नवीन कृषि बिल को लेकर किसानों का आंदोलन लगातार जारी है। कड़ाके की ठंड व बारिश में भी किसान डटे हुए हैं। इस आंदोलन को हर क्षेत्र से समर्थन मिल रहा है। बॉलीवुड भी उन्हीं में से एक है। वहीं वर्क फ्रंट की बात करें तो यहां ऐसी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है जो किसानों के दर्द को बयां करती हैं।
अनाज दुनिया की सबसे कीमती चीज़ है। इस अनाज के लिए ही तो तमाम लोग दिन रात मेहनत कर रहे हैं। दुनिया जिस पैसे के पीछे भागती फिर रही, अनाज उस पैसे से भी कीमती है। जब अनाज इतना कीमती है तो इसे उपजाने वाला किसान कितना कीमती होगा! लेकिन अफसोस कि किसान की हालत साल दर साल खराब ही होती गई है। किसानों के संघर्ष को सिनेमा ने लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की है। किसानों पर कई ऐसी फिल्में बनी हैं। जिन्हें देखने के बाद आप समझ सकेंगे कि एक किसान के सामने कितनी चुनौतियां होती हैं।

दो बीघा जमीन (1953)
भारतीय किसान के वास्तविक दर्द को पर्दे पर उकेरने वाली फिल्म थी। बिमल रॉय की दो बीघा जमीन हृदय-स्पर्शी और परिष्कृत रूप से एक बेदखल किसान का जीवंत चित्रण है। एक किसान केo नज़रिए से देखा जाए, तो फिल्म भारतीय किसान समाज का बड़ा ही मानवीय चित्रण प्रस्तुत करती है।  इस फिल्म में न सिर्फ सार्वकालिक उपेक्षितों की, बल्कि शोषितों की भी पीड़ा है। अपनी आंतरिक श्रेष्ठता, नेकनियती के ही कारण यह  वंचित वर्ग का गहरा दर्द प्रस्तुत कर सकी थी।
किसान के लिए सबसे कीमती चीज़ उसकी ज़मीन होती है। ज़मीन उसके लिए मात्र एक ज़मीन का टुकड़ा नहीं बल्कि महान विरासत होती है। सोचिए जब वही ज़मीन किसान से छीन ली जाए, उसे दाने-दाने को तरसाया जाए तब उसे कैसा दर्द होगा। इसी पीड़ा का गहन चित्रण इस फिल्म के केंद्र में है। भारतीय परिवेश में कैसे कोई किसान कर्ज के जाल में फंसता है। कर्ज़ की भरपाई के लिए उस किसान का तिनका तिनका बिखर जाता है।
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसका पलायन व किसान से मजदूर बनने की कहानी को बखूबी पेश किया गया। दो बीघा ज़मीन विकास की भेंट चढ़ रही ज़मीनों की ओर संकेत करती है। फिल्म का मुख्य पात्र शम्भू एक गांव में दो बीघा जमीन का मालिक है। पत्नी, बेटे व पिता के साथ उसका सुखी परिवार है। गांव में अकाल के बाद हुई बारिश से सब खुश हैं।
गांव के जमींदार की नज़र शम्भू की ज़मीन पर है। जमींदार वहां कारखाना लगाना चाहता है।  जब जमींदार कर्ज़ के बदले शंभू की जमीन लेने की बात करता है। जमींदार का कर्ज़ चुकाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है। लेकिन जमींदार का हिसाब कुछ और ही होता है। शम्भू अन्याय के विरुद्ध अदालत जाता है। फिल्म में न्याय व्यवस्था की सच्चाई भी उस समय उजागर हो जाती है जब शम्भू मुकदमा हार जाता है।
हीरा मोती (1959)
मुंशी प्रेमचंद की दो बैलों की कथा पर आधारित व बलराज साहनी अभिनीत कृष्ण चोपड़ा की फिल्म ‘हीरा मोती’  साहित्य में किसान के रूपांतरण के नज़रिए से महत्वपूर्ण थी। बलराज साहनी हिंदी सिनेमा की एक अविस्मरणीय शख्सियत रहे हैं।
अभिनय में आज भी बलराज को बड़ा आदर्श माना जाता है। बलराज साहब लीक से हटकर काम करने के लिए जाने जाते थे। वह एक जुझारू एवं समर्पित कलाकार थे। बलराज साहनी और प्रेमचंद के सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष में वैचारिक आदर्शों की एक समानता समझ आती है। उसके माध्यम से एक साझा संवेदना को स्पर्श किया जा सकता है।
इन दो शख्सियतों में जो कुछ साझा था, कह सकते हैं कि उसका एक अंश इस फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ। प्रगतिशील आंदोलन ने संस्कृति कर्म से जुड़े लोगों को साझा मंच दिया था। इस अभियान में प्रेमचंद व बलराज साहनी की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। प्रेमचंद का व्यक्तित्व इस क्रांतिकारी अभियान में प्रेरणा का स्रोत था। उधर सिनेमा के स्तर पर विचारधारा समर्थन में बलराज दलित-शोषित-वंचित किरदारों को जीवंत कर रहे थे। एक तरह से इन पात्रों को जीवंत करके इनकी तकलीफों को भी साझा कर रहे थे। उन्होंने संस्कृति कर्म को सहयोग का माध्यम बनाया।  ग्रामीण पात्रों को निभाना कठिन होता है।
नगरीय पात्रों की परतें उसे विशेष रूप अवश्य देती हैं लेकिन, देसज पात्रों की बात जुदा है। इस मिज़ाज के पात्रों को बलराज ने अनेक बार जीवंत किया। अपनी मिट्टी के होने की वजह से गांव के किरदारों में अपार आकर्षण है। सिनेमा ने इन्हें बड़ी पारी नहीं दी। कह सकते हैं कि पॉपुलर सिनेमा में नगरीय कहानी व पात्रों को तरजीह मिली। फिर भी कम समय में ही ग्रामीण पात्र स्मरणीय बनकर उभरे। इन किरदारों का वक्त आज भी याद किया जा सकता है।

मदर इंडिया (1957)
मशहूर फिल्ममेकर महबूब ख़ान की  ‘मदर इंडिया ‘ गरीबी से पीड़ित  राधा की कहानी है जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण कर रही है। वो शोषण के शिखर रूपी महाजन से स्वयं को बचाने का संघर्ष कर रही है। मदर इंडिया मेहबूब खान की ही फिल्म ‘औरत’ का एक्सटेंशन थी। मदर इंडिया का शुमार भारतीय सिनेमा के माइलस्टोन फिल्मों में होता है ।
फिल्म की शुरुआत वर्तमान काल में गांव के लिए पानी की नहर के पूरा होने से होती है।  गांव की मां राधा  नहर का उद्घाटन कर रही है।  कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है। जब वो एक नई दुल्हन थी। विवाह का खर्चा राधा की सास ने सुखीलाला से कर्ज लेकर पूरा किया था।  इसी कारण वो गरीबी व शोषण के कभी न खत्म होने वाले चक्रव्यूह में फंस जाती है। कर्ज़  की शर्तें विवादास्पद थीं ।
परन्तु फैसला सुखीलाला के तरफ सुनाया जाता है। शामू और राधा को अपनी फसल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाला को  ब्याज़ के तौर पर देना होगा। इस चक्रव्यूह से निकलने की शामू कोशिश करता है। मगर असफल हो जाने पर  सब कुछ छोड़ कर हमेशा के लिए कहीं चला जाता है। जल्द ही राधा की सास भी गुज़र जाती है।  राधा अपने दोनों बेटों के साथ खेतों में काम करना जारी रखती है।
अपना संघर्ष जारी रखती है। उसे कर्ज़ के चक्रव्यूह से बाहर निकालने के लिए सुखीलाला उसके सामने  शादी का कपटी प्रस्ताव रखता है। राधा खुद को बेचने से इंकार कर देती है। गांव के तूफान की चपेट में आने से राधा एवं उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट जाता है। गांव की सारी फसल नष्ट हो जाती है। पूरा गांव पलायन करने लगता है। लेकिन राधा के मनाने पर सभी वहीं रुककर हालात से संघर्ष करते हैं।

लगान (2001)
यह फिल्म रानी विक्टोरिया के ब्रिटिश राज की एक सूखा पीड़ित गांव के किसानों पर कठोर  लगान की कहानी है। किसान लगान कम करने की मांग करते हैं। इसके बदले हुकूमत के अफसर एक अजीब प्रस्ताव देतें है यदि क्रिकेट के खेल में गांव वाले उन्हें परजित कर दें तो लगान माफ कर दिया जाएगा। गांव वालों के समक्ष इस चुनौती को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
वो इसे स्वीकार करते हैं। खेल में विजेता बनने के लिए जिस संघर्ष से किसानों मजदूरों को गुज़रना पड़ता है वो बखूबी बयान किया गया। यही इस फिल्म का दिलचस्प चरित्र है। यह फिल्म 19वीं सदी के दौर की कहानी  है।  चम्पानेर गांव का निवासी भुवन एक हौसलामन्द और आदर्श नौजवान है। राजा के समक्ष भुवन ने कठोर लगान के खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया। कैप्टन रस्सॅल को यह पसंद नही आया और उसने भुवन को क्रिकॅट खेलने की चुनौती दी। जीते तो सालभर का लगान माफ, हारे तो लगान तिगुना।
गांव वाले तो इस चुनौती से मुकरना चाहते थे। मगर कैप्टन रस्सॅल ने चुनौती को बढ़ाते, तीन साल का लगान माफ करने का लोभ दिया। भुवन ने मैदान पर द्वन्द्व का न्योता स्वीकार कर लिया। सारा गांव मानो भुवन को सूली पर चढ़ाना चाहता था। सभी लोग भुवन के खेल पर हंस रहे थे। किन्तु भुवन ने पूरे गांव को संगठित कर असम्भव को संभव कर दिखाया।
उपकार (1967)
1967 में मनोज कुमार की फिल्म उपकार में भी किसानों की दशा को बखूबी दिखाया गया। किसान पर‍िवार की एक महिला का अपने दोनों बच्चों को पढ़ाने का सपना पूरा नहीं हो पता है। इसके बाद एक बच्चे को वो शहर भेज देती है।  वहीं दूसरा किसान बन जाता है। किसान बने बेटे को काफी संघर्ष करना पड़ता है। समाज के कपट का श‍िकार होता है। उसकी इन्हीं पीड़ाओं को फिल्म में दिखाया गया। फिल्म की कहानी में राधा ग्रामीण महिला है। जो अपने परिवार को खुशहाल देखना चाहती है।
वो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहती है। मगर दोनों बेटों की पढ़ाई का भार वहन नहीं कर सकी। ऐसे में भारत बने मनोज कुमार अपनी पढ़ाई रोक कर भाई पूरन को पढ़ने के लिए शहर भेज देता है। शिक्षा पूरी कर जब वो वापस आया तो उसे आसान पैसे कमाने की आदत लग चुकी थी। इसमें उसका भागीदार बना चरणदास।
भारत के परिवार में फूट डालने की उसकी चाल कामयाब हो जाती है। बात दोनों भाईयो में बंटवारे पर जा कर रुकी। आगे एक बहुत दिलचस्पी कहानी हमें देखने को मिलती है। भारत स्वेच्छा से सारी सम्पत्ति छोड़ कर भारत-पाक युद्ध में लड़ने चला जाता है। जबकि पूरन अनाज की कालाबाजारी तथा तस्करी का धंधे में लग जाता है। सीधे सादे गांव  वालों को मूर्ख बनाना उसका पेशा सा हो जाता है।
मंथन (1976)
1976 में आई फिल्म मंथन में भारत में दुग्ध  क्रांति का समयकाल दिखाया गया है। श्याम बेनेगल की इस महत्वपूर्ण फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक-एक करके हज़ारों  किसान थोड़ा-थोड़ा सहयोग कर आंदोलन को क्रांति का रूप देते हैं। अपने विषय एवं प्रस्तुति के कारण फिल्म को नेशनल अवार्ड भी मिला था। भारत में समानांतर सिनेमा आंदोलन की यह बहुत ही अहम फिल्म थी।
फिल्म उन किसानों की कहानी कह गई जो खेती के साथ साथ पशुपालन करते हैं। श्याम बेनेगल की इस  फिल्म के संवाद लिखे थे कैफ़ी आज़मी ने। नसीरुद्दीन शाह, गिरीश कर्नाड,अमरीश पुरी एवं स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को बॉलीवुड में स्थापित करने में फिल्म काफी अहम रही।
कड़वी हवा (2017)
आज के भारत की बदलती आबोहवा की असली मार तो किसानों पर पड़ी है। बारिश- बाढ़ और सूखे से जूझते एक किसान परिवार की ये दर्द भरी कहानी हमें भीतर तक हिला कर रख देती है। कड़वी हवा हिंदी सिनेमा की उन फिल्मों में से है जिनके साथ न्याय नहीं हुआ। नीला माधव पांडा की इस शानदार मर्मस्पर्शी  फिल्म को लोगों तक सही से नहीं पहुंचाया गया। ना ही लोगों ने इस फिल्म के साथ इंसाफ किया।
फिल्म एक ऐसे गांव की कहानी कह रही जो बरसों से सूखे की मार झेल रहा।  किसानों का खुदखुशी करना यहां एक आम बात है। हिंदी सिनेमा में जलवायु परिवर्तन का विषय तकरीबन अछूता है। किंतु माधब पांडा इस भीड़ में अलग दिखते हैं। किसान, किसान आत्महत्या और जलवायु परिवर्तन इन सबको एक साथ एक पटकथा में आए तो फिल्म बनती है ‘कड़वी हवा’। फिल्म का कैनवास राजस्थान के धौलपुर के किसी गांव का है। लेकिन इसका विस्तार ओडिशा में आए चक्रवातों की विभीषिका का कथा भी सामने रखता है।
मालवा, विदर्भ, मराठवाड़ा जैसे इलाकों के किसानों की आसमान में टकटकी लगाए नजरों का प्रतिनिधित्व ‘कड़वी हवा’ में है। कहानी एक बुजुर्ग अंधे किसान के डर का किस्सा है। वो हर रोज़ इसी दहशत के साए में जीता है कि कहीं कर्ज में डूबा उसका बेटा किसी दिन आत्महत्या न कर ले। यह संजय मिश्रा के कैरियर की सबसे उम्दा फिल्मों में से एक है। वो मामूली फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ने के लिए जाने जाते हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर फिल्में न के बराबर बनी हैं। इस विषय पर शायद यह पहली फिल्म थी।
पीपली लाइव (2010)
पीपली लाइव अनुषा रिज़वी के निर्देशन में बनने वाली महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म से मशहूर किस्सागो मेहमूद फारूकी भी जुड़े हुए थे। आमिर खान प्रोडक्शन की ‘पीपली लाइव’ से होते हुए लगता है कि फिल्म पत्रकारिता पर चोट करती है। शायद अफसरशाही भी निशाने पर हैं या फिर राजनीति। संपूर्णता में तो यह पूरी व्यवस्था पर गहरी चोट करती है।
ऐसी व्यवस्था जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है लेकिन उसके लिए कुछ नहीं जो जीना चाहता है। मृत किसानों को मिलने वाले मुआवजे के लिए नत्था आत्महत्या करने का फैसला करता है। इसके बाद शुरू होता है किसानों के नाम पर राजनीती और अपनी रोटियां सेंकने का खेल। यह सनसनी खेज पत्रकारिता पर गंभीर टिप्पणी भी करती है। नत्था की कहानी कई पूर्वाग्रहों को तोड़ती है।
यह फिल्म इस बात का एहसास दिलाती है कि हम किस तरह के भारत में रह रहे हैं। सारी दुनिया जानती है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। बावजूद इसके हमारे देश के किसानों के सामने तमाम समस्याएं हैं। मौजूदा वक्त में भी किसान सरकार के खिलाफ बड़े स्तर पर विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि बिल से किसान नाखुश हैं ।और इस बिल के खिलाफ सड़कों पर हैं।
किसान (2009)
सोहा अली खान एवं पुनीत सेरा के निर्देशन में बनी फिल्म सोहेल खान अभिनीत ‘किसान’ पंजाब के किसानों की व्यथा प्रस्तुत करती है। भारत के बेहद उपजाऊ प्रदेशों में से एक पंजाब में किसान, सरकार के नुमाइंदों से बेहद परेशान हैं। कंपनियों का बढ़ता आतंक और गांव के नुमाइंदों में बढ़ता हुआ लालच, राजनीति एवं पूंजीपतियों का समर्थन के कारण किसान अपनी जमीन कंपनियों को देने को मजबूर हो जाता है ।
फिल्म में यह बताती है कि आज किसान के घर में वकीलों की ज़रूरत है। किसान दयाल (जैकी श्राफ) एक बेटे जिगर (सोहेल खां) को किसान बनाना चाहता है तो दूसरे को अमन (अरबाज खां) को वकील। दयाल का कहना कि किसानों के पास अपनी ज़मीन बचाने के लिए पढ़ाई और लड़ाई दो ही माध्यम हैं।
कानून की पढ़ाई पढ़ने के बाद गांव लौटा अमन खरीददारों को कानून की भाषा में जवाब देता है। किन्तु उद्योग लगाने के वास्ते कंपनी जमीन लेने पर आमादा है। जिसका साथ पंचायत भी देती है। फिल्म बताती है कि किसान अपनी इच्छा से आत्महत्या नहीं करते। उनके ऊपर कई तरह के दबाव होते हैं। विवशता होती है। फ़िल्म पराजित और हताश किसानी जीवन में एक नया स्वर भरती है।

1 टिप्पणी

  1. सैयद एस तौहीद ने किसानों के संघर्ष पर बनी फिल्मों का उम्दा जिक्र ,किया है ,ये फ़िल्म तो जब बनी थीं तब भी ग्रामीण
    अंचल के कृषकों तक नहीं पहुँची, आज टेलीविजन के माध्यम से
    देख रहे होंगें ।सारे फिल्म मेकर्स को कृषकों पर बनी फ़िल्म से कमाए पैसे का आधा ग्रामीण इलाकों के आर्थिक विकास पर लगाना था ।कृषकों को शिक्षित करने के उपायों पर भी सोचना था ।
    प्रभा

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