जय भीम संविधान के प्रकाश में न्याय की बात करती एक महत्वपूर्ण फिल्म है । फिल्म के जरिए पहली बार ईरुला समुदाय और सदियों तक उन लोगों द्वारा झेले गए संत्रास का अनुभव होता है। जिससे होकर कठोर हृदय का आदमी भी अमानवीयता के खिलाफ घृणा करेगा। जयभीम देखने के बाद तमिलनाडु में पेरियार की उपलब्धियों को लेकर निराशा होती है। एक नज़रिए से यह भी संकेत मिलते हैं कि हमारी राजनीति और व्यवस्था प्रतीक गढ़ती है। सिर्फ हीरोज बनाती है। अनुसरण करना भूल जाती है । अगर ऐसा नहीं तो ईरुला समुदाय के साथ हुई ज्यादती कम से कम तमिलनाडु में तो नहीं दिखनी चाहिए थी।
उत्तर भारत में जय भीम एक बड़ा राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन का नारा है। दक्षिण में भी ये उतना ही प्रभाव रखता है ये देखने की उत्सुकता के साथ जब ये फिल्म देखेंगे तो समय का पता नहीं चलता । जय भीम के नारे पर बनी ये फिल्म समाज पर एक जरूरी विमर्श है। न्याय व्यवस्था पर वैचारिक टिप्पणी है। समाज के हरेक तबके को न्याय देने की वकालत करता दस्तावेज़ है। सेंगिनी और राजकंनु घुम्मकड जनजाति के लोग है । जो एक गांव के बाहर की ओर जगह पा कर अपनी दुनिया बसा कर रहते है । उनकी दुनिया कुछ न होने पर भी इतनी हसीन है कि सबकुछ होने वाले उनपर रस्क करें। फिल्म शुरू के करीब चालीस से पैतालीस मिनट तक जाति के विभिन्न रूपों को दिखाती है । फिल्म की शुरुआत जाति की गणना से होती है । पुलिस वाले कमजोर जाति के लोगो को एक लाइन में और मजबूत जाति के लोगो को दूसरी लाइन में लगाते हैं। केसेज को निपटाने और प्रमोशन के लिए कमजोर जाति के लोगो पर कई तरह के आरोप लगा कर उनको जेल में डालते हुए दिखाया गया है।
सेंगिनी और राजकंनु दोनों अपनी बेटी के साथ खुश है और अब उनकी चाहत एक पक्के मकान की है । चाहत व्यक्ति के साथ बदलती है , एक व्यक्ति के लिए जो इट और पत्थर का घर है वो किसी का ख्वाब है | इसी ख्वाब के साथ दोनों काम करते है । दोनों सांप पकड़ने और उनका जहर मिटाने के काम में भी पारंगत है जिसके कारण उनको लोगो द्वारा बुलाया जाता रहा है ।
सांप पकड़ना और उनको न मारना बल्कि ये कह के छोड़ देना की मनुष्य के पास फिर मत आना , इसके अलावा कई दृश्य में कई जानवरों को बचाना उनकी प्रकृति के साथ चलते जीवन को भी दिखाता है । खेत में उनका चूहों को पकड़ना और अपने घर ले जाने का दृश्य हमें उत्तर भारत की मुसहर जाति का भी भ्रम देता है पर ये अलग जनजाति है जो सालो से भारत में रहते है पर उनकी कोई पहचान नही है । जाति प्रमाणपत्र बनवाने वाला दृश्य ध्यान खींचता है। पहचान के लिए कई तरह के प्रमाणपत्र मांग लिए जाते है । उनमे से एक व्यक्ति जब ये कहता है की हम तो उनसे एक प्रमाणपत्र मांगने गए थे और उन्होंने हमसे इतने सारे प्रमाण मांग लिए गए।
राजकंनु दुनिया की तब उजड़ जाती है जब वो सांप पकड़ने के लिए एक प्रधान के घर में जाता है। सांप पकड कर छोड़ देता है । पर उस दौरान तिजोरी का खुली होना और उसमे से सांप के निकलने के कारण राजकंनु का हाथ का निशान तिजोरी और उसके इर्द -गिर्द बाद में मिलता है । गहने चोरी हो जाते हैं जो पहला दोषी दिखाई देता है वो इसी जाति का है । इन्हें पकड़ के थाने ले जाना और उनपर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल रोंगटे खड़े कर देता है । पूरा मामला सिस्टम में बैठे ऐसे क्रूर लोगो की कहानी है जो अपने प्रमोशन और केस के लिए बेकसूर लोगो को मार देते हैं।
अत्याचार में राजकंनु की मौत हो जाती है। हालांकि पुलिसवाले उसे फरार घोषित कर ऐसी नायब कहानी और गवाह तैयार कर लेते है कि सब को उसी पर विश्वास हो जाता है । इसी बीच एक शिक्षिका में इन पीड़ित लोगों इनकी काफी मदद करती है और ये सेंगिनी को फिल्म के हीरो चंद्रू के पास ले कर आती है।
बेशक यह फिल्म तमिल फिल्मों के चर्चित अभिनेता सूर्या शिवकुमार के कारण केंद्र में आई। सूर्या वकील चंद्रू की बेहतरीन भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि चंद्रू मद्रास हाईकोर्ट में न्यायाधीश थे। यह उनके जीवन के उन प्रारम्भिक दिनों की एक सच्ची घटना पर आधारित है, जब वे वकालत करते थे। फिल्म का मुख्य विचार haebus corpus कानून है। इसी कानून को लेकर पूरा ताना-बाना बुना गया है। एक ऐसा कानून जिसे फिल्म के सरकारी वकील की भाषा में अदालत का वक्त जाया करने वाला कानून कहा जाता है । लेकिन नायक चंद्रू के लिए यह कानून हजारों ऐसी ज़िंदगियों की मुक्ति का माध्यम बना जो अवैध तरीके से हिरासत में लिए गए। पुलिस दस्तावेज़ों में जिन्हें फ़रार या भगोड़ा घोषित कर दिया गया। फिल्म भारतीय पुलिस व्यवस्था को एक नए ढंग से देखती है। लेखक व निदेशक टी जे ज्ञानवेल द्वारा निर्देशित इरुलर जाति के आदिवासी समुदाय के लोगों पर पुलिस और प्रशासन द्वारा अत्याचार एवं शोषण के मामले पर आधारित यह फिल्म सिनेमा के माध्यम से हमारा ध्यान एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर दिलाती है।
चंद्रू हेबियस कार्पस नाम की याचिका न्यायालय में दाखिल करता है। इसके बाद पेश आया कोर्ट रूम ड्रामा आपको फिल्म से ज़रा नजरे हटाने नही देता । कोर्ट रूम के दृश्य कमाल के हैं। कई जगह लाल झंडा आपको मार्क्सवाद की भी याद दिलाएगा । सिस्टम का गरीब को परेशान करना किंतु उसी सिस्टम में अच्छे लोगो का भी होना फिल्म दिखाती है । इस फिल्म में एक कमाल का दृश्य है जहां पर पुलिस का सबसे उच्च अधिकारी अपने विभाग की इज्जत बचाने के लिए संगिनी को बुलाता है और उसको पैसे और सपोर्ट की पेशकश करता है। मगर वो उनके ऑफर को नहीं मानती । गरीबी एवम स्वाभिमान को अपने अभिमान के उच्चतम स्तर तक ले जाकर दर्शकों का दिल जीत लेती है । अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए संविधान के प्रकाश में अन्याय को समाप्त करने की ये कहानी याद रहती है। इस फिल्म के कलाकार वास्तविक लगते हैं।
‘जय भीम’ अपने पहले ही सीन से दर्शकों का ध्यान खींचने में कामयाब होती है। यह फिल्म सूर्या के करियर की सबसे अहम फिल्मों से एक बन गई है। इस फिल्म की सबसे खास बात है, इसे पेश करने का अंदाज। फिल्म में सिर्फ नायक पर ही फोकस नहीं किया गया है। सभी कलाकारों ने एक्टिंग में कमाल किया है। फिल्म का आकर्षण भले ही वकील चंद्रू है लेकिन उसे स्टीरियोटाइप हीरो नहीं होने दिया गया है। कहानी नायक से अधिक महान रखी गई है। निर्देशक टी.जे ज्ञानवेल ने बहुत ही संवेदनशील कार्य का परिचय दिया है।
घटनाओं के हिसाब से सभी किरदारों पर भी पूरा ध्यान दिया गया है। राजाकन्नू का किरदार मणिकंदन और सेंगेनी का रोल लिजोमोल ने निभाया है। मणिकंदन और लिजोमोल ने जबरदस्त एक्टिंग की है। वहीं प्रकाश राज एक ईमानदार IG के रोल में बताते हैं कि कैसे यदि पुलिस और न्याय व्यवस्था अपना काम सही से करे तो लोगों को न्याय मिल सकता है। इन सबके अलावा सहायक किरदारों ने भी असरदार भूमिका निभाई है। फिल्म की एक बात और अच्छी है कि इक शिक्षिका मजबूत कड़ी बनकर उभरी है। किंतु नायक एवम उसके बीच ध्यान बंटाने वाली लवस्टोरी नहीं गढ़ी गई। फिल्म न्याय दिलाने के महत्व को रेखांकित करती है। जय भीम में जाति आधारित भेदभाव को संजीदगी से दिखाया गया है।फिल्म के कई सीन ऐसे हैं जिन्हें देखकर आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे। विषय आपको काफ़ी देर तक परेशान करेगा। न्यायिक व्यवस्था की कमियों को प्रकाश लाने वाली इस फिल्म को imdb ने साल की सबसे बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया है। कुल मिलाकर जय भीम को माइलस्टोन सिनेमा कहा जाना चाहिए।