अपनी धवल रौशनी में चाँद की नीरव शीतलता में गीत कोई गा रहा सुख के शीतल शैया पर स्वप्न मुस्कुरा रहा विक्षिप्त चेतना में सड़क पर गांव विखरा जा रहा प्रवासी, वापस आ रहा है
उत्साह शुन्य, स्वप्न टुटा कुछ आस छुटा हुआ घर की दरिद्रता से बेचैन, हताश, निराश घुटा हुआ थके हुए कदम निढाल, जर्जर शरीर से निचुड़े प्राण पर आस है दिवस का शाम अभी हुआ नहीं आह ! चलते जाना है परिवार है, जिंदगी है हैवानियत का जुआ नहीं अकारण बीच में, जीवन के मोह में भुखे जार-जार रोते बच्चों को गांव की मिट्टी बुला रहा है
सहमी आंखों से सकूँचाता, डरता गाँव बिखरा जा रहा है रात का तीसरा पहर और एक कवि का बेचैन, अधीर आत्मा अनजान, अचिन्ह, आँसुओं में भींगा अनुगूंज, सिसकियों से सींचा असह्य पीड़ा के बोझ तले दबा न जाने जागता क्यों है एक धुँआ सा उठता हुआ एक शोर की शक्ल में चौंकाता है रेल की पटरियां पटी हुई सुनसान सड़कें अटा हुआ खून सन्नी रोटियों से कहीं टुकड़ों में बिखरे बोटियों से लिपट चीत्कार करता, रो रहा है अपनी ही वेदना में पछताता गांव घिसटता जा रहा है
अपने वतन को अपनी मिट्टी से मिलने प्रवासी वापस आ रहा है
वही, जिसके कठोर श्रम ने और महकते हुए पसीने रुधिर में बहते हुए खुनों को दिहाडियों में बेचकर तुम्हारी सोच और भरोसे का मार्ग, राजपथ बना निर्माण हुआ शाही महलों का समृद्धि का राजद्वार बना इंसान सड़कों पर बेजार लोग शाही बंगलों में मदहोश किस्मत को बेचकर भाग्य को सहेज कर कभी लौटेंगे, और मांगेंगे अपना हक अधिकार रोटी बिलखती माताएँ, भूख से व्याकुल बच्चे जिंदगी से बेजार होते बूढ़े ओ महलोंवाले, मुस्कुराते चौसर खेलते छवि के मतवाले कटे अंगूठों, अपाहिज हो चुके पांवों दान दे चुके कवच कुण्डलों के नींव पर विराटता के साथ खड़ा हस्तिनापुर, अखण्ड भारत एक दिन तुमसे अपनी तबाहियों का फिर से पाटने के लिए अपना सृंगार मांगेंगे जिंदगी सम्भल के आ रहा है प्रवासी, वापस आ रहा है