टुकड़ा-टुकड़ा, उखड़ा-उखड़ा दिन बीता करता है,
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता है
माँ की गोद, बाप का काँधा, दादी माँ की लोरी
नीम तले का पड़ा खटोला, कथरी, तकिया, लोई
डगमग चलते पैरों से गिर कर सम्हला करता है
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता है
कलुआ कुत्ता, भूरी गइया, कबरी वाली बिल्ली
दूध-भात और चुपड़ी रोटी, किसने खायी छीनी?
तुतले-तुतले बतरस को मन में गुनता रहता है
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता है
खेल-कबड्डी, गुड़िया-गुड्डा, शाला, बुदका, तख़्ती
बाकी-जोड़, ककहरा, गिनती, मास्टर जी की सन्टी
खेल-मज़े या पढ़ने के धुन में खोया रहता है
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता
चढ़ी जवानी, प्यार-मोहब्बत, नून-तेल और लकड़ी
शादी-बच्चे, जिम्मेदारी या इकलौती मस्ती
चाकर बन कर, बच्चे जनकर मन कुढ़ता रहता है
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता है
बीता बचपन, गयी जवानी, पड़ी बदन भर झुर्री
दाँत हीन मुँह, काया जर्जर, दुखती पसली-हड्डी
वृद्धाश्रम की एक खाट पर जीवन चुकता रहता है
गये ज़माने की यादों में बूढ़ा मन खोया रहता है
नमस्कार जी,
कविता में देशज शब्द और लोक संस्कृति से ओतप्रोत है।
कविता अच्छी वैचारिक है।
बहुत बहुत बधाई
हार्दिक अभिनंदन सुजाना जी।
हार्दिक अभिनंदन सुजाना जी।