पुस्तक  :  जैसे रेत पर गिरती है ओस (काव्यात्मक डायरी); रचनाकार  :  डाॅ. जाबिर हुसेन; संस्करण : जनवरी 2020; प्रकाशक  :  दोआबा प्रकाशन, 247 एम आई जी, लोहियानगर, पटना – 800006
समीक्षक : अनिता रश्मि
कितना तन्हा है आसमान! मैंने अपनी आँखों में आए आँसुओं से पूछना चाहा। कोई उसका साथी – संगी नहीं। क्या आसमान ने कभी ईश्वर से अपने अकेलेपन की शिकायत की है!
   – ये शब्द अँकुरित हैं उर्दू-हिन्दी के लेखक, कवि, संपादक, बिहार विधान परिषद् के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. जाबिर हुसेन साहेब की नवीनतम कविता पुस्तक के अंदर!
जाबिर जी की सद्य: प्रकाशित पुस्तक में लिखा है –
 “जाबिर हुसेन की डायरी के पन्ने”
लेकिन यह डायरी नहीं, बल्कि कविताओं से भरी पुस्तक है। खैर ! इनसे गुजरते हुए बढ़िया अभिव्यक्ति का स्वाद देर तक पाठकों के साथ चलता है।
इस उम्र में भी जाबिर साहेब की सक्रियता अनुकरणीय। साहित्य अकादमी सम्मान संग अनेक सम्मानों से सम्मानित हुसेन साहेब इस काव्य संग्रह ‘ जैसे रेत पर गिरती है ओस ‘ में भी शामिल अपनी छोटी, अर्थवान कविताओं की प्रखरता के लिए जाने जाएँगे, पहचाने तो जाते ही हैं। । यथा —
भट्ठे से
निकाली गई
ईंटें इतनी गर्म
क्यों होती हैं
उनमें आग का
अंश होता है
मजदूरों का लहू
होता है ( गर्म ईंटें )
अब वह जमाना रहा नहीं, जब राहगीर भी अपनत्व पाता था। संवेदना की लहर हर गली, डगर में समान रूप से बहती थी। उस लहर के गुम जाने के अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही बीते हैं। पर महसूस होता है, सदियों से संवेदनहीनता ने हमारे मानस को जकड़ रखा है। आजकल लोग दूसरों के मामलों में नहीं पड़ते। मौत को भी एक तमाशे की तरह देखते हैं। चाह लें, बचा सकते हैं पीड़ितों को लेकिन चल देते हैं पल्ला झाड़कर। या बस, तमाशबीन बनकर रह जाते हैं। ऐसे में सजग कवि की कलम चुप कैसे रहे –
दिनदहाड़े
सड़क पर
कोई चल बसा
आप मौजूद थे
जब ये
तमाशा हुआ ( दिनदहाड़े)
जैसे रेत पर गिरकर ओस विलीन हो जाती है, वैसे ये कविताएँ विलीन नहीं होती हैं। कदापि नहीं। बल्कि चिंतन के लिए एक मजबूत आधार में ढल जाती हैं। आज वैश्विक सामयिक चिंताओं में घुला है, कम होते जाते पानी का दर्द। घटता और प्रदूषित जल अगली तीखी नफ़रत और लड़ाई की जमीन तैयार करने के लिए उद्धत है। हम भी नहीं सँभल रहे। हर कंठ को जल मयस्सर नहीं। सरकारी दावे खोखले। लापरवाही चरम पर। ऐसे में कविता कहती है —
नल किनारे
मिट्टी के
इन घड़ों में
क्या है
क्या
पानी है
नल तो तीन महीने से
टूटा पड़ा है।
देशकाल की गहरी पड़ताल, समझ। कवि की निगाहें लगातार हर विसंगतियों-विडंबनाओं की साजिशों पर पड़ती रहती हैं। समाज की हर टेढ़ी-सीधी चाल का जैसे हिसाब रखती हों। रवि पहुँचे, ना पहुँचे… कवि तो पहुँच ही जाता है हर कोने-कूचे में। और ऐसे में जाबिर साहेब का एक और काव्य बताता है —
घोड़े
पिकनिक मनाने
समंदर तट गए हैं
शहर के
तमाम अस्तबल
खाली हैं
ये कविताएँ अपने समय के कई जरूरी सवालों से भी टकराती हैं। हाकिम हमारे शहर का, रंगीं चिराग़, आग, बंजर ज़मीन पर, घना एक जंगल, ढंका एक चेहरा, ठहरे हुए वक्त में, उस सड़क की तलाश, सिसकियों का अंबार आदि में ये विविध सवाल मुखर हो उठते हैं। ऐसे सवाल, जिनके जवाब नहीं मिलते। अपने छोटे-बड़े स्वार्थ और सुख में उलझे मानवों की जैसे व्याख्या सी की गई है कि थोड़ा सा जो कुछ बचा रह जाता है मनुष्यता के भीतर उसके लिए उसने  ‘ प्राण त्यागे ‘.. इतना ही नहीं, हौसला एवं उम्मीद की भी बात पुस्तक में उठाई गई है क्योंकि अंततः उम्मीदें बाकी हैं। खूबसूरत शब्दों की जुगलबंदियाँ पाठक को बाँध सी लेती हैं।
 ‘ये झंकार’ की पंक्तियों को देखें –
बाँधने वाले ने
हथकड़ियाँ ढीली
छोड़  दी थीं
बेड़ियांँ उसने
डालीं  ही नहीं
फिर ये झंकार
कहाँ से आती है।
मन को विचलित कर देती हैं उपर्युक्त पंक्तियांँ। कम में इतना कुछ कह जाती हैं कि और कुछ कहने को बचता ही नहीं।
अपनी गद्यात्मक रचनाओं के साथ अपने पद्य से भी बाँध लेते रहे हैं कवि। 168 पृष्ठ में फैली कविताएँ पाठकों के अंदर फैलकर जैसे सोए हुए लोगों को जगाने का कार्य करती हैं। छोटी रचनाओं का विस्तार देखते बनता है। लगभग हर ज्वलंत विषयों से मुठभेड़ करती पाठकों के दिल को हौले से छू लेती हैं ये रचनाएँ।
राजनीति का चेहरा हमेशा से बहुत सुखद कभी नहीं रहा है। ऐसे में कोई कवि चुप रह ही नहीं सकता। ऐसे कवि तो कदापि नहीं, जो स्वयं उसका हिस्सा रहकर उसकी जमीन को नजदीक से देखते-समझते भी रहे हैं।
राजनीति की पोल पट्टी खोलनेवाली निम्न पंक्तियों से मिलें –
 इब्न बतूता ने
अपनी धुँधली आँखों से देखा
सत्तर
साल के कई बच्चे
संसद भवन के लाॅन में
कंचे खेल
रहे हैं
यहाँ भी इब्न बतूता अपनी सार्थक उपस्थिति अनेक काव्य में दर्ज कर रहा है, जैसे अभी कुछ महीनों पूर्व छपे इनके ‘ आईना किस काम का ‘ काव्य संग्रह में था।… जैसे इब्न बतूता का कुछ हिस्सा उस संग्रह से छिटककर यहाँ आ गया हो, अपने तीखे प्रश्नों को काँधे पर ढोते हुए।… जैसे उसके पास कहने को अभी भी बहुत कुछ हो।… जैसे कहन की छटपटाहट को व्यक्त करने के लिए इब्ने बतूता एक बड़ा प्रतीक बनकर उभरा हो।
अघोषित बदलावों की माँग करती, गंभीर पर पठनीय, भावपूर्ण, चिंतन को विवश करती कविताई। कथ्य में स्पष्टता, आवरण अर्थपूर्ण, प्रूफ की अशुद्धियाँ नगण्य। पाठकों को बाँधेगी, यह आश्वस्ति थमाती एक उल्लेखनीय पुस्तक है यह… जैसे रेत पर गिरती है ओस!

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