Saturday, July 27, 2024
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डॉ दिविक रमेश की कलम से रश्मि बजाज की पुस्तक ‘कहत कबीरन’ की समीक्षा

कहत कबीरन, रश्मि बजाज, 2022, अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-110030, 280रु.
‘कहत कबीरन, सुनत कबीरा’ भले ही “कहत कबीरन” संग्रह‌ के स्त्री- केंद्रित कविताओं वाले खण्ड से पहले खंड की परिचयात्मक पंक्ति के रूप में लिखा गया हो किंतु कविता-संग्रह का शीर्षक “कहत कबीरन” संग्रह की तमाम कविताओं के लिए सटीक है। कबीर की बेलाग, बेख़ौफ और हर ओर ताकती सीधी-सच्ची कहन-शैली संग्रह में छाई हुई है। मुझे ठहर-ठहर कर लगा है कि ये कविताएँ, कवि के संदर्भ में स्वयं से, सृजन से, समाज से और तमाम पाठकों से खुला संवाद हैं। साथ ही बहुत ही मौज़ूं प्रश्न भी उठाए गए हैं। 
मनुष्य और मनुष्य के बीच से गायब हो रहे प्रेम को पुन:अपनी जगह स्थापित करने की चुनौती को स्वीकार करते हुए ‘प्रेम कविताएं’ के अंतर्गत बहुत ही मार्मिक कविता है
‘बगावत’:
बरसती हों
जब हरसू
कातिलाना नफरतें
तो प्रेम पर
कविता लिखना
रूमानियत नहीं
एक बगावत है!
ये बगावत 
मेरे दौर की
लाज़मी ज़रूरत है!
कवि ऐसी भाषा खोज लाना चाहती है जिसका हर शब्द –अर्थ केवल प्रेम हो। वह शब्दों के उस अंतिम पड़ाव पर पहुँचना चाहती है जहाँ गूढ़ सत्य को अपने अंक में समोए मौन होता है। जिंदगी का समय अटा पड़ा है पंचनामों, तवारीखों या सियासतों की अदालतों से लेकिन ज़िन्दगी की असल दौलत तो ‘मोहबत की भीनी खुशबू’ ही है (‘नहीं है’)। कोई कवि यदि पिंजरे में कैद पंछी की व्यथा नहीं कहता तो उसे क्यों कटघरे में खड़ा किया जाए? (‘कटघरे में कवि’)। जग जब ख़ुदग़र्जी में दबा-दबा हो, जहाँ बोलना चाहिए, वहाँ भी न बोले , तब सिर्फ ‘कबीरन’ ही बोलती है :
सब चुपचाप
जारी है इंतजार-
लाश की जात, लाश का मज़हब मालूम होने तक!
रोती है तो
सिर्फ कबीरन…
वह बेचैन है, करना चाहती है प्रवेश इस बंटे-कटे जहाँ में- बेजात होकर, बेमज़हब होकर, बेजैण्डर होकर- वह ‘इक नई सुबह’ की तलाश करती है।
कवि के पास उम्मीद का एक ऐसा साम्राज्य है जिसके बल पर वह ‘जीवन’ का ध्वज निरंतर फहराते नज़र आती है। मृत्यु की निस्सारता को मानो वह चुनौती देना चाहती है। कोरोना की भयावहता को कविताओं में रचते हुए वह दर्शन के उस शिखर की हिमायत करती नज़र आती है जहाँ मृत्यु-भय शेष के प्रति ‘मोहब्बत’ में परिवर्तित हो जाता है।कोरोना का एक नया पाठ प्रस्तुत करने में भी कवि सक्षम रही है। एक पुख़्ता सोच उभरती है और सकारात्मक प्रश्न के रूप में हाथ थाम लेती है- 
जीवन कब है
समाप्त हुआ? 
कथ्य के साथ अभिव्यक्ति-कौशल की दृष्टि से भी एक अच्छी कविता है- ‘कोराना और एकाकी स्त्री’ जो अपने ही परिवेश से औज़ार उठाती है और तब उन्हें सार्वजनिक करती है-
पहुँच मनचाही सड़क पर
भरती है कुलांचे 
मृग छौने की तरह 
आह्लादित एकाकी स्त्री!
जैसा भी सही
कोरोना
पुरुष तो नहीं…
‘कोरोना, कितनी है तुम्हारी लहरें’  कविता की निम्न पंक्तियाँ भी विशेष पठनीय हैं:
सूनी आंखें, रुंधा गला
उखड़ती सांस
एक लाचार, खौफज़दा आवाज 
हौले से
घरघराती है: 
“पुत्तर मैंनू लग रयाए
1947, 2016 वरगा”
कवयित्री का प्रश्न है: “कोरोना, कितनी हैं /तुम्हारी लहरें-/क्या तुम कभी/ नहीं भी थे?”
कहते हैं दर्द से भी बड़े दर्द को याद कर लिया जाए तो दर्द ख़ुद- बख़ुद व्याख्यायित हो जाता है।
संग्रह की स्त्री- केंद्रित कविताओं में आया स्त्री-विमर्श मुझे बहुत ही सधा हुआ और सटीक-संतुलित लगा है-सजग करता हुआ, तैयार करता हुआ।कोई शोर-शराबा नहीं, कोई हाय-तौबा नहीं। बस सही नस पर उंगली टिका दी गई है, पाठक की समझ पर भरोसा करते हुए। एक छोटी-सी कविता है- ‘घर और औरत’-
घर की
नम,उदास दीवारें
कहती हैं…
इस घर में
कोई औरत भी
रहती है…
देखिए- थोड़े में लिखा, पूरा समझाना क्या होता है- 
बसा है स्त्री की
आदिम-स्मृति में 
क्रूर आखेटक! 
जैसा स्त्री-जीवन असल में होना चाहिए, वह फिलहाल सपने में ही है, ज़मीन पर तो उसे उतारना है- इस बात को रचनात्मक रूप में समझने के लिए पठनीय है कविता ‘मैंने ख़्वाब देखा है’ :
मैंने ख़्वाब देखा है
कि मेरे देश में
बेटियों के मां-बाप 
जी रहे हैं सर ऊंचा कर
मैंने ख़्वाब देखा है 
कि भारत के पुरुष
रच रहे हैं
सबसे सुंदर
स्त्रीवादी गीत ,कविताएं
रसोई से
शयनकक्ष तक…
रश्मि बजाज की निगाह केवल अपने आसपास तक ही नहीं रुकी है बल्कि दूर-दूर तक गई है –अफगानी महिलाओं तक तो तस्लीमा तक भी । यही नहीं उसकी दृष्टि सबरीमाला तक भी गई है और विभिन्न धर्मों वाली स्त्रियों की ओर भी।पूरे दमखम के साथ स्त्री-विरोधी ताकतों से टक्कर लेती निदा खान जैसी जांबाज महिला एक्टिविस्ट औरतें भी कविता में मौजूद हैं। कविताओं का यह पक्ष सचमुच बहुत मज़बूत है। ‘सयानी लड़कियां’ की कुछ पंक्तियों को पढ़ कर कवि की दृष्टि का पता लगाया जा सकता है- 
जैसे-जैसे 
सयानी लड़कियां
होने लगती हैं बड़ी
समझने लगती हैं वो
सब कही, अनकही
रख देती हैं वो
उठा कर कहीं पीछे, दूर नीचे
पादरी, पंडित, मोमिन की दीं
विचारकों, विमर्शकारों की लिखी
सारी पोथियाँ…
रचना है उन्हें 
एक भाष्य नया…
संग्रह के अंतिम भाग ‘अभी न थकना मेरी लेखनी’ में भी कुछ सशक्त कविताएँ हैं, जैसे ‘ऐ मेरे देश’, ‘सुनो पार्थ’, ‘एक ही बोली’, ‘चुप्पी’, ‘मर गई थी कविता’ आदि। देश-प्रेम और सत्ता-प्रेम का महीन भेद पहली ही दो कविताओं में बख़ूबी आ गया है। 
एक अच्छे काव्य- संकलन के लिए कवि रश्मि बजाज बधाई की पात्र हैं। 
दिविक रमेश
दिविक रमेश
वरिष्ठ साहित्यकार. बाल साहित्य के क्षेत्र में विशेष पहचान. संपर्क - [email protected]
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5 टिप्पणी

  1. समीक्षा प्रकाशन हेतु तेजेन्द्र शर्मा जी एवं पुरवाई टीम का हार्दिक धन्यवाद!

    • रश्मि पुरवाईआपकी अपनी पत्रिका है। यहां स्तरीय रचनाओं का हमेशा स्वागत होता है। दिविक जी ने आपके कविता संग्रह पर गंभीर समीक्षा लिखी है। बधाई।

  2. रश्मि बजाज जी के काव्य का उत्तम विश्लेषण दिविक रमेश जी की सशक्त कलम से।

    • अनीता जी, हार्दिक आभार ! दिविक रमेश जी ने अंतर्दृष्टिपूर्ण विस्तृत विश्लेषण दिया है ।

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