1. दाग
पंद्रह बरस की कच्ची उम्र का प्यार …प्यार नहीं, बस खेल ही होता है |
वह प्यार का मतलब भी तो नहीं जानती थी | बस..इसीलिए वह प्यार के नाम पर उसके जिस्म के साथ खेलता रहा | कभी चॉकलेट के बहाने तो कभी आइसक्रीम के बदले वह उसे खुशी-खुशी अपना जिस्म सौंप देती | वह भी जी भर खेलता- खाता |
कच्चा गोश्त चबाता और संतुष्ट होकर सटक लेता | दिन – महीने यूं ही बीतते गए |
पगली थी ना .. ,ना समझी जिस्म के मोल को |
वह कभी बाइक का चक्कर लगवाता, कभी पानी- पुरी खिलाकर उसे पूरा झूठा कर निकल लेता |
एक दिन उसकी चुनर का दाग उसके अंगों को फाड़ता उसके जिस्म में बीज रूप में पनपने लगा | जांघों के ऊपर होते खेल को गुड़िया का खेल समझने वाली तब भी ना समझी जब सुबह उठते से बहुत सारा जहर उसके अंदर की आंतडियोंं को फाड़कर बाहर बहने लगा |
अलसुबह होती उबकाइयों -उल्टियां ने उसके परिवार की नींद में खलल डाला |
मारपीट, गाली- गलौज हुई।
जब दाग पेट फाड़कर फ्रॉक के बाहर दिखने लगा तो वह एक गंदी खोली में बंद कर दी गई| मकड़ियों – मक्खियों चूहों और सीलन भरी खोली में । कुछ महीनो बाद एक दिन गंदले गटर में से बहकर दाग बाहर निकला |
प्यार -मोहब्बत की कच्ची भूल- भुलैया को पार कर लिपे- पुते चेहरे के साथ सजा- धजा कर अब वह तैयार कर दी गई है चंद सिक्कों की ख़ातिर किसी और दाग को कोख में सजाने के लिए |
2. पाॅश कालोनी
रत्ना जी ने काॅलोनी में कदम रखते ही बुरा सा मुंह बनाते हुए किंजल से कहा “अरे तुम्हारा घर तो बहुत पुराने एरिया में है। बस्ती लग रही है ये तो। मुझे तो लगा था कि तुम किसी पाॅश एरिया में रहती होगी। उनका चेहरा आडा- बांका हुआ जा रहा था।
फ्लैट का दरवाजा खोलती हुई किंजल उत्साहित हो कर बोली “अरे रत्ना जी, आप अंदर तो आइए, ये देखिए..सामने के फ्लैट में अंकल- आंटी रहते हैं। हाय..उन्हें हाथ हिलाकर विश करते हुए किंजल चहकी। और वो देखो, किचन की खिड़की से आवाज लगा कर ” हेमा..हेमा, क्या कर रही हो भाई?”
फुल्के बना रही हूँ दीदी। आप भी आ जाओ, गर्मागर्म खाना मिलकर खाते हैं “।
खिड़की के उस पार से खनकती आवाज सुनकर रत्ना जी अचंभित हो किंजल को देखने लगीं
“बिना मोबाइल फोन और इन्टरनेट के हमारे पड़ोसी आपस में दिल के तारों से एक- दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। हर सुख- दुख में हम सब एक साथ खड़े रहते हैं। इससे ज्यादा पाॅश काॅलोनी भला और कौन सी हो सकती है?”
किंजल गैस पर चाय चढ़ाती अपनी रौ में बोल रही थी..
और…रत्ना जी अपनी अकेली..बेबस..साॅय..साॅय करती काॅलोनी के बारे में सोच रहीं थीं ,जहाँ सुख- सुविधाएँ और दिखावा तो भरपूर है। लेकिन..शायद ना जीवन धड़कता है और ना खुशियाँ मुस्कुराती हैं। बस…, सांसें चलती हैं..बेआवाज..।
डॉ. दविंदर कौर होरा
साहित्यकार
24/2 नार्थ राजमोहल्ला
इंदौर, मध्य प्रदेश
9827451260
hora_davinder@rediffmail.com

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