घर के काम निपटा कर मैं बैठी ही थी कि एक फेरी वाले की आवाज ” हींग वाला , हीरा हींग वाला ” सुन कर मैं बालकनी की तरफ दौड़ कर गई, न तो मुझे हींग खरीदनी थी न वह हींग वाला ही मेरा परिचित था किन्तु उसकी आवाज में एक कशिश थी जिसने मेरी स्मृतियों के द्वार खोल दिये ।वह तो गली में मुड़ गया किंतु मैं पहुँच गई पीछे बहुत पीछे लगभग पचास वर्ष पीछे जब मैंने एक छोटे से कस्बे में अपनी गृहस्थी जमानी शुरू की थी। नकली मिलावटी चीजों की तब भी कमी नहीं थी पर ईमानदारी भी थी।
पड़ोस की चाची के घर से उठती हींग के बघार की महक से मेरा चौका भी महक उठता था।बड़े पंसारी की दूकान से मंगवाई गई मंहगी हींग की डिब्बी की महक में भी वह बात नहीं थी।मैंने चाची से पूछा वह हींग कहाँ से मंगवाती हैं तो वह बोलीं हमारा हींगवाला बंजारा तो साल में एक बार ही आता है जब आयेगा तो मैं तुम्हें बुला लूँगी ।बस तब से मैं रोज़ इन्तजार करती कब चाची का हींग वाला आयेगा और मेरा चौका भी उसकी हींग की सौंधी महक से भर जायेगा।
आखिर वह दिन भी आ ही गया ।नवम्बर का महीना था।गुलाबी ठंड पड़ने लगी थी ।दोपहर में हम सब औरतें मुहल्ले के बड़े चबूतरे पर धूप में बैठ कर गप्पें लड़ा रहे थे ।गर्म भुनी मूंगफली और ताजे अमरूदों की कटी फाँकों पर काला नमक छिड़क कर जब सब मिलजुल कर साथ में बैठ कर खाते हैं तो उनका स्वाद दूना हो जाता है।हँसी-खिलखिलाहट के साथ कभी- कभी चाय का एक-आध दौर भी हो जाता था।तभी चाची ने पुकारा—अनु बिटिया ! हींग लेना हो तो आ जाओ।मैं तो न जाने कब से इस आवाज़ का इंतजार कर रही थी।तुरन्त चाची के पास पहुँच गई ,देखा कि सामने एक अधेड़ उम्र का बंजारा अपना बक्सा खोले बैठा था।बक्सा क्या था पूरा भानुमती का पिटारा था।रंग-बिरंगे मोतियों की मालाएं, काली सफेद दुद्धियों को पिरो कर बनाई गई छोटे बच्चों को पहनाई जाने वाली पहुँचियाँ, काले धागे से बनी करधनी, सींग की कंघी, छोटे-बड़े चुटीले और भी जाने क्या-क्या ।मैं नजरों से बंजारे के बक्से को खखोल रही थी।मेरी नजर काली -सफेद दुद्धी से बनी पहुँची पर अटक सी गई थी।मैं सोच रही थी कि नन्हे गोरे हाथों की कलाई पर कितनी अच्छी लगती होंगी ये पहुँचियाँ।तभी चाची बोलीं जो भी चाहो खरीद लो बिटिया।
मैं चौंक कर अपनी खयाली दुनिया से बाहर आ गई।चाची और वह बंजारा दोनों ही मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा रहे थे ।मुझे प्रतीत हुआ कि इन दोनों ने मेरे मन को पढ़ लिया है।।मैं संकोच से भर गई ।बात बदलने की कोशिश करते हुये कहा अरे नहीं मुझे तो बस हींग ही लेनी है।यह सब तो मैं यूँ ही देख रही थी।कोई बात नहीं बहिनी आज हींग ले लो पहुँचियाँ अगले साल ले लेना और भी अच्छी बना कर लाऊंगा बंजारे ने हँस कर कहा।
मैंने साल भर के हिसाब से हींग खरीद ली।दाम पूछे तो वह बोला बस पाँच रुपये की।उस समय पाँच रुपये बहुत होते थे मुझे लगा कि यह मुझे ठग रहा है पर हींग तो ले ही चुके थे वापस भी नहीं की जा सकती थी।खिन्न मन से कहा —ठीक है पैसे अभी घर से ला कर देती हूँ तो वह बोला अभी नहीं अगली बार जब आयेंगे तब लेंगे , तब हींग के साथ पहुँचियाँ भी लेना ।मैंने उसकी तरफ आश्चर्य से देखा उसकी आँखों से पितृवत स्नेह छलक रहा था।चाची ने बताया यह पहली बार किसी से पैसे नहीं लेता अगले साल के लिये उधार छोड़ देता है।शायद उसका अपनत्व व विश्वास जोड़ने का यही तरीका था।मैं अपनी सोच पर सकुचा गई ।
मुहल्ले की सभी औरतों ने अपनी-अपनी जरूरतों की चीजें खरीद लीं थीं।बंजारा अपना सामान समेट रहा था।मैंने उससे कहा —बंजारा भैया ! अगर मेरे पति की बदली कहीं और हो गई तो हम तुम्हें पैसे कैसे दे पायेंगे।कोई बात नहीं –वह बोला —जब तुम्हें हींग की जरूरत हो हमें याद कर लेना,हमें हींग की कीमत मिल जायेगी ।इतना कह उसने अपना सामान उठाया और “हींग ले लो हींग ” की आवाज लगाता हुआ अगली गली की ओर चला गया।कुछ दिन के बाद ही मेरे पति का ट्रांसफर हो गया और हम बड़े शहर में आ गये।इस बात को बरसों गुजर गये पर वे काली-सफेद दुद्धियों की पहुंची आज भी मेरे मन में बसी हैं और उस अनजान बंजारे की हींग की महक आज भी मेरे मन में सोंधापन भर जाती है।