1 – उनके हित में
सेठ ब्रजभानु ने आदिवासी-बहुल क्षेत्र में एक फेक्ट्री लगाई । अविकसित क्षेत्र होने की वजह बताकर, प्रशासन से बहुत सारी रियायतें हासिल कीं । पंचों को, सरपंचों को, दलालों को और जिनकी ज़मीनें ली गई थीं उनको ठेके की और नौकरियों की रेवड़िया बांटी गईं ।
विदेश से कच्चे माल के अलावा बड़े-बड़े विषय-विज्ञ, इंजीनियर्स इम्पोर्ट किए गए । उनके लिए आरामदायक आवासीय फ्लेट, हेल्थ क्लब, रिकरीयेशन क्लब स्वीमिंग पुल आदि का रातों-रात निर्माण कराया गया । गाँव के लोगों के लिए, पक्की प्राथमिकशाला और चिकित्सालय खुलवाने का “आश्वासन” दिया गया ।
अब सवाल आया ट्रांसपोर्ट का । बड़े-बड़े प्रबंधकों ने अपने सिर फ़ोड़े, पर कोई एकोनोमिक्स रास्ता नजर नहीं आया । सरपंच महोदय ने सुझाया, गाँव से फ़ेक्ट्री तक आने के लिए दो रास्ते हैं । एक तो इस तरफ वाला छोटा रास्ता है, जो ऊबड़-खाबड़ है, इसके दोनों तरफ गहरी खाई है । दूसरी तरफ हाइवे से पक्का रास्ता है, पर जरा लंबा है । फ़ेक्ट्री का माल कीमती है, माल के लिए पक्का हाइवे वाला रास्ता ही इस्तेमाल करें । गाँव से आने वाले मजदूरों के लिए छोटा रास्ता ठीक रहेगा । इस पथरीले रास्ते पर तो मेरे खड़खड़िया (टूटी-फूटी पुरानी मोटर) भी चल सकती है । भगवान न करे, माल से भरी आपकी एकाध गाड़ी खाई में गिर गई तो आपका कितना नुकशान हो जाएगा, कैसे भरपाई होगी । इन मुफ्तखोरों का क्या है …. एक सीटी बजाओ तो पचासों मुफ़्तखोर खड़े हो जाएंगे ।
सरपंच की बात पर अमल कर, तैयार माल के लिये लंबा और पक्का रास्ता व मज़दूरों के लिए छोटा ऊबड़-खाबड़ रास्ता निर्धारित कर दिया गया । इस नेक सलाह के लिए ट्रांसपोर्ट का ठेका भी सरपंच महोदय को दे दिया गया ।
डिस्ट्रिक कलेक्टर महोदय को इस तरह जानकारी दी गई ।
“मजदूरों के हित को ध्यान में रखते हुए, उन्हें फ्रेक्ट्री तक आने-जाने के लिए वाहन उपलब्ध करा दिया गया है और इसका ठेका भी एक स्थानीय व्यक्ति को दे दिया गया है । ये आपकी जानकारी के लिए है ।
2 – जमनिया
नाम तो उसका जमना है पर बिगड़ते-बिगड़ते जमनिया हो गया है, जो कि गाली सा प्रतीत होता है। -सोचती जा रही है, ‘आज इस लकड़ी के गट्ठर के पचास रुपए मिल जाएँ तो एक बिस्कुट का पैकेट ले लूँ और बचे हुये पैसो के चावल ले लूँगी, कम से कम दो दिन का काम तो चल ही जाएगा । पता नही, भगवान भी क्यों हमारी कठिन से कठिन परीक्षा लेता है । ठेकेदार के यहाँ काम करते-करते मेरे रामन्ना के साथ ही दुर्घटना होनी थी, वह भी इतनी भयंकर कि अस्पताल जाने का भी चांस नहीं मिला । ठेकेदार ने जो पैसा दिया, वह तो रामन्ना को शमसान ले जाने में ही खर्च हो गया । कैसे करूँ अपने और बच्चे का खाने का इंतजाम’ । उदासी की प्रतिरूप जमनिया बड़े-बड़े कदम बढ़ा- चली जा रही थी ।
अचानक सामने से लड़कियों के स्कूल की बड़ी बहिन जी आती दिखाई दी । डांटते हुये बोलीं, ‘क्या रे जमनिया, कहाँ जा रही है, बच्चे को लेकर कड़कती धूप में, बीमार पड़ जाओगे तुम दोनो’ ।
‘अरे बहिन जी रोटी का ठिकाना नहीं है, हमें काहे की बीमारी, मजदूरों को धूप, छाव, बरसात का कुछ असर होता है क्या बहिन जी ’
‘अरे ऐसा क्या हो गया, इतना सुंदर तो तेरा बच्चा है’ ‘अरे बहिन जी, जिस दिन लकड़ी बिक जाती है, उस दिन सुंदर बच्चे को और मेरे को पेट के लिए कुछ मिल जाता है, नहीं तो भगवान मालिक…’ ।
‘ऐसा नहीं बोलते, भगवान सबका ध्यान रखता है । ये लकड़ियाँ कहाँ बेचती है तू’ । ‘वह शराब की भट्टी वाला मंगतराम ले लेता है और अपनी मर्जी से पैसे दे देता है, क्या करें’ ।
‘ठहर, ये लकड़ी को गट्ठर उतार, और मेरे बात सुन, शराब की भट्टी वाले को लकड़ी मत बेचा कर । ‘मुझे दे दिया कर, सर्दियों में तापने के काम आएंगी ।…. मेरे स्कूल में सफाई का काम करेगी क्या, तेरे रहने के लिए, स्कूल से एक कमरा भी मिल जाएगा । तेरे आदमी को मैं जानती थी, वह ठेकेदार के बच्चों को स्कूल छोडने आता था, हमेशा मुझे नमस्ते करता था और मुझे देखकर रास्ते से दूर खड़ा हो जाता था । मैं अभी झोपड़पट्टी के बच्चों को पढ़ाने जा रही थे, पर अब चल, पहले तेरा काम करती हूँ’ ।
जमनिया सोचती है, भगवान तेरे कितने रूप हैं, कोई समझ ही नहीं पता । ‘थैंकू बहिन जी’ कहते हुये उनके पीछे-पीछे चलने लगी ।
आदरणीय ऊषा जी!आपकी पहली लघुकथा लघुकथा सी नहीं है ।लघुकथा में एक समय की घटना का वर्णन होता है। दिन-रात का भी अंतर नहीं होता। जहां तक हम जानते हैं।
इसे लघु कहानी कहा जा सकता है।
दूसरी लघुकथा अच्छी है। और प्रेरणास्पद भी।
वास्तव में गरीबों का कोई नहीं होता। लेकिन कहानी बता रही है कि अच्छे लोग आज भी दुनिया में है जो
नेक नियति पर भरोसा रखते हैं।
इस लघु कथा के लिए आपको बधाई।
आदरणीय उषा जी जमनिया लघु कथा पढ़कर अच्छा लगा । पहले वाली लघुकथा तो लघुकथा की श्रेणी में नहीं आएगी। जमनिया के लिए बधाई स्वीकारें।