शाम ढलने को थी, आसमान उदास था
 शायद उसके आईसीयू में होने की ख़बर उसे भी लग गई थी । अस्पताल की गहमागहमी से दूर, आईसीयू वार्ड में तमाम मशीनों से घिरा, ऑक्सीज़न मास्क लगाए वह बेचैन रहा। पिछले आठ दिनों में दूसरी बार आईसीयू में भर्ती होना घरवालों को ही नहीं डॉक्टरों को भी चिंतित कर गया।
   “अभिषेक जी! इन्फैक्शन  ख़त्म होने के संकेत मिले तभी हमने रूम में शिफ़्ट किया था, मगर अब दोबारा… ! शरीर इम्यूनिटी पावर खो रहा है, मगर दिमाग! ओ माई गॉड! इस उम्र में इतना सचेत दिमाग किसी पेशेंट का नहीं देखा, वह भी इस हाल में आने के बाद । मुझे लगता है, मेहता साहब यह जंग भी जीत लेंगे। डोंट वरी!” कहते हुए डॉक्टर उनकी ओर मुड़ा, “मि. मेहता! मुझे लगता है बहुतों की दुआ और प्रार्थना आपके साथ है। आप जल्द अच्छे हो जाएँगे। मगर इस वार्ड में डॉक्टर और नर्स के सिवा हम किसी और को आने की इजाज़त नहीं दे सकते, सो प्लीज को-ऑपरेट विद अस।” 
     “मैं अकेला नहीं रह सकता! प्लीज कोई तो समझो!” वह मास्क के भीतर गुंगुवाता रहा, आवाज़ बाहर न निकली। डॉक्टर के साथ ही परिवार वाले भी कमरे से निकलने पर मज़बूर हो गए। यों भी था ही कौन, सिवाय अभिषेक और उसकी पत्नी  के! अभिषेक उसका बेटा तो नहीं, मगर बेटे जैसा ही था। पैतीस वर्ष पुराना छात्र| सोसाइटी कोरोना मरीज़ों का अड्डा बन गई| उनकी तबियत ज़रा नासाज़ हुई तो उन्हें बचाने की ख़ातिर अभिषेक साथ ले आया, मगर तब तक देर हो चुकी। इन्फैक्शन फैल चुका था। कोई लक्षण प्रकट नहीं हुआ तो समझते-समझते देर हो गई, फिर भी डॉक्टर के हिसाब से वे सही समय पर अस्पताल पहुँच गए थे और अभिषेक का इशारा पाकर कि वे बिल की चिंता न करें, डॉक्टर ने अपनी पूरी कोशिश ज़ारी रखी थी। अब भी उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती और दोबारा आईसीयू का मेहमान बना दिया। उनके आराम में खलल न पहुँचे, इसलिए मोबाइल भी हटा दिया गया।
 “सरकारी अस्पतालों में क्या निजी अस्पतालों में भी बेड मिलना आसान न था। पूरा देश चिता की लपटों से घिरा है| ऐसे में, ऐसा बेहतर अस्पताल और डॉक्टर मिलना सचमुच भाग्य की बात है!” अभिषेक वार्ड के बाहर किसी से कह रहा था।
  “पापा ठीक हो जाएँ तो उन्हें इतनी दूर लाना सफल हो जाए!”
डोंट वरी! तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं जाएगी।”
ये कौन? आद्या? नहीं, नहीं?वह झल्ली भला यहाँ कहाँ? उसे क्या पता मैं यहाँ इस हाल में हूँ। मैं तो उसे बता भी नहीं पाया कि …’ सोच उलझी तो दिमाग झनझनाने लगा। उसने आँखें बंद कर लीं। कान खुले रहे या अधखुले, वह समझ नहीं पाया, मगर भीतर कहीं कुछ घुलता, कुछ खुलता महसूस हुआ। उसने आँखें खोलनी चाहीं, मगर पलकें बोझिल थीं| भीतर के बंद दरवाज़े खुलने लगे| अँधेरा तीखी धूप से छन-छनकर आते उजाले में बदलने लगा| अभिषेक की आवाज़ दूर-बहुत दूर से आती महसूस हुई।  दरवाज़े की घंटी की आवाज़ क़रीब और क़रीब आती गई…
     
सामने गुलाबी सूट में लिपटी, आँखों में झिझक लिए एक साँवली मूरत खड़ी मिली|
 “क्या हम कभी मिले हैं? मेरा मतलब किसी कार्यक्रम में या प्रदर्शनी में?”
“आपको देखा भर| मिलने का साहस न जुटा सकी थी| आज भी श्याम सर ने ही आश्वस्त कर भेजा|”  
“क्यों?… मैं तो सहज भाव से सबसे मिलता हूँ|”
“आपका व्यक्तित्व दूर से ही विराट् प्रतीत होता है और एक अनदेखे घेरे के भीतर ख़ुद को सुरक्षित रखने की पेशकश करता हुआ भी…”
“मगर तुमने तो घेरा तोड़ दिया| प्रवेश कर गई …” सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए उसने कहा|
“साहित्यकार हो, प्रेम समझती हो?” बातचीत के दौरान वह पूछ बैठा|
“जीती हूँ| मगर प्रेम का औदार्य समझने वाला कोई न मिला|”
“छोटी हो,मगर वैचारिक स्तर …. तुमसे बात करने में आनंद आएगा| जीवन की तहों को खोलने की ललक है तुममें!जिसने प्रेम का औदार्य समझ लिया, उसकी दृष्टि की व्यापकता पर संदेह नहीं किया जा सकता|”
“जी शुक्रिया! आप इतने बड़े चित्रकार और रचनाकार … और मैं … ”
“उम्र या सामाजिक पद-प्रतिष्ठा किसी की परिपक्वता की ऊँचाई नापने का पैमाना नहीं हो सकता| तुममें एक  आग महसूस हो रही है …इस आग को बुझने मत देना| ज़माना झुकेगा एक दिन|” उसने आद्या की तरफ़ देखते हुए कहा| आद्या की आँखों में ठहरा पानी हलचल मचाने लगा तो वह अचानक उठ खड़ी हुई|
“अब आज्ञा दीजिए सर! आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा|”
“मुझे भी अच्छा लगा| जब समय मिले, आ जाया करो|  और ये तुम्हारे लिए…”
   उपहार में पुस्तक पाकर वह खिल उठी| कुछ कहना चाहा मगर बोल न फूटे तो हाथ जोड़, कमरे से बाहर निकल गई|  वह कुछ क्षण दरवाज़े की तरफ़ देखता रहा| फिर, ख़ुद को टटोला, ‘कुछ हुआ भीतर! जैसे-जैसे…आख़िर क्या? इस जैसे कितने ही तो बच्चे मिलने आते हैं यूनिवर्सिटी के, मगर ऐसा क्यों लग रहा है जैसे…’ वह आश्चर्य से घिरा, कमरे में घूमता घंटों शब्द ढूँढता रहा, ‘रंगों-हर्फ़ों  का जादूगर मेहता आज नि:शब्द हो गया! आश्चर्य!’    
                                                        x
“सर! मैं निःशब्द हूँ| क्या कहूँ? आपका बचपन मेरे भीतर उतर आया है|   न जाने कब आपका किरदार निकल कर मेरे जीवन का हिस्सा बन गया कि उससे खूब-खूब बोलती-बतियाती हूँ। मगर आप अलग दिखते हैं… बड़े… विराट्। मैं समझा नहीं सकती।” फोन पर वह शब्दों को चबाती हुई बोली।
“कोई बड़ा-छोटा नहीं होता|तुम्हें मालूम नहीं कि इन चंद महीनों  में तुम मेरे परिवार का ही नहीं, मेरे जीवन का हिस्सा बन गई हो। संबंध का नामकरण ज़रूरी है क्या? स्नेह की धारा क्या यों ही प्रवाहित नहीं हो सकती?”                  
“क्यों नहीं?
 “तो दोस्ती पक्की?”
“वक़्त पर छोड़ देती हूँ। ख़ुद को टटोलूँ, उस योग्य हूँ भी या नहीं|”
“आद्या! जीवन में बहुत कम लोग मिलते हैं जो एक वेवलेंथ पर खड़े हों| तुम हो| इससे अधिक क्या कहूँ!”
“ कभी अचानक आपके भीतर का वरिष्ठ नामचीन तो दोस्ती के आड़े नहीं आएगा? और …”
“ कुछ बातें वक़्त पर छोड़ दिया करो|”
“सर, आपके भीतर सच्चाई पाई है| आपके बचपन की छवि को बालसखा बना चुकी हूँ| वह आत्मीय है और वायवी भी| उसकी अमूर्त्त उपस्थिति पूर्णता के साथ दर्ज़ है| उसके साथ मैं खुलकर कह सकती हूँ, कुछ भी|”
“क्या मूर्त्त रूप में मैं इस योग्य नहीं?”
… 
“आती हूँ किसी दिन|” गहरी ख़ामोशी के बाद उसके शब्द सुनाई पड़े|
    फोन कट चुका था। मेहता उस अनकहे को ढूँढते रहे देर तक। बालकोनी से वृक्षों ने झूम-झूम कर हवा सरसराने का सँदेसा दिया तो कागज़-कलम लेकर वहीं बैठ गए। ज़रा-सी देर में एक नन्ही पत्ती हवा-संग उड़ती हुई आई और बालकोनी की रेलिंग से चिपट गई। उसने उठाया, ‘कितनी मासूम हो तुम! और कितनी कम उम्र में शाख से झड़ गई! आद्या भी तुम्हारे जैसी ही है|  जाने किन लम्हों ने उसे रुलाया है कि अब हँसने से, दोस्ती करने से कतराती है। काश! जान पाता!’ वह देर तक उस पत्ती को सहलाता रहा, फिर संभालकर  डायरी में रख दी और वापस बालकोनी में आकर बैठ गया। ‘नन्ही बदलियाँ और उनसे झड़ती बूँदें कितनी प्यारी लगती हैं! शुभी होती तो बिना कहे ही चाय-पकौड़े लेकर हाज़िर हो जाती। चली गई छोड़कर! ननकी भी चली गई|अशरफ़ वक़्त के हाथों गुम गया| सब प्यारे एक-एक कर चले गए! आद्या से मिलकर लगा, जीवन की सुबह लौटी है, मगर जाने इस सुबह की लालिमा धूसर क्यों है? उसका दिल जीतना आसान नहीं!’ 
    अचानक एक बूँद गिरी…आँखों का कोर गीला था। नाक पर ऑक्सीज़न मास्क अब भी चढ़ा था। एक नर्स मशीन में कुछ पढ़ रही थी। उसने मास्क हटाना चाहा तो नर्स ने झट हाथ पकड़ा।
 “नो मि. मेहता! प्लीज! आपका लाइफ आपका लोग के लिए कीमती है। आप ऐसा बच्चा का माफ़िक ज़िद काहे को करता है? फॉर गॉड सेक, प्लीज डोंट डू लाइक दिस।” 
“आई वांट टु गो होम।” वह छटपटाया। 
“ओके, ओके, सुबह होने दो। आपका सन बी आएगा और डॉक्टर बी। हम डॉक्टर से रिक्वेस्ट करके आपका लिए बोलेगा कि आपको घर पर ही मशीन लगा दे। ओके?.. ओके?”
“हम्म” उसने सिर हिलाकर सहमति दे दी।
 नर्स उम्रदराज थी, समझदार भी। वह वहीं कुर्सी लगाकर बैठ गई। “आपको अकेला रहना पसंद नहीं न, हम इदर ई बैठेगा। आपका पास! ओके! आप आराम करो। जस्ट रिलैक्स!”  
                          x  
“राज!” 
 “आद्या! आ गई तुम! कितनी देर लगा दी!” वह गुंगवाया|
 मास्क लगे चेहरे के भीतर वह नहीं था।  महीनों पुराने पल झड़-झड़ झड़ने लगे। दिखने लगा अपना कमरा, बिस्तर, कुर्सी, मेज़ और सोफ़े का वह ख़ास  हिस्सा और वहाँ बैठी बेतक्कलुफ़ आद्या…। उसकी आवाज़ क़रीब और क़रीब आती गई….   
  “आपको बालसखा के रूप में भीतर महसूसती हूँ तो रंग अपने आप कैनवस पर बिखरने लगते हैं।  तुमने मेरे भीतर बंजर हो चुकी रचनात्मकता को उर्वर बनाया है।पहली बार एक बाल सखा पाया है,  रब भी तो ऐसे ही मिलेगा न? उसे तो मेरे साथ ही होना होगा भोर और बाल अरुण की तरह।”
“ वह तो तुम्हारा हिस्सा बन चुका है और तुम उसका। कितनाअच्छा हो अगर  तुम उधर की परछाइयों से बाहर आकर मुझसे मिलो और कितना अच्छा हो, तुम मेरे लिए लालिमा बटोर लाओ हर सुबह। हर सुभोर तुम्हारा स्वागत करे और तुम मेरे लिए चुन लाओ हर सुबह! राज तुम्हारा और तुम उसका साया साथ-साथ।”        
…   
“ये रह-रहकर क्या हो जाता है तुम्हें? कहाँ खो जाती हो? नहीं पूछूँगा तुम्हारा अतीत, मगर इनअनुभवी आँखों ने बसंत से अधिक पतझड़ देखे हैं| महसूस सकता हूँ बहुत कुछ… शायद इसलिए  तुम्हारी कविताएँ  भीतरी सतहों को चीरती-काटती हैं। रंगों में तो तुम प्रेम भरती हो,मगर शब्दों में समाज की झुलसन!”
“आपसे बहुत कुछ सीखा है मैंने। पाया भी है।”
“तुम्हें क्या लगता है, मैं तुमसे कुछ नहीं सीखता? कुछ नहीं पाता?” यह दोहरी प्रक्रिया है आद्या। हम देते हुए अधिक पा रहे होते हैं। मैं भी तुमसे जुड़कर समृद्ध हुआ हूँ और मुझसे अधिक खुशनसीब कौन होगा जिसके आत्म को कोई पाठक लिखी पुस्तक से बाहर निकाले और अपने भीतर समा ले। तुम्हारी सच्चाई, सहजता और संवेदना ही तुम्हारी ताक़त है। मैं भी तुम्हारी उसी ताक़त से प्यार करता हूँ।“
“जानती हूँ|”  
“क्या तुम मुझे हर पल ‘राज’ नहीं महसूस सकती? शायद ढलान पर ठिठका राजेन्द्र मेहता कुछ अधिक जी ले! राज पाठकों के  लिए एक पात्र है या मेरे जीवन का खूबसूरत हिस्सा, मगर मैं उसे जीता रहा और अब तुम भी जीती हो उसे… उसी शिद्दत से, मैंने महसूस किया है।”
“सही महसूस किया है। अगर आप राज ही बनकर रहना चाहते हैं तो फिर कभी बड़े मत बनना।”
“तो आज से ‘आप’ नहीं तुम कहोगी|”
“वादा!” वह मुस्कुराई| “अब इजाज़त दो|”
“फिर कब आओगी?”
 “जब रब चाहेगा| अगले रविवार तो हम सब मिल ही रहे हैं|… भूलना मत|” कहती हुई वह सोफे से उठ खड़ी हुई|                                                               
“कैसे भूल सकता हूँ भला! अपने रब से कहना, बस मुझे जाने योग्य रखे|”
“क्या हुआ तुम्हें? दस वर्ष के बच्चे को कुछ नहीं होता| राज बने हो तो मेरे लिए ही नहीं, ख़ुद के लिए भी  आज से राज ही बने रहो… ऊर्जा से भरा बालक!” वह मुस्कुराई| 
       दरवाज़े से बाहर निकल उसने हाथ हिलाया, फिर धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गई|
‘काश! मैं थक रहे शरीर को समझा पाता कि वह इस राज को जीने दे… पूरी तरह| राज की स्फूर्ति पर उम्र के पहरे लगने लगे हैं| ये रीढ़ का दर्द! झल्ली की बातों में सारा दर्द भूल-सा जाता हूँ| जीने की ललक बढ़ने लगी है| पगली! कहती है, दोस्ती की है तो बीस वर्ष साथ दो| मैं भी तो चाहता हूँ, वक़्त मुझे इतना वक़्त देगा क्या?’ अपने कमरे में लौटकर बिस्तर पर लेटते हुए सोचता रहा| ‘अपना बचपन तो आग की लपटों में घिरा रहा| अब जाकर कोई मिला है, जिसके साथ जी सकता हूँ वे पल| मेहता की ऊँचाई राज को वह आनंद नहीं देती जो अल्हड़पन वह चाहता है| कहती है, एक पैग भी न लूँ| कौन-सा रोज़ लेता हूँ| डॉक्टर भी मना नहीं करते, मगर ये… सबकी नानी है|… छोड़ दूँगा| मेरी सेहत के लिए ही तो कहती है| मैं उसे नाराज़ नहीं कर सकता|’   
                                                            x
“आ रहे हो न?”
“तुम्हारा आदेश कैसे टाल सकता हूँ?”
“ठीक हो?”
“हूँ तो नहीं, मगर आऊँगा|”
“अरे…”
“आद्या! कितने अरमान से तुमने अपनों के साथ समय बिताने का आयोजन किया है| मेरी वजह से ख़राब हो, ठीक नहीं लगता|” आद्या की बात काटते हुए उसने कहा|
“राज! इतना स्नेह मत लुटाओ कि….” उसका गला भर आया| “श्याम सर और मैम तुमको साथ ले आएँगे, मैंने कह दिया है|” उसने तुरंत आवाज़ पर नियंत्रण किया|
“ठीक से घर पहुँच गए?”
“हम्म”
“आज तुमलोगों की वज़ह से पूरा दिन अच्छा बीता| कैसे आभार कहूँ?”
“पूरी झल्ली हो| तुमने तो आज हमारा दिन बना दिया| हमेशा ऐसे ही मुस्कुराती-खिलखिलाती रहो|”
“और तुम मेरे साथ हँसते रहो…| अब आराम करो| शुभरात्रि|”
“फिर कब आओगी?”
“जब रब चाहेगा| अब सो जाओ| मुझे काम करना है|”
‘पगली! बहाना बनाना भी नहीं आता| मुझे मोबाइल पर अधिक बात करना मना है तो किसी बहाने फोन काट देती है|’ वह दुआएँ बरसाता सोने की कोशिश करने लगा|
                                                               x
“दो वर्ष होने को आए तब कहीं आ पाई तुम! कोरोना से बचे रहने के लिए सतर्कता भी ज़रूरी ही थी| जाने फिर कब मिलना होगा? होगा भी कि नहीं?
“बात मेरी नहीं, तुम्हारी ज़िंदगी की है| मैं नहीं चाहती थी, मैं दूर से आऊँ और … वरना  लॉक डाउन ख़त्म होने पर आने को किसने रोका था| अब जब सब सामान्य हो चुका तो किसी के रोके भी न रुकती… तुम्हारे भी नहीं|” वह हँस पड़ी|
“ तुमने राज को जीवंत कर दिया, मगर शरीर तो मेहता का ही है न, अस्सी  पार कर चुका। अब कितने दिन?चाहता था कि तुम्हारे साथ लंबी उम्र जीऊँ, मगर इन दो वर्षों ने राज की ऊर्जा कम कर दी| मेहता अपनी ही क़ैद में, डोलता रहा ….परछाई भी अज़नबी होने लगी| ” लंबी साँस छोड़ते हुए उसने खुले हिस्से से झाँकते आसमान को निहारा। आसमान नीलाभ बिखेरता मुस्कुराता नज़र आया मानो कह रहा हो, जो पल मिल रहे उसे तो भरपूर जी लो। ‘हाँ, हाँ, मैं भी तो यही चाहता हूँ कि पल-पल जी लूँ और जीना सिखा दूँ इस मासूम को। मगर क्या इसे समझा पाऊँगा कि ….’ उसने दरवाज़ें तक साथ चल रही आद्या पर भरपूर निगाह डाली।
“???”
“कुछ नहीं!”
 “मैं समझ सकती हूँ| हम सबने उस क़ैद को झेला है| झेल रहे हैं अब तक| और तुम्हें तो इस झल्ली के लिए रहना ही होगा।  राज! तुम मेरा सुर,लय,ताल ही नहीं, शब्द भी हो और अर्थ भी… और मैं तुम्हारे भीतर बहती एक नन्ही नदी। इतने नेह की कल्पना कहीं और कठिन है मेरे लिए। गलती करूँ, डाँट दो,मगर जाने की बात न करना। मेरा बचपन मर जाएगा; झल्ली मर जाएगी। आद्या सिंह तो पहले ही मर चुकी है।  प्लीज…!” वह राज की हथेली पकड़ उसे झकझोरने लगी|
    
  “ओह नो! मि. मेहता! आर यू फीलिंग बैड ऑर अनकंफ़र्टेबल? डॉक्टर बस अब आने वाला ही है। डोंट वरी। हम इदर इ है।” नर्स ने पास जाकर हथेली सहलाते हुए कहा। नर्स की आवाज़ कानों से टकराकर लौट गई| आद्या की सिसकी मन की घाटियों में गूँज रही थी| वह अतीत –वर्तमान में झूलता हुआ…     
 “झल्ली! मैं अपनी ज़िंदगी जी चुका, अब तो ब्याज में मिली साँसें हैं| तुमसे मिला तो जीने की ललक जगी| मगर, इन दिनों लगने लगा है,मेरे पास उतने लम्हे नहीं। पगली ! जीना तो एक लम्हे में होता है| नहीं? एक लम्हे में हम पूरी ज़िंदगी जी लेते हैं| उस क्षण को पकड़ लो, बस! … और शुक्रिया तुम्हारा! आज हमने क्वालिटी टाइम बिताया| … हर बार की तरह!” उसने हौले से आद्या की हथेली थपथपाई और सिर सहलाते हुए कहा| “तुम ही नहीं, मैं भी भरता हूँ हर बार! इसे समझने के लिए जो सरलता चाहिए, वही हर एक में नहीं मिलती|… और मास्क ठीक से पहनो|”
…. 
“दम घुटता है मास्क में| पहनो तो मुसीबत, न पहनो तो मुसीबत|बाहर  पहन लूँगी|” वह हाथ से मास्क खिसकाती हुई बोली| 
   “नो मि. मेहता! प्लीज फॉर गॉड सेक! ऐसा मत करो। डॉक्टर को आने दो। मास्क तुम्हारा लाइफ सेव करने का वास्ते लगाया है, प्लीज़ अंडरस्टैंड!” नर्स चेहरे तक पहुँचे उनके हाथ को वापस सीधा करती हुई मिन्नत करती रही। नर्स की आवाज़ उसे सीसे के बाहर से आती और टकराकर लौट जाती-सी लगी। चेतना अपने शयनकक्ष में भटकती रही…                                                              
‘आधी रात बीत चुकी है | ओह! रीढ़ का यह दर्द! राज जीना चाहता है, मगर  शरीर तो राजेन्द्र का है|’  कितना अच्छा हो, मैं गहरी नींद सो जाऊँ, फिर कभी न जगूँ| चिरंतन नींद! झल्ली से किया वादा निभा न पाऊँगा| उसके लिए कुछ कर न पाया| कैसे आड़े वक़्त में दिलासा दूँ कि मैं हूँ न!’ उसने फिर करवट बदली, ‘ईश्वरीय प्रेम की बात करती है| उसके प्रति मेरा प्रेम भी तरंगों में प्रवाहित होता है जो मेरे न रहने पर भी क़ायम रहेगा हमेशा-हमेशा।’ चित्त लेटने की कोशिश की तो आह फूट पड़ी। रीढ़ का दर्द मुँह फैलाने लगा | 
     चेतना हरी-भरी घाटी में ले चली जहाँ भोर की स्वर्णिमा क्षितिज पर मुस्कुरा रही थी। वह मुस्कुराया। उसने भोर को अपने भीतर उतारा, हवा से फेफड़ा भरने की कोशिश करता हुआ ज़ोर की साँस ली और प्रकृति को समेट लेने को बाँहें फैला दीं। पौ फटने लगी|आसमान का कोना लालिम उषा के स्वागत में बिछ गया|नर्स उसे सोया जानकर ऊँघने लगी| मेहता के भीतर  पूरे वेग से एक लहर उठी, फिर धीरे-धीरे शांत हो चली। आँखें मूँदी हुईं,चेतना विचरती हुई!  
“ आद्या! मेरी नन्ही दोस्त! तुम्हें जीता रहा हूँ, पास महसूसता रहा हूँ। तुम्हारे साथ बचपन के उस हिस्से को भी जी लिया जो अशरफ़  और ननकी से दूर होने के कारण सूना पड़ा था। अब मेहता को जाने दो|  तुम्हारा राज तुम्हें  सौंपे जा रहा हूँ…तुम्हारे ही शब्दों में …  जितना बचा है मेरा होना मुझमें, उससे कहीं अधिक बचा रहेगा तुममें….मेरे न होने पर भी।”
    “शुभी! बड़े दिनों बाद मीठी नींद आ रही है, गहरी नींद… गहरी….”
                               X                                                                             
  “पापा! पापा!”  अभिषेक रोता-पुकारता  रहा। डॉक्टर आँखें फाड़े निहारते रहे। नर्स भौचक्क! उसे तो लगा, घंटों छटपटाते मि. मेहता अब सो गए हैं। ऐसा सुकून भरा मुस्कुराता चेहरा भला किसी मरीज़, नहीं-नहीं किसी मृत का हो सकता है क्या
  “डॉक्टर, प्लीज चेक वंस मोर, प्लीज डॉक्टर!” वह गुहार लगा रही है। ऑक्सीजन मास्क हट गया है। मि. मेहता चिरनिद्रा में हैं। कोसों दूर, बुखार से बेसुध  आद्या  के भीतर हलचल मचती है, शरीर थरथराता है और झटके से एक नाम बंद होंठों से चीख बनकर फूट पड़ता है…      
तीन कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, दो बाल साहित्य, दो आलोचना संग्रह, 40 से अधिक पुस्तक अनुवाद, धारावाहिक ध्वनि रूपक एवं नाटक, रंगमंच नाटक लेखन, 20 से अधिक चुनिंदा पुस्तकों में संकलित रचनाएँ, बतौर रेडियो नाटक कलाकार कई नाटकों में भूमिका. विभिन्न उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में सतत लेखन. सत्यवती कॉलेज,दिल्ली में अध्यापन. सम्पर्क - dr.artismit@gmail.com

1 टिप्पणी

  1. आरती जी बहुत सुंदर दिल को छू जाने वाली कहानी। आपका कहानी कहने का अलग अंदाज़ आकर्षक है। हार्दिक बधाई।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.