पुरवाई के संपादकीय ‘ब्रिटेन के टेलीफोन बॉक्स पुस्तकालय’ पर व्यक्तिगत संदेश के माध्यम से प्राप्त कुछ पाठकीय प्रतिक्रियाएं

डॉ तारा सिंह अंशुल, गोरखपुर
संपादकीय आलेख कुछ समय पूर्व ही पढ़ा है मैंने…
संपादक महोदय आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी द्वारा,..इस संपादकीय के माध्यम से पाठको को बिलकुल नयी जानकारी दी गयी है ।
इस आलेख में टेलीफोन बाक्स लाइब्रेरी क्या है…. इस तरह टेलीफोन के लाल बाक्सों को एक लाइब्रेरी के रूप में तब्दील करने का वास्तविक उद्देश्य क्या है ….और वहाँ क्यों लाल रंग के   टेलीफोन बाक्सों को लाइब्रेरी के रूप में बदला जा रहा है ….आदि के विषय में आप द्वारा तरतीब से बताया गया है।
हम समझ सकते हैं कि ,.. लंदन में नयी वैचारिक अवधारणा समेटे जन हित में, नव विचार क्रियान्वयन स्वरूप वहाँ ये टेलीफोन बाक्स लाइब्रेरी संलचालित हो रहे हैं। यह पढ़कर, निश्चित ही हम पाठकों को लंदनवासियों के नयी यूनिक कार्यसंस्कृति के विषय में  जानकारी मिली।
अतः आपको एक अच्छे नयी जानकारी से लैश इस संपादकीय आलेख  के लिए हार्दिक बधाई! शुभकामनाएं !
_________________________________________________________________________
शन्नो अग्रवाल
तेजेन्द्र जी, बहुत उत्तम और विचारणीय संपादकीय।
पुस्तकों को जीवित रखने के लिये यह एक बहुत बढ़िया तरीका है। जर्मनी आदि देश इस तरीके को पहले ही अपना चुके हैं।
ख़ुशी हुई पढ़कर की यहाँ यू.के. में भी धीरे-धीरे यह तरकीब अपनाई जा रही है। कितना भी ऑनलाइन पढ़ लो किंतु हाथ में किताबों का स्पर्श और उनकी ख़ुशबू की बात ही अलग है।
अपने संपादकीय में इस तरफ़ सबका ध्यान आकर्षित करने के लिये आपको साधुवाद, तेजेन्द्र जी।

________________________________________________________________________

समीक्षा तैलंग, पुणे
आदरणीय तेजेंद्र जी। संपादकीय पढ़ा।
हमेशा की तरह एक नया विषय, नई और रोचक जानकारी के साथ।
आपने सही कहा भारत में भी ऐसी लाइब्रेरी की जरूरत है। करने का नजज्बा चाहिए। हमारी सोसायटी के एक हट में एक लाइब्रेरी है। वहां अखबार भी आते हैं। शाम को सारे सीनियर सिटीजन चौपाल लगाकर वहां बैठते हैं। आपस में गहन विचार-विमर्श होता है। जिन्हें पुस्तक या अखबार पढ़ना होता है, वे वहीं बैठकर पढ़ते रहते हैं।
यह प्रोत्साहित तो करता है। लेकिन सोसायटी के अंदर है इसलिए उसकी चोरी नहीं होती। सड़क पर हो तो सबसे पहले अटाले वाले की नजर उस पर रद्दी के रूप में होगी। चोरी की आशंका ज्यादा रहेगी। जो सेकंड या थर्ड हैंड पुस्तकें बेचते हैं। वैसे पुणे में पढ़ने लिखने का माहौल अच्छा है। और जगह से यहां ईमानदारी भी ज्यादा है।

________________________________________________________________________

प्रो. जयशंकर तिवारी, गोण्डा
तेजेन्द्र जी, संपादकीय पढ़ा। पुस्तकों की अहमियत समझना किसी जाग्रत समाज का लक्षण है।टेलीफोन – बॉक्स पुस्तकालय अनूठा नवोन्मेष है। कुछ ऐसी खबर इस समय ‘तपन में शीतल मन्द बयार’ जैसी है।
अच्छा लिखा है आपने आदरणीय…!

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.