निवेदिताश्री के तीन गीत
ताल तलैया सूख गए हैं
चिड़िया छोड़ घोसले भागी
जरा जरा सी बातों पर हैं
आज अभावों की गलियों से
त्रेता से हम सहे जा रहे
घिसती चप्पल थकी नहीं माँ
बिटिया करती काम सभी है
अपने घर से बेघर होती
सहम सहम कर बीत गयीं
सूखा बाढ़ सहे वह निस दिन
टूटी फूटी रही मड़ैया
बंजर में भी अन्न उगाता
सूदखोर है बड़ा महाजन
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बहुत सुंदर रचनाएं
आशा पर ही तो साँसे टिकी है, काश। दूसरी कविता में बहुत खरी खरी कही आपने। तीसरे पहर में ही सही, अपना जीने का हक़ तो बनता है। सब कुछ कर के बहुत कुछ सह के कुछ दिन अपने लिये मिलें नहीं तो छीनने पड़ेंगे।
किसान की दशा का मार्मिक वर्णन किया है। असली जिन्दगी की छूती हुई सच्ची सच्ची कवितायें। हार्दिक साधुवाद