1 – उमड़ती नदी
अन्तर की उमड़ती ‘नदी ‘
हमारे तुम्हारे अस्तित्व- तट से
टकरा कर ,और भी छलकी थी
वे पल भी जिये हैं हमने
जब, सावन की बौराई जलधार में
तन-मन डूबा था
कोयल की कूक औ
पपीहे की ‘पी कहाँ’
हमारी ही तो अनुकृति लगे थे,
कभी समाया था
अन्तर में अनन्त आकाश
और कभी सागर को भी
चुनौती देने लगा
ये बौराया ‘मन’
तब हमें मालूम नहीं था
नदी सूखती भी है
अन्तर का आकाश
सिमटने लगता है
और सागर का कोप
प्रलय का कारण बन जाता है।
2 – कुछ यूँ ही
‘प्यार’
किसी परिंदे की तरह
फुदकता रहता है
दिन भर
कभी इधर,कभी उधर
कभी किधर
कभी-कभी तो
छिप भी जाता है
तमाम व्यस्तता के बीच
फिर अचानक
दिखाई देता है
मन की मुंडेर पर
चंचल पंख नचाते हुए
लो फिर उड़ा
जा बैठा
नेह-बिरवे की
ऊपर वाली फुनगी में
वहीं से गोल-गोल
आँखे मटकाता हुआ
चिढ़ाता है
मेरे मन को
हाथ बढ़ाते ही
फुर्र से उड़ जाता है
आसमान की ओर
चींं-चीं करता हुआ
मैं, उदास हो जाती हूँ
सूना घर देखकर
पर साँझ होते होते
फिर लौट आता है
और हृदय के कोटर में
दुबक कर सो जाता है।
3 – तुम्हारा आना
बहुत दिनों बाद
‘तुम्हारा आना’
तूफानी लहरों का
उमड़ कर
आगोश में भर
अंतर तल
शीतल कर जाना
बालू में जमे
समय के स्थिर ‘पाँव’
डगमगाने लगे
या फिर
तुम्हारा आना
चिर प्रतीक्षित हवा का
‘सुगंधित झोंका’
चारों दिशाओं को
महका गया
दे गया एहसास की
एक ऐसी ‘सनद’
जो अनाम है, अमूर्त है
फिर भी,
अनुभूति में साकार है
तुम्हारा आना
लंबे अंतराल
की गतिशील यादें
पल भर को थककर
विश्राम करने लगीं
मिलन के रुपहले क्षण
देने लगे प्राणवायु
उन यादों को
जो ‘आनंद’ बन
मुस्कुरा उठीं
तुम्हारा आना
उकेरने लगा
कोमल भावनाओं के
सुंदर ‘चित्र’
मन की भित्ति पर
अनुभूतियों की कूची
फिराने लगी
हरे-लाल,नीले और पीले
न जाने कितने रंग
तुम्हारा आना
कुछ दिन ठहरना,
और फिर
भीगी पलकों के साथ
चले जाना ,छोड़ गया
उत्सव की भोर का
‘नीरव सन्नाटा’।
प्रकाशित कृतियांँ: - "आकाश तुम कितने खाली हो" (काव्य संग्रह 2017) "पतझड़ में कोंपल" (गीत /नवगीत संग्रह) 2018 "फिर पलाशी मन हुए" (नवगीत संग्रह 2019) "मन कपास के फूल"(दोहा संग्रह) 2021. संप्रति: एसोसिएट प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) दयानंद सुभाष नेशनल महाविद्यालय उन्नाव (कानपुर विश्वविद्यालय). संपर्क - manjulatasrivastava10@gmail.com

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