्था, किसी में वो  दखल नहीं देता था। उसके त्यौहार में मैं सम्मिलित रहती, मेरे में वो।
बहुत खूबसूरत एहसास के साथ हम जी रहे थे। मनहर का आना कभी उसे बुरा नहीं लगता था। मुझे भी कभी उसे देखकर अपराध बोध नहीं हुआ।
 सबकुछ व्यवस्थित हो गया था। सुबह होती थी। सूरज भी निकलता था और चांद भी। हवा का झोंका आता था—जाता था।
हमारे जीवन के बसंत में सरसों खिलते रहते थें।
शरद पूर्णिमा की रात बेटी का जन्म हुआ। स्वच्छ धुले आकाश पर चाँद सा चेहरा।। खुशियों के हिंडोले
में झूलती, धरती और आसमान को नापती, सपनों के सतरंगी इंद्रधनुष — ज़िंदगी के सारे रंग मेरी झोली में। सच, प्रेम से ही घर सम्पूर्ण होता है।
कभी-कभी लगता कि मनहर का अकेलापन बांटने वाला कोई नहीं है। शादी कर लो मनहर । एक दिन मैं बोली। मनहर ने कहा ,” भागते भागते मुझे यह पता ही नहीं चला कि कब तुम और अजहर करीब आ गये और मैं मुड़ते मुड़ते पीछे रह गया।  समझ तब आया जब तुम छोड़कर चली गई। अब पार्थ के अलावा किसी को अपनी जिंदगी में हिस्सेदारी नहीं दे सकता। उससे मिलकर परिपूर्ण हो जाता हूँ।”
पार्थ,नव्या और अब एक और बेटा शौर्य मेरी आंचल में आया।
अजहर ने  कभी किसी बात के लिए  मुझे विवश नहीं किया। अपनी मर्ज़ी से मैं  कुछ भी करती , अजहर हमेशा मेरा साथ देता।
सपनों की रात छोटी होती है। एक दिन मेरा सपना भी बिखर गया। अजहर को दिल का दौरा पड़ा—अस्पताल ले जाते ही दम तोड़ दिया।
उसके जाने के बाद मेरी ज़िदंगी अंधेरों से भर गई।उसकी एक-एक बात मेरे ज़ेहन में चलती रहती।
अजहर ने कहा था सुम्मी तेरे माथे की बिंदिया और मांग का सिंदूर मुझे बहुत पसंद है। इसे कभी मत हटाना।
आँखों में आँसू लिए आईना के सामने जाकर खड़ी हो गई। माथे पर बड़ी बिंदी लगाई और मांग में सिंदूर भरा।जैसे ही कमरे से बाहर आई, रिश्तेदारों की नज़र मेरे चेहरे पर अटक गई। तभी मेरी माँ की कड़कती आवाज़ सुनाई दी,” तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या, अजहर   अब इस दुनिया में नहीं है। तुम्हारा सुहाग उजड़ गया है।अशोभनीय बातें  मत करो।”
मेरी आवाज़ शान्त और गम्भीर थी,”प्रेमी मरा है, पति नहीं। “
अजहर कहीं दूर आसमान में मुस्कुरा रहा था।
कादम्बनी, पुष्पवाटिका , दस्तक टाइम्स ,मधुराक्षर, प्रभात खबर, हिंदुस्तान, गृहलक्ष्मी पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर रचनायें प्रकाशित। प्रकाशित किताब -- अक्स ( कहानी संग्रह ) , मैं अपनी कविताओं में जीना चाहती हूँ (कविता संग्रह )। संपर्क - katyayanisingh5620@gmail.com

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