“मनुष्य अपने भावजगत् की रचना स्वयं करता है, किन्तु वह इस कार्य को देषकाल की किन्ही परिस्थितियों में ही सम्पन्न करता है, और ये परिस्थितियाँ उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं होती ।…बाह्य जगत का इंद्रिय बोध और मनुष्य के मन का भावजगत् एक ही यथार्थ के दो पक्ष हैं जो एक दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र न होकर पर्रस्पर संबद्ध हैं ।’’
-डा. रामविलास शर्मा

हिन्दी में साक्षात्कार साहित्य का भण्डार बहुत समृद्ध नहीं है फिर भी वर्तमान समय की पत्र-पत्रिकाओं में यदाकदा साहित्यकारों के साक्षात्कार छपते रहते हैं । उन साक्षात्कारों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो लम्बे समय तक स्मृति में बने रहते हैं और वो रचना की और रचनाकार की सोच की दिशा को स्पष्ट करते नज़र आते है ।

‘‘हरे कक्ष में दिनभर्र’’ प्रबोध कुमार गोविल के संपादन में मोनिका प्रकाशन, जयपुर से विगत दिनों साक्षात्कार संग्रह प्रकाशित होकर आया है जिसमें हिन्दी साहित्य के 56 मूर्धन्य रचनाकारों के साक्षात्कार संग्रहित हैं जो अपने आपमें महत्वपूर्ण है । यह साक्षारत्कार राही सहयोग संस्थान के द्वारा करवाये गये आनलाईन सर्वेक्षण की विगत तीन सालों की सूची में से चयनित वो साहित्यकार हैं जिन्होंने तीनों वर्षों की सूची में स्थान बनाये रखा था । ऐसे सौ रचनाकारों में से छप्पन रचनाकारों के साक्षात्कारों को इस किताब में संग्रहित किया गया है ।

इस किताब की समकालीनता पर बात करते हुए सम्पादक ने अपनी बात में कहा है, ‘‘मेरे दिमाग में ये बात आई कि हिन्दी में बहुत सारे बेहद महत्वपूर्ण ऐसे साहित्कार भी हैं, जिन्होंने सार्थक और नायाब आधुनिक साहित्य रचा है, निरंतर लिख भी रहे हैं पर इस बात से बिल्कुल बेखबर हैं कि उनने काम को सामने लाया जा रहा है या नहीं । ऐसे में मुझे लगा कि आधुनिक साहित्य में से महत्वपूर्ण काम को चुनकर एक निष्पक्ष, विचारधारा विहीन पद्धति से कुछ समर्थ पाठकों, लेखकों, शिक्षकों, विद्यार्थियों, संपादकों, समीक्षकों, पुस्तकालयाध्यक्षों, पुस्तक विक्रेताओं, पत्र- पत्रिकाओं, इंटरनेट सर्फर्स, सजग बुद्धिजीवियों से सहयोग लेकर हर साल कुछ अच्छे और बड़े लेखकों की सूची तैयार की जाय ।’’

समीक्ष्य साक्षात्कार संग्रह में जिन 56 साहित्यकारों के साक्षात्कार संग्रहित है, उनमें प्रमुख है नरेन्द्र कोहली, काशीनाथ सिंह, हेतु भारद्वाज, कृष्णा सोबती, नामवर सिंह, मराठी के महत्वपूर्ण रचनाकार दामोदर खड़से, रत्नकुमार सांभरिया, डा. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, मैत्रैयी पुष्पा, रूपसिंह चंदेल, अशोक वाजयेयी, डा. प्रणव भारती, असगर वजाहत, नासिरा शर्मा, लीलाधर मंडलोई, सूरज प्रकाश, तेजेन्द्र शर्मा, प्रो. माधव हाड़ा, अनामिका, दूधनाथ सिंह, कात्यायनी, विष्वनाथ त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह,पंकज बिष्ठ, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, ममता कालिया, विष्णु खरे, राजेष जोशी, सुधीष पचोरी, मेनेजर पांण्डेय, विष्वनाथ प्रसाद तिवारी, भागीरथ परिहार, गोविन्द माथुर, डा. सुदेष बत्रा, गीरिष पंकज, नंद भारद्वाज, हरिराम मीणा, प्रेमचंद गांधी, कुसुम खेमानी, सुधा अरोड़ा, डा. सत्यनारायण, रजनी मोरवाल, संतोष श्रीवास्तव, मन्नू भण्डारी, उर्मि कृष्ण, कृष्णा अग्निहोत्री,राजी सेठ, मालती जोशी, सूर्यबाला, डा. कुसुम अंसल, लालित्य ललीत, जयप्रकाश  मानस, मिथिलेश्वर, प्रेन जनमेजय और सम्पादक स्वयं भी सम्मिलीत हैं ।

इन साक्षात्कारों की खिड़की से आती हुई हवा में विचारों की ताजगी तो नज़र आती ही है साथ ही यह भी पता चलता है कि वर्तमान समय में क्या रचा जा रहा है और वह कितना पढ़ा जा रहा है इसके साथ ही उसकी रचना प्रक्रीया क्या थी इस पर रचनाकारों ने विस्तार से प्रकाश डालने की आवश्यकता  को महसूस किया है ।

नामवरजी स्वयं कहते हैं, ‘‘फिराक साहब पर ग़ालिब का बहुत असर है । मीर तो मीर ही है । ग़ालिब खुद मानते थे, ‘‘हम हुए तुम हुए कि मीर हुए, उसकी जुल्फों के सब असीर हुए ।’’ जो सादगी मीर में हैं, ग़ालिब में नहीं । यह मीर और ग़ालिब का फर्क है । मीर को उर्दू में खुदा-ए-सुखन कहा जाता है । यदि मीर नहीं होते तो ग़ालिब नहीं होते । लेकिन मीर के दीवान में सारी चीज़े देखने पर काफी ‘कूड़ा’ मिलेगा । ग़ालिब ने एक भी कच्चा शेर नहीं आने दिया अपने दीवान में । यह सावधानी बरती है, वैसे ग़ालिब यह भी कहते हैं, ‘‘रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था ।’’ तो वहीं दूसरी ओर नरेन्द्र कोहली एक सवाल के जवाब में कहते हैं, ‘‘हिन्दुओं ने अपना इतिहास कभी नहीं लिखा । भारत का इतिहास हमेशा विदेशियों द्वारा लिख गया और विदेशियों ने भारत का आत्मगौरव बढ़ाने के लिए नहीं लिखा बल्कि इसलिए लिखा कि भारतीयों का आत्मविश्वास, आत्मगौरव ध्वस्त हो । इसलिए भारतियों को चाहिए कि वे अपना इतिहास स्वयं लिखें व रचे ।’’

उपन्यासरकार काशीनाथ सिंह भी एक सवाल के जवाब में ‘काशी का अस्सी’ और ‘रेहन पर रग्धू’ पर बात करते हुए कहते हैं, ‘‘इसमें दो राय नहीं कि यह बड़ी खतरनाक चीज़ है, जो भाषा ‘‘काषी का अस्सी’’ में है वह भाषा ‘रेहन पर रग्धू’ मंे नहीं है । इस देश की जो विदेशों में प्रतिष्ठा है, हिन्दू राष्ट्र के रूप में नहीं है । बहुलतावाद इसकी प्रकृति में रहा है । आरंभ में तो आक्रमणकारी लौट भी जाते थे और बस भी जाते थे । जहाँ तक मुगलों का सवाल है बहुत से लोग यहाँ रह गये । और इसे ही अपना देश मान लिया । बहुत से हिन्दुओं ने इस्लाम से प्रभावित होकर धर्म परिवर्तन किया । जिस दिन बहुतलावाद खत्म हो जायेगा भारत भारत नहीं रहेगा ।’’

कात्यायनी महिलाओं की वकालत करते हुए कहती है, ‘‘एक आम स्त्री पारम्परिक सामाजिक-पारिवारिक जीवन में यदि एकदम पारदर्शी और सहज हो जाये तो उसका जीना मुहाल हो जायेगा, पुरूष सत्ता का भेडिया उसे खा जायेगा । रहस्य आम स्त्री का प्रतिरक्षा कवच है लेकिन एक स्त्री जब एक बार रूढ़ियों-परम्पराओं के विरूद्ध विद्रोह करके लड़ने और रचने के संकल्प के साथ बाहर निकल पड़ती है तो संघर्ष और सृजन के लिए कम से कम कुछ हमसफरों के साथ अपनेपन का रिष्ता, कुछ दोस्ती कुछ प्यार तो चाहिये ही होता है ।’’

तो वहीं दूसरी तरफ विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं, ‘‘आलोचक का धर्म रचना को बतलाने का होना चाहिए । रचना को खारिज करने या स्थायित्व करने का काम आलोचक का नहीं है । यह काम पाठक का है । आलोचक की बताई हुई दिषा में कोई रचनाकार जा रहा हो, ऐसा मुझे कोई नहीं दिखता ।’’ राजेष जोशि समकालीन साहित्य पर बात करते हुए कहते हैं, ‘‘समकालीन साहित्य में जनतांन्त्रिक स्पेस बड़ी है । वह अधिक सामाजिक हुआ है । उसकी श्रेष्ठ रचना को विश्वि की किसी भी भाषा के श्रेष्ठ रचना के समकक्ष रखा जा सकता है ।’’

दामोदर खड़से लेखन प्रक्रिया के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘‘समग्र लेखन को लेकर किसी भी लेखक की सन्तुष्टि उसकी लेखकीय गति में अवरोध है । क्योंकि लेखन एक सतत प्रक्रिया है, जिसे चलते रहना है और चलते रहना चाहिए । लेकिन जहाँ तक कुछ रचनाओ का प्रष्न है, मुझे भी अपनी कुछ कहानियाँ, कविताएं अच्छी लगती है, जिनको लेकर मुझे संतुष्टि का अनुभव होता है ।’’ तो वहीं दूसरी ओर दलित लेखक रत्नकुमार सांभरिया अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए बताते हैं, ‘‘जीवन, जज्बा और जिजीविषा के फलस्वरूप मेरी कहानियों के पात्र ना हताष होते हैं, ना निराष होते हैं ना थकते-हारते हैं । विषम परिस्थितियों का सामना करते मान-सम्मान, स्वाभिमान और मर्यादा का जीवन जीते हैं । मेरा मानना है कि कहानी का पात्र जाति से चाहे कितना ही छोटा हो, उसकी प्रकृति पीपल के बीज जैसी होनी चाहिए । पीपल का एक छोटा सा बीज पत्थर को फाड़कर उग जाता है और अपना आकार लेता जाता है ।’’ अशोक आवपेयी अपनी बात कहते हुए बताते हैं, ‘‘मेरा साहित्य संसार के अनुराग से उपजता है और मै उसकी अनेक विडम्बनाओं के साथ उसका गुणगान ही करता रहा हूँ । रति, श्रृंगार, देह आदि पर रचने की भारत में लम्बी और प्राचीन परम्परा है, मैंने अपने समय में उसे पुनरायन करने की कुछ चेष्ठा की है ।’’ तो वहीं दूसरी ओर तेजेन्द्र षर्मा अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए बताते हैं, ‘‘रचना प्रक्रिया हर कहानी की अलग होती है ।

कोई कहानी एक सिटिंग में पूरी हो जाती है तो कोई-कोई महिनों सालों घिसटती रहती है ।…हिन्दी में हाथ से लिखने का अभ्यास नहीं था । बड़े बड़े अक्षर लिखता था और लाईन खींचता था । कहानी के साथ साथ मेरी हैंण्डराइटिंग भी विकसित होती गई ।’’ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय एक सवाल के जवाब में कहते हैं, ‘‘लेखन आत्म अभिवयक्ति की मेरी विवषता है । लेखक भौतिक दृष्टि से बहुत ही कमजोर इंसान होता है । बहुत कम लेखक होंगे जो व्यवस्था का विरोध करते हो और व्यवस्था उन पर अत्याचार करे तो तो वे अपना विरोध अपनी कलम की ही तरह सषरीर तीव्र रखे सकें । दाँत किटकिटाते हुए, आँख लाल किये, दुष्मन के दाँत खट्टे करने वाले रचनाकार के, हो सकता है उसी ताकतवर दुष्मन को सामने देख समस्त अंग काँपने लगे । पर उसकी कलम में विरोध का स्वर अनेक सषक्त लोगों को विरोध का संस्कार दे सकता है ।’’

समीक्ष्य किताब में 56 साक्षात्कार संग्रहित हैं जो अपने आपने अनूठे हैं । इनमें वर्णित विचार बेशक अलग अलग दिशाओं की ओर हमारा ध्यान ले जाते है लेकिन इन सबके बीच से आता हुआ मूल स्वर हमें एक ही लगता है और वह है वर्तमान समय के इस आपाधापी वाले युग में साहित्य को और संस्कृति को कैसे बचाया जा सकता है । ये रचनाकार बेषक अलग अलग परिवेष से आते हैं और उनकी भाषा शैली और कहन के अंदाज में  काफी विविधता हो सकती है किन्तु लगभग सभी रचनाकारों के मन में विष्व साहित्य के समकक्ष हिन्दी की रचनाओं के फलक में आये बदलाव को रेखांकित जरूर किया गया है ।

कहना न होगा कि ‘हरे कक्ष में दिनभर’ में सम्मिलित साक्षात्कार के माघ्यम से रचनाकार के अध्ययन कक्ष में झाँकने का प्रयास किया गया है और इसके बनिस्बत निथरकर आये ये साक्षात्कार अपने आपने अनूठे हैं और समय की आँच में तपकर हीरे की तरह अपने समय को निथारकर बाहर आये हैं । निश्चित तोर पर यह किताब अपने समकाल को चुनौति देती और पाठक के लिए नई सोच के रास्ते खोलेगी । जिसे देर तक और दूर तक चिन्हित किया जायेगा ।

समीक्षक – रमेश खत्री (संपादक, ऑनलाइन मेगजीन साहित्यदर्शन डाट इन)

समीक्ष्य पुस्तक – हरे कक्ष में दिनभर

संपादक-प्रबोध कुमार गोविल

प्रकाशक – मोनिका प्रकाशन, जयपुर

प्रकाशन वर्ष – 2019

मूल्य – 800 रूपये

पृष्ठ – 344

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