संत कबीर ने कहा था- हौं तो कूका राम का, मुतिया मेरा नाउँ। गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाउँ। यानी मैं तो राम जी का कुत्ता हूँ। मेरा नाम मोती है। राम जी मुझे जिस ओर खींच कर ले जाते हैं, मैं वहीं खिंचा चला जाता हूँ। कबीर ने खुद को राम जी का कुत्ता कहकर उनके प्रति अपनी परम भक्ति का आख्यापन किया। किन्तु यहाँ मेरा उद्देश्य भक्ति पर चर्चा करना नहीं है, बल्कि ज़ेवर और जेवड़ी यानी गले पड़ी रस्सी के रूप एवं अर्थ-साम्य की मीमांसा करना है।
अपने एक लेख में डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री ने महिलाओं के नाक की नथ के इतिवृत्त पर प्रकाश डाला था। उन्होंने बताया कि दुनिया के किसी हिस्से (शायद सीरिया) में जब आक्रान्ता किसी देश को जीत लेते तो वहाँ की सभी युवा महिलाओं को एक पंक्ति में खड़ा कर लेते, उनकी नाक में छेद करके नथ जैसा फंदा लगाते और सबकी नथों से होते हुए एक लम्बी रस्सी बाँधते। फिर सभी महिलाओं को नथ में बंधी रस्सी के माध्यम से एक पंक्ति में खींचते हुए अपने साथ ले जाते। बाद में उन युद्ध-विजित महिलाओं का क्या करते रहे होंगे, इसकी कल्पना पाठक खुद कर लें।
इस प्रकार अपने मूल अर्थ में महिलाओं के नाक की नथ उनकी घोर दासता, शोषण और परवशता का प्रतीक है। किन्तु आज वह उनकी सौन्दर्य-वृद्धि का उपादान मानी जाती है। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने तो उर्मिला के नाक की नथ और उसमें पिरोए गए मोती का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है, जो लगभग प्रत्येक हिन्दी-प्रेमी को स्मरण होगा। (नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से। देखकर सहसा हुआ शुक मौन है। सोचता है, अन्य यह शुक कौन है।) भ्रान्तिमान अलंकार के उदाहरण के रूप में इन पंक्तियों को उद्धृत किया जाता है।
भारतीय समाज में महिलाओं को घर की लक्ष्मी समझा जाता रहा है। उनके नाम सम्पत्ति खरीदने, अपनी कमाई लाकर उनके हाथों में देने और समस्त शुभ कार्यों में उनकी सहभागिता के हम सभी लोग कायल व अभ्यस्त रहे हैं।  महिलाओं के रूप-लावण्य की वृद्धि और निवेश, दोनों ही उद्देश्यों से हमारे यहाँ तरह-तरह के आभूषणों, रत्नों आदि के संचय की प्रवृत्ति रही है। ये आभूषण बहुमूल्य धातुओं से बनते हैं। वे पहनने वाले की श्रीवृद्धि तो करते ही हैं, साथ ही, सम्पत्ति का पर्याय भी माने जाते हैं। ज़रूरत पड़ने पर लोग आभूषण गिरवी रखकर, अथवा बेचकर अपना तात्कालिक काम संपन्न कर लेते हैं और पुनः धन-संचय के बाद फिर से नई तर्ज़ के आभूषण बनवा लेते हैं।
किन्तु मूल्यवान धातुएं हमेशा से ज्ञात रही नहीं हैं। उनकी खोज और प्रचलन मानवता के इतिहास में बहुत बाद में हुआ होगा। शुरुआत में तो फूलों, धागों, तन्तुओं आदि से ही शृंगार होता था। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में हमें मिट्टी के मनके आदि मिले हैं। आज भी आदिवासी समाजों में रंग-बिरंगे मनकों की मालाएं पहने महिलाएं दिख जाती हैं। यहाँ तक की गुदना भी एक प्रकार का शृंगार था, जो अब नये सिरे से नये-नये रूपों और रंगों में पुनः प्रचलन में आ गया है।
प्राचीन समाज में धागे ही आभरणों-आभूषणों का प्रमुख और सबसे मज़बूत आधार थे। कमर की करधनी, गले में तरह-तरह की मालाओं, कंठियों, हाथों और बाजुओं में तरह-तरह के रक्षा-सूत्रों, धागों और बाजूबंद, जनेऊ आदि का प्रचलन कहीं न कहीं आभरण और शोभाकारक उपादानों के रूप में ही हुआ होगा, किन्तु कालान्तर में उन्हें विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों, टोटकों व अन्य मान्यताओं से जोड़कर देखा जाने लगा।
कण्व ऋषि के आश्रम में पालित-पोषित शकुन्तला अपने शृंगार के लिए पुष्पों का इस्तेमाल करती है। लेकिन पुष्पों की माला बनानी हो या वेणी, उन्हें गूँथने के लिए धागे तो चाहिए ही। आज भी, सौभाग्य-चिह्न के रूप में हिन्दू महिलाएं जो मंगल-सूत्र पहनती हैं, उनमें सूत्र ही प्रधान है। दक्षिण में विवाह के समय पीला सूत्र वर द्वारा वधू के गले में बाँधा जाता है। पूजा के उपरान्त पण्डितजी रक्षा-सूत्र पुरुषों की दाहिनी कलाई पर बाँधते हैं और जिस प्रकार वामन ने राजा बलि को बाँधा, उस प्रकार अपने यजमान को बाँधने संबंधी कोई मंत्रोच्चार करते हैं।
धागों द्वारा तरह-तरह का यह बंधन क्या है? गहराई से सोचने पर मुझे तो यही लगता है कि यह रामजी की जेवड़ी ही है, जिसके ज़रिए हम प्रायः स्वेच्छा से और कई बार पराधीनतावश बंधन में जकड़े जाते हैं।
मैं पुनः मूल बिन्दु पर लौटता हूँ। ज़ेवर यानी जेवड़ी यानी रस्सी, चाहे वह गले में पड़ी हो, कमर में बँधी हो, धड़ के आर-पार फैली हो, कलाई में बँधी हो या पाँव में अटकी हो। ज़ेवर का मूल, केन्द्रीय तत्व है धागों से बनी पतली डोरी या रस्सी, जो तरह-तरह के मनकों, ठप्पों, पेंडेंट आदि को आपस में जोड़ती है। रस्सी न हो तो ज़ेवर न बने, न बाँधने में आए। ज़ेवर और जेवड़ी, इस अर्थ में पर्यायवाची हैं। दोनों बाँधते हैं। ज़ेवर से महिला (मानव मात्र) का मन बँधता है।
अपनी प्रेयसी-पत्नी को वशवर्तिनी बनाना है तो समय-समय पर ज़ेवर देते रहो। चाहे पहनने का कोई मौका न आए, किन्तु महिला के पास ज़ेवर होने चाहिए। घर में नहीं तो लॉकर में सही। किन्तु ज़ेवर में महिलाओं का मन बसता है। दक्षिण में तो बच्ची के पैदा होते ही यह उपक्रम आरम्भ हो जाता है। हर जन्म-दिवस पर, उसके रजोदर्शन के उपरान्त और विवाह-पर्यन्त स्वर्णाभूषणों के उपहार दिए जाते हैं। परिणामतः जब कन्या विवाह-योग्य होती है, तब तक उसके पास लगभग आठ-नौ सौ ग्राम या किलो भर स्वर्णाभूषण जमा हो चुके होते हैं।
महिलाएँ ही क्यों, ज़ेवर से तो महात्माओं और बड़े-बड़े साँपों-नागों का लगाव भी देखा-सुना गया है। सुनने में आता है कि अमुक-अमुक जगह खुदाई में एक बाँबी मिली। उसे खोदा गया तो गहराई में जेवरों से भरा ताँबे का पात्र मिला। पात्र के ऊपर पहरा देता एक नाग बैठा मिला। हो सकता है यह सिर्फ किस्से-किंवदन्ती की बातें हों। किन्तु इसका निहितार्थ क्या है? निहितार्थ यह है कि लोग अपने धन की रक्षा ऐसे करते हैं जैसे विषैला साँप। मरने के बाद भी लोगों को अपने धन, हीरे-जवाहरात, आभूषणों आदि का मोह नहीं छूटता और वे सर्प बनकर अपने धन के आस-पास कुण्डली मारे बैठे रहते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि ज़ेवर भी मनुष्य मात्र को बाँधे रहते हैं।
कबीर ने क्या सोचकर स्वयं को रामजी की जेवड़ी से बँधा-बँधा फिरने वाला कुत्ता निरूपित किया होगा? राम नाम की जेवड़ी जिसके गले में पड़ जाए, वह कितना धन्य है! वह जेवड़ी नहीं, ज़ेवर है, जिससे कबीर के गले की शोभा बढ़ गई, उनका जन्म सफल हो गया! ज़ेवर और जेवड़ी का यह अद्भुत साम्य देखकर मुझे इन शब्दों के अर्थ-चमत्कार पर विस्मय होता है।

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