बचपन से सुनते आए हैं कि पैसा तो हाथ का मैल है। इससे क्या द्योतित होता है, यह तो विद्वज्जन ही बता सकते हैं। सुना बहुत है, किन्तु इतने लम्बे जीवन-काल में ऐसा कोई माई का लाल न मिला, जिसने पैसे को मैल समझा हो। जो भी मिला, पैसे पर जान छिड़कने वाला मिला। मैल पर तो कोई भी भलामानुस जान नहीं छिड़कता। हम स्वयं भी कभी पैसे को मैल न मान पाए। पैसे बिना इस संसार का कोई काम नहीं हो पाता। तो इसे मैल क्यों मानें?
लेकिन लोग कहते हैं तो उनकी बातों में कुछ तो सच्चाई होगी। संधान करते-करते हम भारतीय दर्शन में जा घुसे। वहाँ पता चला कि कबीर जैसे कुछ संतों ने माया को महा ठगिनी कहा है। और माया व पैसे में सादृश्य-संबंध है। पैसा अंततः है तो माया ही। माया के आवरण से घिरकर जीवात्मा अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है। इस मामले में माया निश्चय ही मैल है। उसकी मोटी परत के नीचे दब जाने के कारण ब्रह्म-स्वरूप जीवात्मा को आत्म-बोध नहीं रह जाता। लेकिन बात तो हाथ के मैल की हो रही थी और माया का संबंध हाथ मात्र से नहीं है। वह तो जीवात्मा के पूरे अस्तित्व को आच्छादित कर लेती है।
सोचते-सोचते हमें तत्व-बोध हुआ। दिमाग की बत्ती जल गई। पैसा निश्चय ही हाथ का मैल है। लेकिन यह केवल तब, जबकि वह किसी अन्य द्वारा अर्जित हो, यानी दूसरे का पैसा। मसलन बाप-दादों की अर्जित सम्पत्ति यदि किसी अकर्मण्य, विलासी बेवड़े के हाथ लग जाए तो वह पीढ़ियों से संचित उस धन का उपयोग हस्तामलकवत ही करेगा। ऐसा इस दुनिया में प्रायः होता है। बहुत-से धन्ना-सेठों, राजा-महाराजाओं, नवाबों-बादशाहों ने जो धन-माया छोड़ी थी, उनके वारिसों ने उसे हाथ के मैल की तरह धोकर नाली में बहा दिया। ऐसे उदाहरण हमें अपने आस-पास ही मिल जाते हैं। किन्तु यह धन स्व-अर्जित न होकर भी होता तो अपना ही है। विरसे में मिला हुआ धन। कुछ लोग ऐसे धन को बहुत जतन से खर्च करते हैं और अपनी आनेवाली पुश्तों के लिए भी उसे सहेज जाते हैं। अपने यहाँ एक कहावत है- पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय! इस कहावत को जानते हुए भी पुरुषार्थी और कर्मठ लोग अपने बाल-बच्चों, नाती-पोतों के लिए धन संचय कर जाते हैं। उन्हें कहीं यह प्रतीति होती है कि उनके पूत सपूत निकलेंगे और संचित धन का सदुपयोग करेंगे। उसे हस्तामलकवत नाली में नहीं बहाएँगे।
किन्तु धन सदैव स्व-अर्जित नहीं होता। बहुत बार वह हमें बस यों ही मिल जाता है। जैसे दो हजार रुपये की गड्डियों से भरा बोरा जो हमें सड़क पर पडा मिल गया हो। कई बार लोग हमारी जेब में नोट ठूँस जाते हैं और हमें उस धन को बेमन से, नखरा दिखाते हुए स्वीकार करना पड़ता है। ऐसा धन हाथ का मैल न होगा तो क्या होगा? उसे खर्च करते किसी को दया क्यों आए?
कभी-कभी धन हमारे हाथ नहीं लगता, किन्तु उसका स्वामी हमारे हत्थे चढ़ जाता है। ऐसे हत्थे चढ़े व्यक्ति को आधुनिक शब्दावली में लोग मित्र कहते हैं। संस्कृत में तो कहावत है कि अधनस्य कुतो मित्रा:, अमित्रस्य कुतो सुखम्। धन के बिना मित्र नहीं, मित्र के बिना सुख नहीं। धन और मित्रता का समानुपाती समीकरण तभी फिट बैठेगा, जब आप मित्र पर धन की वर्षा करें। यह वर्षा तभी संभव है जब आप धन को मैल समझें। किन्तु यदि कोई अपने धन को नाली में न बहाए तो लोग उसे कंजूस कहते हैं। पिषुन। संस्कृत में पिषुनता को बहुत बड़ा अवगुण कहा गया है। बाइबल में भी कहा है कि सुई के छेद में से हाथी निकल सकता है, किन्तु कंजूस आदमी स्वर्ग के विशाल फाटक से भी अंदर दाखिल नहीं हो सकता। इसलिए यह जरूरी है कि पैसे को हाथ का मैल समझा जाए, उदारता से खर्च किया जाए।
पैसे को हाथ का मैल समझते भी हैं कुछ लोग। ऐसा नहीं कि नहीं समझते। किन्तु दूसरों के पैसे को। और तब तक समझते रहते हैं, जब तक कि उसे कंगाल न बना डालें। एक कहावत है- यार दोस्त किसके, खाया-पिया खिसके। दूसरे का माल, हमेशा हाथ का मैल दिखता है। उसके लिए दया, माया, ममता दिखाने का कोई अर्थ नहीं। जितना जल्दी हो, उतना जल्दी उस मैल से उस मैलाच्छन्न व्यक्ति को मुक्ति दिलाना हमारा परम कर्तव्य है। किसी का मैल छुड़ा देना, कितने पुण्य का काम है! कुपथि निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रकटैं अवगुनहिं दुरावा। धन रूपी मैल को मित्र से जल्द से जल्द दूर कर देना- यही तो अच्छे मित्र का धर्म है। 
जो मित्र, अथवा अमित्र यह मैल हमसे सहर्ष ग्रहण कर लेते हैं, यानी इससे हमें मुक्ति दिला देते हैं, उनका हमें आभार मानना चाहिए। ऐसी वाहियात शै को हमसे दूर कर देना तो किसी बड़े पुण्यात्मा का ही कार्य हो सकता है। किन्तु खेद है कि लोग अपने को कंगाल बनानेवाले मित्रों व सगे संबंधियों की बुराई करते हैं, उनसे वैर मानते हैं। कितनी बुरी बात है! अरे आपको तो कृतज्ञ होना चाहिए कि अगले ने आपके हाथ का मैल छाँट दिया। 
वैसे तो मानव-जीवन के इतने गहन विषय का पटाक्षेप इतना सरल नहीं है, किन्तु फिलहाल इस विषय की पूर्णाहुति के लिए इतना कहना आवश्यक लगता है कि जिन लोगों को मैंने पैसे को हाथ का मैल कहते सुना है, वे अंततः खाली हाथ और फटेहाल ही दिखते हैं। आखिर पैसे को क्या गरज है जो आपसे चिपट कर रहे! बहुत-से लोग ऐसे भी हैं जो पैसा हाथ से निकल जाने पर हाथ मलते रह जाते हैं। उनसे मेरा आग्रह है कि हाथ न मलें, वरना रहा-सहा पैसा भी हस्तामलकवत चला जाएगा। 

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