होम व्यंग्य दिलीप कुमार की व्यंग्य-कथा : लघुकथा इंडिया प्राइवेट लिमिटेड व्यंग्य दिलीप कुमार की व्यंग्य-कथा : लघुकथा इंडिया प्राइवेट लिमिटेड द्वारा Editor - June 16, 2019 585 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet दिलीप कुमार जंबो द्वीप के बीचोबीच आधी रात को दो वीरांगनाओं के मेल –मिलाप का संयोग बना।एक स्त्री सराय काले खां की तरफ से स्टेशन पर आती है और भीड़ में गुम हो जाती है ।यही दिल्ली शहर का तिलिस्म है जो एक स्टेशन में दाएं साइड से घुसो तो एक नाम मिलता है और बाएं साइड से घुसो तो दूसरा नाम मिल जाता है जबकि जगह एक ही है ।भीड़ की पहली स्त्री ने अपने परिचय की एक दूसरी स्त्री को देखा ।दोनों पचपन वर्षीया वीरांगनायें आमने–सामने थीं ।दोनों ने एक दूसरे को देखा फिर इतनी सफाई से नजरें चुरा लीं ,जितनी सफाई से वे एक दूसरे की रचनाओं की थीम उड़ा लिया करती थीं। बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी दोनों औरतें खुद को बूढ़ी मानने को तैयार ना थीं।जिस उम्र में इन दोनों वीरांगनाओं को चारों धाम की यात्रा के बारे में सोचना चाहिये था तब ये साहित्य की एक हाशिये की विधा लघुकथा के उन्ननयन हेतु कटिबद्ध हो गयीं।इसलिये बद्रीनाथ या रामेश्वरम की यात्रा करने के बजाय ये नेत्रियां जंबो द्वीप की राजधानी में जब तब विचरण करती पाई जाती हैं। भागीरथ ने उतने प्रयास गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये शायद नहीं किये होंगे जितना प्रयत्न ये दोनों महिलाएं लघुकथा के उद्वार के लिये बार –बार दिल्ली की यात्रा करके करती हैं क्योंकि पेड लेक्चर वाला गोरखधंधे वाले गुरुघंटाल राजधानी में भरे पड़े हैं।जिस उम्र में लोगों को विरति होने लगती है ,व्यक्ति का मोहमाया के आकर्षणों से मोहभंग होने लगता है और इंसान सामाजिक बन्धनों से मुक्त होकर वानप्रस्थम की ओर प्रस्थान करता है उस उम्र में ये दोनों वीरांगनायें नव यौवना की भाँति महत्व की आकांक्षा पाल बैठीं । जैसे नई नवेली दुल्हन अपनी गृहस्थी के सामान को चुन –चुनकर रखती हो और बात–बात पर अपनी तारीफ सुनना चाहती हो वैसे ही लघुकथा की ये चंगु–मंगू अपनी हर रचना के बाद कुंतल –कुंतल तारीफ सुनना की तलबगार रहती थी।लेकिन इन ख़्वातीनों को ये नहीं मालूम था कि साहित्य में तारीफ मेधा की होती है और अगर मेधा ना हो तो बहुत पापड़ बेलने के बाद ही कुछ हासिल हो सकता है वो भी अपवाद स्वरूप ,गारण्टी नहीं है कामयाबी की। ये दोनों महिलाएं ठंडी आह भरकर अफसोस करती और महाकवि नीरज की कविता गुनगुनाकर खुद को तसल्ली देतीं कि “चाह तो निकल सकी ना हाय उम्र ढल गई“।बेचारियों का बचपन तो मनोहर कहानियां पढ़ कर बीता और इस उम्र में साहित्यकार बनने का बीड़ा उठा लिया।मनोहर कहानियां और लुग्दी टाइप के साहित्य का खाद पानी पाकर खालिस साहित्य का कमल कैसे खिलेगा ये प्रश्न उतना ही अबूझ है जितना कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट कैसे मिलेगी। जो मोहतरमा हजरत निज़ामुद्दीन स्टेशन की तरफ से प्लेटफॉर्म पर आयी थीं उनका नाम प्रभा था ।वो रांची शहर से पधारी थीं और खुद को साहित्य का लेडी धोनी बताती थीं।बचपन से सी ग्रेड फिल्में देखना और लुग्दी साहित्य पढ़ना उनका प्रिय शगल रहा था।एक ही क्लास में कई –कई बार फेल हुईं तो उन्होंने विद्यालय जाना छोड़ दिया, फिर पूरी पढाई पत्राचार और प्राइवेट की बदौलत ही चली वो भी तमाम झोल–झाल के साथ।इनका कद छोटा,शरीर मोटा और रंगत खिली हुई थी।बचपन कई भाई –बहनों के बीच बीता ,घर में धन –धान्य का अभाव रहा सो बालिका बहुत नाखुश रहा करती थी अपने बचपन से।मां–बाप को विवाह की चिन्ता हुई तो कोई भी इस कन्या के साथ विवाह को तैयार ना था क्योंकि ये खुद कई बार फेल हो चुकी थीं मगर विवाह अल्प शिक्षित से नहीं करना चाहती थीं,उच्च शिक्षित से ही करना चाहती थीं सो सुयोग्य वर मिलना टेढ़ी खीर थी। किसी तरह जुगाड़ लगाकर प्रथमा, द्वितीया की डिग्रियां लेते हुए अंत मे शास्त्री की डिग्री लेने में वो सफल रहीं और कालांतर में वो प्रभा शास्त्री कहलाईं अब वो लघुकथा की शिल्प शास्त्री और विद्वता की प्रतिमूर्ति मानी जाती हैं । लेकिन लोगबाग इस बात से हैरान भी रहा करते हैं कि आंगनबाड़ी की जो नौकरी वो किया करती थीं उससे वो निकाल क्यों दी गईं।तमाम लोग तो कानाफूसी में ये भी कहते पाए गए कि उनकी डिग्री नकली है उनका असली नाम तो दुलारी देवी है ,प्रभा शास्त्री तो उनकी उस बहन का नाम है जो युवावास्था में स्वर्गवासी हो गयी थी और ये उन्हीं की डिग्रियों से काम चला रही हैं। नौकरी भले ही जाती रही मगर वो प्रभा शास्त्री के तौर पर पहचान बनाने में सफल रहीं। विवाह से पहले वो गांधी आश्रम से चरखा कात कर के अपने लिये वस्त्र आदि का प्रबंध करती थीं लेकिन अब तो स्टाइलिश कपड़े उनकी पहचान बन चुके हैं जबकि उनके मियां सूती कुर्ते–पायजामे में ही दिन काट रहे हैं। दूसरी मोहतरमा जो स्टेशन पर सराय काले खां की तरफ से अवतरित हुईं थीं उनका नाम मैना महारानी था ।मैना महारानी फिलहाल देहरादून में रहती हैं ।बचपन से ही उन्हें नाच–गाने का बहुत शौक था मगर विधाता ने धोखा कर दिया और उन्हें आवाज़ फ़टे बांस जैसी दे दी।पढ़ाई–लिखाई में तो ठीक–ठाक थीं मगर व्यवहारिक ज्ञान बिल्कुल शून्य था ।घर बाहर के लोग उनका उपनाम मूढ़मति रखे हुए थे ।ये मोहतरमा बचपन से अनथक मेहनती थीं ,मगर हर जगह फिसड्डी ही रहीं ।रंग –रूप तो इनका ठीक ठाक रहा मगर परिवार के तानों ने पढाई–लिखाई में इन्हें इतना तनाव दिया कि इन्हें थाइरॉइड की समस्या हो गयी। एक समस्या आयी तो पीछे–पीछे दूसरी भी चली और फिर आती ही गयीं ।कई वर्षोँ तक मनोचिकित्सक की सेवाएं लीं पर कुछ खास लाभ ना हुआ।फिर एक दिन किसी दवा के रिऐक्शन से हाथ –पांव फूल गए।शरीर बेडौल और भारी हो गया पर नृत्य का मोह ना गया मन से । ये मोहतरमा बचपन में दूसरों के शादी ब्याह में महिलाओं की महफ़िल में नाचती थीं,जवानी में पति को इशारों पर नचाती रहीं और अब बुढ़ापे की दहलीज पर माता की चौकी नामक वेंचर से दुनिया को नचाती फिरती हैं ।संगीत सुनते ही उनके उनके पैर ऐसे थिरकने लगते हैं जैसे फिल्मों में बीन की आवाज़ सुनकर नाग –नागिन नाचने बावले हो जाते हैं।महारानी उनके बचपन का नाम है,मैना नाम उनका खुद का स्थापित किया हुआ है। महारानी नाम भी बड़ा दिलचस्प है ,अपनी बानगी के बिल्कुल उलट।एक प्रसिद्ध कहावत है “आँख के अंधे,नाम नैनसुख“।महारानी के पिता एक वकील के मुंशी थे ।सात भाई–बहनों में तन के कपड़े और पेट का अनाज तक पूरा नहीं हो पाता था।मोहल्ले के कपड़े सिल –सिल कर जैसे तैसे गुजारा हुआ मगर नाम महारानी।मगर नृत्य का शौक उन्हें बहुत फलदायी लगा।हर नृत्य के बाद शुभ अवसरों पर फेंके गए पैसे लूटने की उन्हें आदत थी ।वो नृत्य करती थीं और जहाँ पैसे नहीं फेंके जाते थे ,वहाँ वे होस्ट से अपनी मेहनत का तकाजा देकर कुछ ना कुछ वसूल लाती थीं। बाद में जब माता की चौकी नामक अपने वेंचर को जब इन्हें विस्तार देना था तब अपना नाम इन्होंने मैना रख लिया और तब से ये “मैना महारानी“कहलाती हैं। “माता की चौकी“नामक उनके पैकेज में देवी की मूर्ति रखकर खूब सारे फिल्मी भजन गाये जाते थे फिर खूब हँसी–ठट्ठा और अंत में किटी पार्टी।कालांतर में जब माता की चौकी में प्रसाद वितरण के बाद सपना चौधरी का डांस भी जोड़ लिया गया तब महारानी जी की डिमांड काफी बढ़ गई और आमदनी भी उसी अनुपात में बढ़ी।फिर तो उन्हें गायन और नृत्य दोनों के अवसर मिलने लगे। इस संगीतमयी चौकी में आमतौर पर मैना महारानी अकेले नहीं गाती थीं क्योंकि फ़टे बांस की तरह उनकी आवाज़ बहुत कर्कश लगती थी मगर कोरस में और वाद्य यंत्रों के शोर में वो अपनी आवाज़ की तुर्शी बड़ी आसानी से छिपा लेती थीं।नाम मैना महारानी और वाणी इतनी कर्कश ,,इन्हीं मैडम के लिये ही शायद शेक्सपियर ने कहा था “व्हाट इज इन ए नेम “(नाम में क्या रखा है )।हालांकि संगीतमयी चौकी चाहे जैसी भी हो मगर मैना महारानी डांस में रंग जमा ही दिया करती थीं। बुरा हो फेसबुक के इन एप्पस का जिन्होंने सभी का सुंदर,सुरीला और हर विधा में पारंगत बना दिया है। फ़ेसबुक से ही ये दोनों महिलाएं श्री श्री 1008 लघुकथा के गुरु राजेश्वर महाराज के संपर्क में आयीं।राजेश्वर महाराज दिल्ली में क्लर्क हैं एक बहुत ही मलाईदार विभाग में ।दिन में पैंट–शर्ट पहनते हैं और आईफोन चलाते हैं ,शाम को धोती –कुर्ता और शंख के साथ कर्मकांड निष्पादित कराते हैं वो भी सशुल्क। विभाग के लोगों की ऊपर की कमाई लघुकथा संग्रहों में निवेश कराते हैं ।दो –तीन सौ प्रतियां प्रकाशित करवा कर बीस –पचीस हजार प्रतियों का बिल बनवाते हैं जिससे काफी पैसा सफेद हो जाता है।फिर उन किताबों को मुफ्त बांट कर साहित्यसेवी होने की वाहवाही अलग से लूटते हैं ।विभाग के कई आला लोग उनकी इस ब्लैक एंड व्हाइट की कारीगरी से खुश रहते हैं और नवोदित तथा असफल साहित्यकार तो इनपे बलि –बलि जाया करते हैं औऱ इनकी सदाशयता की मिसालें दिया करते हैं।साहित्य प्रेमी इन्हें लघुकथा उद्धारक के रूप में पाकर लहालहोट हैं ,कुछ लोग इन्हें प्रातः स्मरणीय कहते हैं और नाम के सामने सदैव आदरणीय शब्द लगाते हैं जबकि गाली देकर बात करना राजेश्वर महाराज का प्रिय शगल है। राजेश्वर जी अक्सर लोगों को विधा के विकास के लिये दिल्ली बुलाते रहते हैं ।एक बार तो उन्होंने गजब ही कर दिया ।सम्मेलन स्थल पर ही उन्होंने एक मोमबत्ती सुलगा दी फिर उस पर हाथ रखकर तुरंत शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करवाया जिसमें उनके चेले/चेलियों से ये शपथ दिलवाई गई कि “मैं कसम खाता हूँ/खाती हूँ कि आज के बाद सिर्फ लघुकथा की डीलिंग कराउंगी ।उसी को बेचूंगी/बिक़वाऊंगी।किसी भी पत्रिका या अखबार में जबरदस्ती ठेल दूंगा/दूंगी।मुझे नए ग्राहक से जो भी आमदनी होगी उसको मल्टी लेवल मार्केटिंग के तर्ज पर उचित कमीशन राजेश्वर जी को भेजूंगा/भेजूंगी।” आगे फिर ये प्रस्ताव पारित हुआ कि फिलहाल राजधानी में राजेश्वर जी को” लघुकथा का महामंडलेश्वर “माना जायेगा।उनके चेले/चेलियां विभिन्न शहरों में उनकी चरण पादुका रखकर लघुकथा के कमीशन एजेंट की भांति काम करेंगे और लघुकथा के नाम के सारे टोल टैक्स वसूलते रहेंगे। लघुकथा के महामंडलेश्वर बहुत बरसों से कविता की चोरी कर–करके त्रस्त थे ,उनके सामने अचानक ये अवसर आया तो उन्होंने इसे लपक लिया। अब वो “लघुकथा इंडिया प्राइवेट लिमिटेड “की मल्टी लेवल मार्केटिंग की शाखा विस्तार हेतु प्रयासरत हैं, जिसमें दुलारी देवी उर्फ प्रभा शास्त्री और मैना महारानी उनकी बहुत सेवा कर रही हैं।राजेश्वर महामंडलेश्वर से जुड़ा हर व्यक्ति साहित्यकार बन ही जाता है ।वैसे ही जैसे किसी के पास नकली डिग्री हो और वो उसकी फोटो कॉपी किसी गजेटेड अफसर से किसी जुगाड़ से अटेस्ट करवा ले तो तो उस डिग्री को असली टाइप का मान लिया जाता है।वैसे ही राजेश्वर महामंडलेश्वर को बढ़िया चंदा देकर कोई भी असफल साहित्यकार तुरंत कालजयी हो जाता है। राजेश्वर महामंडलेश्वर ने लघुकथा इंडिया प्राइवेट लिमिटेड में कुछ अकादमिक लोगों को भी भर्ती कर रखा है जो फ़र्ज़ी तथ्य और आंकड़े पेश करके झूठ को सत्य की तरह प्रचारित करने में माहिर हैं वो अपने झूठ को “पोस्ट ट्रुथ“जैसे सजावटी शब्द देते हैं। वैसे तो लघुकथा विधा अभी हिंदी साहित्य में अपना मुकाम पाने के लिये संघर्ष कर रही है लेकिन राजेश्वर महामंडलेश्वर के एजेंट लघुकथा को साहित्य की सबसे कारगर विधा बताते हैं“जो जिंदगी के साथ भी है और जिंदगी के बाद भी “रहेगी। चेले –चेलियों के चले जाने के बाद कम्पनी के एमडी मन ही मन मुस्करा कर कहते हैं कि “मैंने तुम लोगों को ऐसी उच्च कोटि की साहित्यिक चरस दी है जो कि कभी नहीं छूटने वाली,भले ही जान या परिवार छूट जाये “। प्रभा जी ने तो लघुकथा के नाम पर वसीयत भी लिख दी है कि उनकी मृत्यु के बाद उनका दाह संस्कार उनका पुत्र नहीं बल्कि वो लघुकथाकार करेगा जिसने अपने जीवन में लघुकथाओं पर सबसे ज्यादा दुत्कार पायी हो।उनकी नजर में वो बेशर्म नहीं,बल्कि लघुकथा का योद्धा होगा । गांवों में इसे ही कहा जाता है कि “सौ–सौ जूता खाय ,तमाशा घुसकर देखे“। मैना महारानी जी तो और भी दो कदम आगे निकल गयीं।उन्हें काला रंग बहुत प्रिय था ।अपनी बहू की सारे काले रंग की साड़ियां और सलवार सूट वही पहनती रही हैं।वो काले रंग को अपने लिये लकी मानती हैं।क्योंकि जिस दिन वो काले वस्त्र पहनकर एक आयोजन में गयीं थीं तभी उनकी मुलाकात लघुकथा के महामंडलेश्वर से हुई थी।उन्होंने भी वसीयत की है कि जो लघुकथाकार सबसे ज्यादा बतकट और कुतर्की होगा उसे उनके अंतिम संस्कारों में विशेष तौर से निमंत्रित किया जाये। इन दोनों वीरांगनाओं ने अपनी वसीयत में लिखा है कि इनकी मृत्यु के बाद इनकी कर्माही में मंत्रोच्चार ना कराया जाए बल्कि लघुकथा का पाठ कराया जाए और उन लघुकथा वाचकों को किसी होटल में भोजन कराके पर्याप्त दान –दक्षिणा दी जाए।उनके छोड़े गए जेवरों से एक लघुकथा का पुरस्कार शुरू किया जाये जो प्रतिवर्ष उसी को दिया जाए जिसने लघुकथा की सबसे ज्यादा भद पिटवाई हो ,बिल्कुल हॉलिवुड की “वर्स्ट फ़िल्म ऑफ द ईयर “की तर्ज पर । कम्पनी के एमडी ने उन दोनों महिलाओं को आश्वासन दिया है कि उनकी मृत्यु के बाद मल्टी लेवल मार्केटिंग का कार्य उनके परिवार के किसी सदस्य को सौंप दिया जायेगा और एजेंटशिप का खेल पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहेगा। प्रभा जी ने अचानक पूछा “कितना बचा पायी मैना महारानी इस ट्रिप से “? मैना महारानी ने चहकते हुए जवाब दिया “पांच हजार नकद,शील्ड,अंगवस्त्र और शाल बेचकर सत्रह सौ और भी मिल गए थे।“ प्रभा जी इतराते हुए बोलीं “मैंने पांच हजार नकद बचाया ,शाल,शील्ड आदि बाईस सौ में बेचा ।मैं लघुकथा की किताबों के कुछ पैकेट आयोजन स्थल से टीप लाई थी ।सात सौ में उनको बेचा।कुछ लेखकों ने मुझे अपनी किताबें दी थी ,साढ़े तीन सौ रुपयों में उनको अभी स्टेशन के बुक स्टाल पर बेच दिया।और तो और दस दिन बाद के एक लघुकथा के आयोजन का निमंत्रण भी झटक लाई “। मैना महारानी कुछ बोल पातीं तब तक महामंडलेश्वर राजेश्वर जी आते दिखे ।उनके हाथ में इन दोनों के ट्रेन के टिकट थे ।उन्हें देखते ही वीरांगनाओं के चेहरे खिल उठे । संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं यामिनी गुप्ता का व्यंग्य – दो हजार का नोट सतीश उपाध्याय का व्यंग्य – गमले में अल्फांसो दिलीप कुमार का व्यंग्य – व्यंग्य लंका कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता 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