1 – मिलन का रंग
“देव रक्षा । पाहिमाम … त्राहिमाम”!
वसुंधरा की करुण पुकार पर वरुण लोक कंपकंपा उठा ।
“प्रभु मेरी विखण्डित काया की पीड़ा समझिए । आपसे बिछोह और सहन नहीं होता । इस तरह यह उपेक्षा, यह विमुखता तो मेरी संतति के विनाश का आह्वान है । जल ही जीवनाधार है प्रभु । मानव की धृष्टता को क्षमा कीजिए और अपना अनुग्रह बरसाइए’।
“देवी? क्या इस विनाश का उत्तरदायित्व मेरा है ?जिस प्रकृति ने जीवन दिया ,उसी का दोहन क्या क्षमा योग्य है? क्या आपकी संतति को परोपकार की परिभाषा का स्मरण भी है?प्रकृति के प्रति यही प्रत्युपकार अपेक्षित था ? अपनी अनियंत्रित मृग तृष्णा के कारण आपकी काया खंडित कर दी । नदी, जल, वायु , प्रदूषित कर दिए । और क्या होना शेष रहा? इसमें मेरी भूमिका क्या है देवी? उसने स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित किया है । और दोष मेरे सर ? कहाँ का न्याय है”?
“तो क्या समस्या असमाधेय है देव”? वसुधा चिंता में डूब गई।
“देवी … अब तो बुद्धि के देव बृहस्पति ही रक्षा कर सकते हैं । जब तक मानव स्वयं चेतेगा नहीं, विनाश अवश्यम्भावी है ।और … चिंता मत कीजिए । विनाश से ही सृजन प्रसूत होता है ।प्रतीक्षा कीजिए और प्रार्थना” । वरुण देव ने निर्लिप्त भाव से कहा ।
“नहीं देव । हम अपनी मर्यादा का कभी त्याग नहीं कर सकते । सृष्टि की रक्षा और पालन ही हमारा कर्तव्य है । जानती हूँ प्रभु, आज मानव भोग लिप्सा में मदांध होकर अपनी सीमाएं लांघ गया है पर हम… हम अपना धर्म नहीं भूल सकते प्रभु । आपको मेरी संतति की रक्षा करनी ही होगी । और कोई उपाय नहीं । यही सत्य है और शिव भी । आइए देव ,अब और बिछोह सम्मत नहीं “। वसुधा ने अश्रु निमीलित नेत्रों से बाँहें फैला दीं!
“ओह! देवी ! ये आपने क्या कर दिया”? वरुण देव विचलित हो उठे । “आपने एक बार फिर मुझे विवश कर दिया । आपका वचन सत्य है । चलिए, आपकी प्रार्थना शिरोधार्य” ।
नभ में बादल मंडरा गए। अस्तगामी सूर्य देव अचानक छिपकर छाया के पाश में बंध गए । अवसर पाकर मेघ घड़घड़ाए और मूसलाधार बारिश होने लगी । अपने प्रियतम से मिलकर वसुधा की क्षुधा तृप्त हो गई । चारों ओर नवजीवन अंकुरित हो आया । राग की ऐसी दुंदुभि बजी कि प्रकृति सुरमयी रंग में रंग गई ।
2 – काली
‘बहू! गहने पहन लेना । यहाँ शहरों वाला हुलिया नहीं चलेगा । ठाकुर परिवार की बहू हो । आज मंदिर में हमारा भंडारा है । वहाँ सब की नजर तुम पर ही होगी । पहली बहू तो मेरे बेटे को निगल गई । अब तुमसे ही आशा बंधी है’ ।
‘जी । क्या दीदी को खाना दे दूँ? हमें आते तीन बज जाएंगे’ । |
‘न । काली दे देगी । अभी मर न जाएगी’. माँजी अपनी गोट वाली बनारसी साडी पहनते बोली । उर्मि खिन्न सी तैयार होने चली गई । कुछ ही क्षणों में माँजी की चिंघाडती आवाज कानों में पड़ी, ‘बहू गंगा जल ले आ’ ।
उर्मि चौंक गई । बाहर आँगन में काली गीले कपड़ों की बड़ी सी बाल्टी लिए थर-थर कांप रही थी और माँजी शेरनी की तरह उस पर दहाड़ रही थी……‘मनहूस कहीं की, कितनी बार कहा है शुभ काम को जाते समय काली बिल्ली की तरह रास्ता मत काटा कर । मुंह ढांप । छिः .. छिः अशुद्ध… अपशकुन कहीं की । बहू… ला .. गंगा जल छिड़क दे’ ।
उर्मि को जैसे सांप सूंघ गया । खड़ी की खड़ी रह गई । माजी फिर चिल्लाई , अरे बहू जल छिड़क’।
वह अचानक होश में आई और जल्दी -जल्दी जल छिड़कने लगी…
‘पर माँजी यह तो सुबह शाम यहीं रहती है आपके सामने और रात को तो आपके पैर …’।
‘अब लेक्चर मत झाड़ो बहू’ । माँजी उर्मि की बात पूरी होने से पहले ही चाँदी का थाल लिए निकल गई । काली चेहरे से नहीं, किस्मत से काली थी । सोलह साल की बाल विधवा… माँजी की विशेष परिचारिका ।
उर्मि का मन कड़वा हो आया । मन में उठे रोष के ज्वार को दबा कर पूजा की थाल लिए वह चलने को हुई …गंगा जल से गीला फर्श … पैर फिसला … धड़ाम से गिरी …. पूजा की थाली दूर छिटक गई ।
‘अरे बहू रानी … आप तो गिर गईं’। आवाज सुनकर काली भागती हुई आई और उसने उर्मि को पकड़ लिया ।
‘हाँ बेटा! मैं गिर गई । सचमुच ! बहुत गिर गई हूँ’। उर्मि कराह उठी ।
‘पता नहीं क्या बोलतीं रहतीं है आप’ । काली ने बाल्टी उठाई और कपड़े सुखाने चल दी ।
3 – छत्रछाया 
‘बावली है तू बावली! इत्ती बडी अधिकारी रिक्शे में जाएगी? अरे कार में जाए तू तो कार में  । और तू है कि जिद्द पर अड़ी है? दिमाग तो ठीक है तेरा ? लोग क्या सोचेंगे ये सोच कि मैडम जी टूटे फूटे रिक्शे में ? और…. इन मैडम का बाप रिक्शे वाला? छि…छि…। न…न । मैं न ले जाऊँगा तुझे । जा तू किसी और के रिक्शे में” । 
रघु भी  जिद्द पर आ गया । मीरा का आज नौकरी का पहला दिन था और वह पिता के रिक्शे में ऑफिस जाने की जिद्द कर रही थी । बिन माँ की बच्ची । रघु ही तो माँ -बाप था उसका । जितनी लाड़ली उतनी होनहार । 
“हाँ बाबा । तू  ठीक कह रहा है ।  लोगों को पता चलना चाहिए कि इसी टूटे फूटे रिक्शे ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया पढ़ा लिखा कर । और  मैं तो तेरे  रिक्शे में ही जाऊँगी  । और एक बात सुन ले बापू  । यह तेरा  आखिरी दिन होगा रिक्शा चलाने का । समझे?” मीरा में झुक कर पिता के चरण छुए।
“न बेटा …तू मेरा हाथ छीन रही है? मैं अपना काम न छोडूँगा । न । पर तेरी जिद्द तो बिल्कुल ठीक नहीं” । रघु का मन मान न रहा था । पर जानता था कि मीरा  न मानेगी।
“चल जैसा तू कहे…। तेरी मर्जी । छतरी ले ले । धूप बहुत है । काम पर पसीने से लथपथ अच्छा न लगेगा । समझी” रघु ने रिक्शा निकाल लिया । 
मीरा उछल कर रिक्शे पर बैठ गई । रघु ने पेडल पर पांव मारा ।  सर पर अचानक छाया लगी ।  समझ आया कि छतरी मीरा के सर पर नहीं ,बल्कि उसके सर पर  है । 
“अब ये क्या ? छतरी मेरी ओर क्यों ? क्या मैं पहली बार चला रहा हूँ?” वह गुस्से से बरस पड़ा । 
“नहीं बापू  , पता है पता है । गुस्सा नहीं. अच्छे बच्चे गुस्सा नहीं करते ।  आज तक मैं तेरी छाया में थी …है न? और आज से तू मेरी छाया में है । और यह भी बता दूँ कि जब तक बापू तू  ठीक समझें तब तक काम कर लीजो  । मैं मना न करूँगी । पर तुझे  भी आज से मेरी हर बात माननी होगी । समझे? 
रघु की छाती चौडी हो गई और आंखें नम । डबडबाई आँखों से  एकटक अपनी  लाडली को देखने लगा । सोचा, कितनी बडी हो गई है मेरी बच्ची।
“अब देख क्या रहे है रिक्शे वाले जी ? मीरा मुस्कुरा कर बोली , ‘मेरे बापू  ने मुझे सिखाया है कि काम में  देर न होनी चाहिए । जल्दी चलिए अब ” । वह खिलखिला उठी । 
“चल हट पगली” । रघु ने पसीना पोंछा और रिक्शा तेज भागने लगा ।
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु. विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, जन कृति, अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , स्मृति लेख , साहित्यिक आलेख ,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन. राष्ट्रीय स्तर पर सी डेक पुने द्वारा आयोजित भाषाई अनुवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत. संपर्क - padma.pandyaram@ gmail.com

4 टिप्पणी

  1. तीनों लघु कथाएं एक से एक।

    हां बेटा , मैं सचमुच गिर गई हूं,मर्म स्पर्शी कथन।

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