ये बीसवीं सदी के सातवें दशक का किस्सा है. जब कंप्यूटर अभी चुनिन्दा दफ्तरों में ही आया था. कारें कम घरों में होती थीं. मोबाइल फ़ोन का तो किसी ने नाम तक नहीं सुना था.
 वे चार लोग थे. दो पुरुष, एक स्त्री और एक किशोर. किशोर वैसे तो लड़का है. मगर इस उम्र में उसकी कद-काठी काफी कुछ लड़कियों जैसी है. लंबा, दुबला, पतली-पतली टांगें और बाहें. दांतों पर ब्रेसेस लगे हुए और बाल लम्बे-लम्बे, पीछे गर्दन से भी नीचे तक आते हुए, घुंघराले.
दोनों पुरुष और स्त्री परिपक्व हैं. एक पुरुष इंजिनियर है और दूसरा डॉक्टर. ये दोनों मौसेरे भाई हैं. स्त्री इंजिनियर की बहन है और किशोर डॉक्टर का भाई है. यानी ये चारों आपस में मौसेरे भाई-बहन हैं.
डॉक्टर और उसका किशोर भाई अमरीकी के न्यू जर्सी से छुट्टियाँ मनाने भारत आये हुए हैं. स्त्री राजस्थान के एक शहर में कॉलेज में पढ़ाती है और उसका इंजिनियर भाई राजस्थान की ही एक मशहूर खान में काम करता है.
दोनों अमरीकी भाई, इन्हें अमरीकी कहना ही उचित होगा चूँकि ये दोनों अमरीका में ही पैदा हुए हैं और वहीं उनकी परवरिश और पढ़ाई-लिखाई भी हुयी है, खासे अमरीकी हैं. इनके भारतीय माता-पिता इन्हें हर दो साल के बाद दो महीनों के लिए भारत में रिश्तेदारों के यहाँ छुट्टियाँ मनाने भेजते हैं. ताकि भारत से इनका नाता बना रहे.
 हालाँकि ये कसरत भी कुछ अधूरी सी इसलिए भी लगती है क्योंकि इनके माता-पिता खुद भारत कम ही आते हैं. व्यस्तता एक बहुत बड़ा कारण है. इसके अलावा वे दोनों अमरीकी हवा-मिट्टी में घुल मिल गए हैं. उनके दोस्तों में दुनिया भर के नागरिकों की भरमार है. दोनों सफल प्रोफेशनल लाइफ जी रहे हैं. सो उसमें से वक़्त निकालना उन्हें मुश्किल लगता है.
रिश्तेदारों के सुझाव मानते हुए और खुद के भी बच्चों को भारत से परिचित रखने के आग्रह पर बेटों को भारत भेजते रहते हैं. दोनों ही बेटे उनकी बात मान कर उनके सुझाव पर भारत आ भी जाते हैं. इस पर दोनों माता पिता संतोष का अनुभव भी करते हैं.
मगर असल कहानी तो शुरू तब होती है जब वे भारत आते हैं. इस बार तो छोटा लड़का किशोर हो गया है. इससे पहले एक बार जब वो आया था तो ढाई साल का बालक था. एयर होस्टेस को उसने नाकों चने चबवा दिए थे. बच्चों की मासी जो दिल्ली में रहती हैं उन्हें एअरपोर्ट से लेने पहुँची तो ग्राउंड होस्टेस ने नन्हे सूरज   को उनकी गोद में डालते हुए कहा था, “थैंक यू सो सो सो मच. आप आ गयीं. मैं तो थक के गिरने ही वाली थी.”
सूरज खुद भी थक कर सो चुका था. मगर सोने से पहले उसने जो तूफ़ान बरपाया था उसकी इबारत ग्राउंड होस्टेस की पेशानी पर लिखी हुयी थी. सूरज की कमीज़ उतरी हुयी थी जो कि गीली थी और होस्टेस ने एक प्लास्टिक के बैग में रख कर उसे मासी को सौंप दिया था. होस्टेस ने अपने स्कार्फ से शान को लपेटा हुया था. ताकि बच्चे को ठण्ड न लग जाए.
हुआ यूँ था कि उसके पीछे दौड़ते-दौड़ते वह दो पल को चूक गयी थी और जनाब ने पीने का पानी अपने ऊपर गिरा लिया था. पूरी शर्ट गीली हो गयी थी. होस्टेस ने शर्ट उतारी और बैग में से सूखी शर्ट निकाली तो जनाब को नींद आने लगी. उन्होंने शर्ट पहनने से साफ़ इनकार कर दिया. और होस्टेस की गोद में दुबक कर सो गए. अब वे क्या करतीं? हार कर अपना स्कार्फ गले से निकाल कर उसमें बच्चे को पैक कर दिया.
मासी की हंसी के मारे बुरा हाल था. होस्टेस भी अब राहत पा कर हंसी में साथ दे रही थी.
तो यही जनाब अब किशोर हो गये हैं और लड़की जैसे दिखाई पड़ते हैं. और अब इनके लिए सबसे बड़ी समस्या यही है कि ये लडकी जैसे दिखाई पड़ते हैं. बाल नहीं कटवाएँगे. कपडे ढीले-ढाले पहनेंगे. मगर कोई इन्हें लडकी कहे तो शिकायत करने फ़ौरन बड़े भाई के पास पहुचं जायेंगें. शरीफ सा बड़ा भाई अपनी बातचीत बीच में ही छोड़ कर उनके साथ आता है. और सब को समझाने की कोशिश करता है कि दरअसल ये जो लडकी जैसा दिखाई पड़ता है वो दरअसल उसका छोटा भाई है. और चूँकि ये बाल नहीं कटवाना चाहता इसलिए लडकी जैसा दिखाई पड़ता है. मगर इसको लडकी कहलवाना बिलकुल भी पसंद नहीं है. ये तो लड़कियों से बात भी नहीं करता सो आप प्लीज इसे लडकी न कहें.
साथ ही वो अपनी आँखों की चमक और चेहरे की मुस्कान को भरसक छिपाने की कोशिश भी करता है. छोटे भाई के मज़े लेने का भरपूर मौक़ा उसे इस बार भारत के दौरे पर खूब मिल रहा है और इसका वह जम कर फायदा भी उठा रहा है.
इस बार ये दोनों भाई पहले स्त्री के घर आये थे, जहा वे एक हफ्ते रहे. आस-पास का इलाका देखा. शहर देखा. राजस्थान की संस्कृति की पहचान की. और अब उसी के साथ उसके इंजिनियर भाई के घर आ गए हैं जो स्त्री के शहर से करीब पांच सौ किलोमीटर दूर है.  यहाँ ये लोग बस से आये हैं.  इंजिनियर भाई की गाडी का दो दिन पहले एक्सीडेंट हो गया है. गाडी गेराज में है. अब मसला खड़ा हो गया घूमने-फिरने का.  दोनों अमरीकी भाई और स्त्री इंजिनियर जिस खान में काम करता है, उसे देखना चाहते हैं.
डॉक्टर ने सुझाव दिया, “लेट्स’ हायर ए टैक्सी.  हम टैक्सी करें.”
इंजिनियर हंस पड़ा, “यहाँ टैक्सी नहीं होती भाई मेरे. ये खानों का गाँव  है.”
किशोर हंस पडा, “विच खान भाई? इमरान खान और संजय खान.”
इस पर सब चौंक गए. इस अमरीकी बच्चे को इन खानों के बारे में कैसे पता है?
बहन ने पूछ लिया, “ओये. तू जानता है? फ़िल्में और क्रिकेट? मैं तो तुझे पूरा अमरीकी समझती थी.”
“डोंट बी सरपराईजड दीदी. माँ सब दिखती है मुझको. फिल्में भी , महाभारत भी और क्रिकेट मैच भी. मैं हिंदी भी जानता.”
“अच्छा जी. ” एक बड़ा सा ठहाका गूँज गया.
मगर मसला तो ये था कि ये चारों लोग एक ही स्कूटर से घूमने कैसे जाएँ. दिन तो दो ही हैं. माइन देखने जाना ज़रूरी है आज.
डिस्ट्रिक्ट हेड क्वार्टर और भारत के मशहूर झीलों के शहर से ये क़स्बा दो सौ किलोमीटर दूर है. यहाँ पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पर सिर्फ खान की बसें हैं. ऑटो नहीं हैं. न कोई तांगा. लोग-बाग या तो पैदल चलते हैं या बाइक स्कूटर वगेरह पर या फिर अपनी कार पर.
 इंजिनियर ने कुछ सोचा और अपने पड़ोसी के दरवाजे की घंटी बजाई.
पता लगा कि पड़ोसी अपनी कार ले कर उदयपुर गया हुया है. उसकी पत्नी सुमति शर्मा ने कहा, “ हमारा स्कूटर तो यूँही रखा है. वो ले जाओ जी आप.”
इंजिनियर ने फ़ौरन उनसे स्कूटर की चाभी ली और धन्यवाद दे कर अपने घर आ गया. वो उत्साह से भरा था. मगर ये उत्साह ज्यादा देर टिका नहीं. अमरीकी डॉक्टर को स्कूटर तो क्या साइकिल भी चलाना  नहीं आता. अब क्या हो?
 किशोर ने प्रस्ताव रखा. “मैं ड्राइव करूँगा स्कूटर. ओथे मैं बाइक चलान्दा.”
“ओये चुप. ओथे तू बाइक चलान्दा. तेरा टिकेट नहीं कटेया सी? डैड ने बीस डॉलर फाइन दित्ता सी.. चुप बदमाश. नहीं भाई इसको नहीं चलाने देना स्कूटर.” डॉक्टर ने फ़ौरन उसकी बात काट दी थी. किशोर बुरा सा मुंह बना कर चुप हो गया था.
अभी ये बातें हो ही रही थीं कि बहन बोल पडी, “अरे मैं चलाऊँगी न स्कूटर. मेरे पीछे इस हलके से सूरज को बिठा लूँगी.. चलो निकलो.”
इंजिनियर थोडा पशोपेश में था.
“यहाँ की सड़कें पहाडी हैं. ऊंची नीची. तू चला लेगी?”
मगर अपने शहर की सडकों पर मज़े से कार और बाइक ड्राइव करने वाली बहन आत्म विशवास से भरी थी.
“फिकर नोट. मैं सब जगह चला लूंगी. जो इंसान बीकानेर में ड्राइव कर सकता है न वो दुनिया में कहीं भी ड्राइव कर सकता है.”
इस बात पर इंजिनियर को सहमत होना पडा. ये बात तो ठीक कहती है उसकी बहन. उस शहर में उसने भी रह कर देखा है. चारों तरफ से कोई भी कभी भी आ कर आपके सामने, दायें, बाएं, आगे, पीछे से आपकी गाडी स्कूटर में टक्कर मार सकता है. हर वक़्त चौकन्ने हो कर ड्राइव करना होता है. सो उस शहर के ड्राईवर बेहद दक्ष ड्राईवर होते हैं.
तभी इंजिनियर की पत्नी रोजी ने बैठक में प्रवेश किया. इन सबके प्लान से वह बखूबी वाकिफ थी और सभी के लिए नाश्ते के प्रबंध में रसोई में व्यस्त थी.
“चलो भाई. तुम लोग जाने से पहले नाश्ता कर लो. मेज़ पर लग गया है. मैं भी फ्री हो जाऊं. आ कर देखो मैंने कितनी बढ़िया पूरी सब्जी बनाई है.”
इंजिनियर और बहन दोनों उत्साह से भर उठे.
बहन बोल उठी, “ जी भाभी. आपकी बनाई पूरी सब्जी का स्वाद तो अनोखा ही होता है. ऐसी सब्जी पूरी कभी नहीं खाई मैंने कहीं भी. आप बेहतरीन बनाती हो.”
अब भला भाभी क्यों खामोश रह जातीं? इसी खिड़की की तो तलाश थी.
“हाँ भाई. हम तो बनाते ही हैं. आप भी सीख लो जी कुछ पकाना बनाना. ये सब पढ़ाई वगैरह और ऊंचे-ऊंचे  उड़ना सब धरा रह जाता है एक बार शादी हो जाए तो. फिर तो आप भले और आपकी रसोई.”
रोजी ने एक लम्बी सांस भरी ही थी की इंजिनियर को ताव आ गया, “देख बिल्लो. मैंने तुझे कभी फ़ोर्स किया खाना पकाने के लिए? कितनी बार कहा है एक मैड रखो इन कामों के लिए भी. पर तुम्हें तो सब खुद पकाना है. यार! बाहर निकलो. अपनी डिग्री का कुछ फायदा लो. दुनिया देखो. पर नहीं.  आप को तो घर में  रहना है. दिन भर. और पकाना है बढ़िया-बढ़िया पकवान. देखो यार मेरी तो तोंद भी निकल आयी ये सब कहते और खाते-खाते .”
इंजिनियर ने कमीज़ हटा कर अपनी बाहर निकली हुयी तोंद पर हाथ फिराते हुए आनंद भरी आँखों से पत्नी को निहारते एक हवाई चुम्बन भी उसकी तरफ उछल दिया.
“रहने दो, रहने दो. जब बढ़िया खाना लगता है न मेज़ पर, तो अंगुलियाँ चाट-चाट कर भी तुम ही खाते हो और दुआ मांगते हो कि मेरे हाथों में अन्नपूर्णा इसी तरह बसी रहे.  तब कहाँ जाती है मेरे बाहर निकलने की सलाह ? तब तो कहते हो यार तूने स्वर्ग दिखा दिया.”
“अरे यार स्वर्ग तो तुम सारा दिन सारी रात दिखाती हो. अब इसमें मैं ये तो नहीं कहता कि तुम सारा दिन रसोई  में ही लगी रहो. “
“अजी रहने दो. मुझे मत पढ़ाओ मुझे क्या करना है. मैं जो करती हूँ मुझे वही पसंद है. मुझे नहीं करनी बाहर  निकल कर कोई नौकरी. कर के देख ली. दस लोगों की बातें सुनो. और इस फिकर में मरते रहो कि आज क्या पहनना है. क्या बात कैसे करनी है?  किसके साथ कैसे राजनीति करनी है? कैसे किस को पटखनी देनी है?”
“अच्छा जी. और वो जो तुम अपनी पड़ोसनों को आये दिन पटखनी देती रहती हो? वो सब क्या है?”
अब तक सब मेज़ पर आ गये थे. स्वादिष्ट पूरी सब्जी और हलुवे का स्वाद ले रहे थे. इंजिनियर का इशारा पत्नी की पड़ोसनों के साथ होने वाले गपशप और वाद-विवाद की तरफ था. यहाँ भी अच्छी-खासी राजनीति अक्सर होती रहती थी.
लगभग हर दोपहर तकरीबन सभी महिलायें मिल बैठ कर गप-शप करती ही थीं. एक अलग ही तरह की राजनीति इनके बीचे भी पनपते हुए वह महसूस करता था. उसने ये भी देखा था कि इस खेल में मुख्य किरदार उसकी पत्नी यानी रोजी निभाती थी. एक तरह से इन इंजिनियर पत्नियों की अघोषित नेता जैसा कुछ थी रोजी.
 एक दो बार समझाने की कोशिश की थी उसने कि बातें ज्यादा बढ़ गयीं तो उसके सीनियर उसे दफ्तर में  टोक सकते हैं या उसके करियर पर भी असर पड़ सकता है. मगर रोजी समझने को तैयार ही नहीं है. उसका मानना है कि ये उसका अपना निजी क्षेत्र है इसमें पति को कोई दखल अंदाजी नहीं करनी चाहिए. इन मामलों में उसे अपने ऑफिस से ही मतलब रखना चाहिए. दरसल रोजी का मानना है कि घर के अन्दर उसका एकछत्र राज्य है. पति सिर्फ अपने काम से काम रखे.  घर पर आराम करे और उसकी हर बात की ताकीद करे.  हर वक़्त पत्नी के सुख की बात ही सोचे. या बेटे की जो अब तीन साल का होने ही वाला था.
तो पत्नी के सुख की बात सोचते हुए इंजिनियर ने कहा, “यार. तू ठण्ड रख. अब हम सब लोग निकल रहे हैं. लंच वहीं ऑफिस की कैंटीन में करेंगें. शाम का खाना तू बना लेना सिंपल सा. दाल रोटी सब्जी. आइस क्रीम मैं ले आऊँगा बाद में. ठीक है?  और अपना ख्याल रखना.”
“हाँ जी हांजी. मैं अपना ख्याल रखूंगी . तुम भी अपना ख्याल रखना. माइन देखते वक़्त ज़रा अपना और इन सब का ख्याल रखना. कोई चोट वोट न लगवाना जी. समझे.” रोजी ने बेडरूम की तरफ जाते हुए कहा. अन्दर से बच्चे के उठा पटक करने की आवाजें आ रही थी. उसे गोद में उठा कर वह फ़ौरन ही लौट आयी थी.
“जी मैडम.” बोल कर इंजिनियर ने पत्नी को सलाम ठोका और चारों भाई-बहन बाहर आ गए थे. रोजी उनको बाहर तक छोड़ने आयी थी. छोटा कुकी भी साथ-साथ आ गया था. बच्चा सयाना है. साथ जाने की जिद नहीं करता. आज उसकी छुट्टी करवा दी थी स्कूल की रोज़ी ने. सुबह काम ज्यादा होने की वजह से उसको टाइम से उठा नहीं पाई थी. सब लोगों के आने से काम तो बढ़  ही गया था. कुकी अभी छोटा है. प्ले स्कूल में ही है तो कोई फ़िक्र भी नहीं है.
बहन ने दोनों स्कूटरों का मुआयना किया और उसे इंजिनियर का स्कूटर अपने हिसाब से बेहतर और अच्छी कंडीशन में लगा. उसने कहा, “भाई मैं तो ये वाला चलाऊँगी.”
“ठीक है. मैं खुद भी तुझे अपना वाला ही देने वाला था. ये गुप्ता तो पता नहीं सर्विस भी करवाता है इसकी कि  नहीं. पता लगे ब्रेक ही काम नहीं कर रहे. और हाँ. सड़क ऊंची नीची है. ज़रा ध्यान से. जिस गियर में चढ़ाई करो उसी गियर में उतराई पर रखना है स्कूटर को. समझी?”
“जी डैडी जी.” कह कर बहन ने सलाम भी ठोक दिया था और याद दिला दिया था कि बड़ा भाई है तो वही रहे बाप बनने की कोशिश न करे.
किशोर अमरीकी भाई उनकी नोक-झोंक के मज़े ले रहा था. उसने कहा,” मैं तो दीदी के पीछे बैठना. ठीक  दीदी?”
बहन खुश हो गयी. “आजा मेरे भाई. तूने तो मुझे बचा ही लिया. तू न बैठता तो ये तेरा बड़ा सा भारी सा डॉक्टर भाई बैठा जाता. मेरी तो मुसीबत ही हो जाती.”
दोनों ने एक भरपूर ठहाका लगाया तो डॉक्टर ने पूछ ही लिया, “तुम दोनों किसकी बात करते हो. मुझे पता है मेरी मजाक करते हो.”
अब ठहाका और बड़ा हो गया.
बहन ने कहा, “ओये डॉक्टर मेरी नहीं मेरा मजाक. मजाक लड़का होता है.”
“ठीक है. ठीक है. क्यों करते हो मेरा मजाक?”
“हम नहीं किता तेरा मज़ाक  भाई. दीदी तो कहती  कि वो तेरे को अपने पीछे बिठानी थी. बट मैं बैठूँगा दीदी के स्कूटर पर. तू जा उधर.”
बहन ने एक और ठहाका लगाया . इस बार ठहाके में इंजिनियर भी शामिल हो गया था. उसने पूरा माजरा समझ लिया था. उसने अपना स्कूटर स्टार्ट किया. इसके साथ ही बहन ने भी स्कूटर स्टार्ट किया और दोनों के पीछे उनके सवार भी बैठ गए.
दीदी ने किशोर से पूछा, “चलूँ?”
“चलो दीदी. वाहिगुरू जी का खालसा, वाहिगुरू जी की फ़तेह.” किशोर ने जोर से जयकारा लगाया.
 हाल ही में उसे माँ गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ करना सिखा रही है. अमरीकी बच्चे में कुछ भारतीय संस्कार डालने की इस कोशिश में वो लगी हुयी हैं . इस चक्कर में किशोर ने बाल भी लम्बे रख लिए हैं. वो अब सरदार बनना चाहता है. पूरे खानदान में एक उसी के बाल लम्बे हैं अमरीका में भी और यहाँ भारत में भी. यहाँ तक कि उसकी माँ और यहाँ इस बहन के  भी बाल बॉब कट हैं.
 सो पहली नजर में उसे देखते ही इस दुबले पतले किशोर का लडकी होने का भ्रम होता है. जब मुंह खोलता है तो फटती हुयी आवाज़ से उसके लडकी नहीं होने की पुष्टि होती है. इस चक्कर में उसका कई बार मूड ऑफ होता है और वह मुंह फुला कर बैठ जाता है. यहाँ  भारत में तो ये उसके साथ हर रोज़ हो रहा है.
बहन को ऊन्ची-नीची सड़कों पर स्कूटर चलाने में शुरू के दस मिनट थोड़ी दुश्वारी हुयी मगर जल्दी ही यहाँ का खेल समझ आ गया है. वो दक्षता के साथ छोटे भाई को पीछे बिठाये बड़े भाई को फॉलो कर रही है. कुछ दूर ही गए थे कि एक नदी के बीच की सड़क की पतली सी पट्टी आ गयी. लोग बाग़ उस पर स्कूटर चला कर आ-जा रहे थे. उस पट्टी पर कुछ एक इंच पानी भी बह रहा था. और यह करीब पांच मीटर ही चौड़ी थी. दोनों तरफ नदी. बहन ने उस पर से स्कूटर चलाने से इनकार कर दिया. वो डर गयी. बड़ा भाई हंस कर रास्ता बदल कर लम्बे रास्ते से हो लिया.
पीछे बैठा किशोर हंस रहा था. “दीदी डर गयी. हा हा हा हा हा हा हा “
“ओये. चुप कर. गिरा दूंगी तेरे को.” कह कर हँसते हुए बहन ने स्कूटर को दायें बाएं ज़रा तीन चार लूप लगवा दिए. पीछे बैठा किशोर चिपक गया दीदी से. अब वह भी डर गया था.
अब दीदी की बारी थी, “हा हा हा हा हा. सूरज बाबू डर गया. हा हा हा हा हा.”
“ये बाबु क्या होता दीदी?”
सूरज वाक्य के अंत में  ‘है’ अक्सर नहीं कहता. बहन जानती है वो सोचता अंग्रेज़ी में है फिर मन ही मन उसका अनुवाद कर के पंजाबी मिश्रित हिंदी में बोलता है. मगर क्यूट लगता है.
हर बात अच्छे से समझ लेता है. और लगभग हर बात की तुलना अपने देश से करता रहता है.
“यहाँ बैग्स पेपर के हैं. वहां भी ऐसे ही होते . यहाँ बसें अच्छी . यहाँ सड़कें छोटी . यहाँ खाना ज़्यादा स्वादी .  यहाँ पे भी पिज़ा बार.  यहाँ सेब ज्यादा मीठे . यहाँ  मिठाई भोत  ही मीठी. यहाँ आइस क्रीम भी ज्यादा अच्छी .”
 यानी वो यहाँ आ कर खासा खुश है. बड़ी वजह तो ये है की उसे यहाँ स्कूल नहीं जाना होता. कोई बंदिश नहीं. पढ़ाई नहीं. और जहाँ जाता है मेहमान की तरह खातिरदारी हो रही है. इसलिए हर चीज़ सुहानी लग रही है.
डॉक्टर कहता है, “ जब हम वापिस जायेंगे तो इसकी बैंड बजेगी. रोयेगा . फिर कहता है इंडिया जाऊंगा.  पिछली बार भी इक महीने तक रोता था. कहता था  मैं इंडिया रहूँगा. माँ डैड,  तुम अमरीका क्यों गए?  फॉर रिचेस? बट आल योर ब्रोदेर्स एंड सिस्टर्स एंड थेइर चिल्ड्रेन आर रिच. सब तो अमीर हैगे. क्या तुम लोग गरीब थे?”
“माँ डैड चुप उसका मुंह देखते हैं.  डैड ने समझाया है कि वो एरोनौटिकल इंजिनियर थे जिसकी वहां कोई पूछ नहीं थी. अमरीका में हवाई जहाज़ इंडस्ट्री है. तो वहां पर उनको अच्छा काम और दाम दोनों मिला. तो अब कहता है अब तो आप बिज़नस करते हो. अब इंडिया चलो. मगर अब तो माँ का काम अमरीका में. वो  एनवायरनमेंट इंजिनियर हैं. भारत में माँ को कोई काम नहीं मिलेगा. और अब तो एक उम्र हो गयी. हम सब अमरीकी सिटीजन भी तो हैगे. अब इंडिया में कैसे रह सकते हैगे?”
किशोर सूरज दीदी के हवा में उड़ते बालों को छेड़ रहा है. “दीदी तू लडकी फिर भी तेरे बाल मेरे से भी छोटे.  हा हा हा हा हा हा.”
“ओये. तो तू क्या है छोटे? तेरे को सब तो लडकी बोलते हैं.” दीदी ने नहले पे दहला मारा तो चुप हो गया.
बहन समझ गयी ये मजाक उसे अच्छा नहीं लगा. वो खामोशी से स्कूटर चलाती रही. आगे-आगे बड़ा भाई डॉक्टर को पीछे बिठाए जा रहा था.कभी दोनों स्कूटर साथ-साथ हो लेते थे. वे लोग अब माइन को जाने वाली सड़क पर थे. यहाँ वाहन नहीं के बराबर थे. दिन के दस बज चुके थे. वे जब माइन के गेट पर पहुंचे तो उन्हें वहीं उतर कर अपने स्कूटर पार्क करने थे. तीनों बाहरी लोगों के आइडेंटिटी कार्ड बनवाये गए. और फिर उन्हें माइन की कार से अन्दर ले जाया गया.
माइन की सैर करने से पहले सभी को हेलमेट पहनने को दिए गए. जिनमें हेड लाइट लगी थी. चूँकि इंजिनियर खुद माइन मेनेजर है सो इन्हें उन दुर्गम स्थानों पर भी ले गया जहाँ आम आगंतुकों को नहीं ले जाया जाता.
 एक खुली शाफ़्ट में बेहद तेज़ चलने वाली वाली लिफ्ट में ये लोग तकरीबन पन्द्रह सौ फीट ज़मीन के अन्दर गए. जहां बेहद ठण्ड थी और कई तरह की गंध भी आ रही थी.  अन्दर एक पूरा शहर ही था. रेल गाडी की पटरियां जिन पर खुली वैन में खुदाई कर के निकाली गयी ‘ओर’ के बड़े-बड़े टुकड़े लिफ्ट्स तक ले जाये जा रहे थे. इंजिनियरों, कामगारों, मजदूरों, इलेक्ट्रीशियन, अन्य कर्मचारियों की टोलियाँ इधेर-उधर जाती हुयी मिल रही थीं.
एक जगह किशोर कुछ अधिक आगे बढ़ने लगा तो इंजिनियर ने चिल्ला कर उसे रुकने को कहा. और उसे सख्त हिदायत दी कि वह उन सब के साथ ही रहे. और फिर आगे ले जा कर उसे दिखाया कि जहाँ वह कदम रखने जा रहा था वहां एक गहरा गड्ढा था. बहन को माइन में ज्यादा दिलचस्पी नहीं हुयी. कुछ देर के बाद  वह ऊबने लगी तो इंजिनियर ने महसूस किया की दोनों भाई भी ऊबने लगे थे.  वह उन्हें जल्दी ही लिफ्ट से ले कर ऊपर आ गया. वे लोग ऊपर आ कर इंजिनियर के दफ्टर में बैठ गए.
हालाँकि उन्हें लग रहा था जैसे कुछ ही वक़्त हुआ है मगर दफ्तर की घड़ी दो बजा रही थी. याने वे लोग लगभग चार घंटे माइन में घूमते रहे थे. बड़ी-बड़ी मशीनें देखते. माइन के विभिन्न हिस्से देखते. अलग-अलग लिफ्टों पर ऊपर नीचे जाते हुए. याने माइन का पूरा-पूरा अनुभव.
घड़ी देख कर इंजिनियर भी चौंक गया.
“अरे बहुत देर लग गयी. मैं खाना मंगवा लूँ. ज़्यादा देर हो गयी तो कैंटीन से खाना नहीं मिलेगा. लास्ट आर्डर दो बजे लेते हैं.”
उसने किसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये बगैर फ़ौरन फ़ोन उठाया और कैंटीन का नंबर लगा कर कहा, “ सिंह बोल रहा हूँ. मेरे चैम्बर में चार थाली भिजवा दो. है न?”
उधर मेनेजर ही था, “जी सर . भिजवा रहा हूँ. बस टाइम से कह दिया आपने. मेस बंद ही होने वाली थी.”
“हां तभी पूछ भी रहा हूँ. कहीं बाहर से न मंगवाना पड़े. ढाबे का खाना तो तुम्हें पता ही है.”
“नहीं सर. ऐसी भी क्या बता है. हम लोग किसलिए हैं? अभी भिजवाता हूँ. मेहमान हैं?”
“हाँ! मेरे दो कजिन और मेरी छोटी बहन.”
“जी सर. अभी बस पांच मिनट में. आपके भाई बहन को मेरा नमस्कार कहिये सर.”
“ज़रूर.” कह कर इंजिनियर ने फ़ोन बंद कर दिया था.
अगला एक घंटा बातें करते हुए खाना खाने  में कब निकल गया पता ही नहीं लगा. खाने की चर्चा में और उसके बाद वहीं इंजिनियर के कमरे में केतली में पानी उबाल कर चाय कॉफ़ी बना कर पीने में खर्च हो गए.
खाने में मलाई पनीर, दाल मखनी, चावल और रोटी के अलावा पापड़ और अचार के साथ-साथ सलाद भी था. यानी पूरी तरह से भारतीय खाना. एक बार इंजिनियर को लगा कि किशोर शायद ये खाना न खा पाये. मगर जिस तन्मयता के साथ स्वाद ले-ले कर वह ये खाना खा रहा था. उसने आँखों ही आँखों में बहन को इशारा किया. बहन ने भी ये देखा था और आँखों में ही बड़े भाई को डपट भी दिया कि खाते हुए बच्चों को नज़र नहीं  लगाना चाहिए.
अपनी पूरी थाली ख़तम करने के बाद वह इत्मीनान से बैठा तो उसने देखा बहन की थाली में चावल और दाल अभी बचे हुए थे और वह खा नहीं रही थी.
“दीदी, तू नहीं खायेगी ये सब?” उसकी आँखों में लालच था.
“ना, मेरा पेट भर गया.” उसने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए अघाए स्वर में कहा था. उसकी आँखों में छोटे भाई के प्रति लाड भी था और साथ ही कुछ परिहास भी. समझ गयी थी कि भाई का पेट तो भर गया है नीयत अभी नहीं भरी.
“तू खायेगा? ले ले.” उसने अपनी थाली उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा था.
किशोर ने फ़ौरन थाली लपक ली थी. एक सम्मिलित ठहाका एक बार फिर कमरे में गूँज गया था.
डॉक्टर ने कहा था, “ सूरज को बड़ी भूख लगती है. माँ कहती है ये तो प्लेट भी खा जाये अगर इसके सामने और खाना न हो तो.”
सूरज ने प्रतिवाद में जीभ चिढ़ा कर बड़े भाई को देखा और चावल पर दाल डाल कर खाने में व्यस्त रहा. बहन समझ गयी थी वहां अमरीका में इस तरह ताज़ा भारतीय खाना नहीं मिलता उसे. यहाँ ये मसालेदार चटपटा खाना उसे भरपूर आनंद दे रहा है.
“खाते खाते भरे हुए मुंह को ज़रा विराम दे कर किशोर ने कहा, “यू नो दीदी? माँ डैड को ऐसा चटपटा खाना नहीं बनाना आता. मुझे सिखा दो आप. मैं तो बड़ा हो के न्यू जर्सी में इंडियन फ़ूड का रेस्तरा खोलूँगा. खुद  भी खाऊंगा और अमरीकियों को भी खिलऊंगा. वो तो पागल हो जायेंगे. ये इतना सवादी. यू पीपल आर लकी. मुझे तो वापिस न्यू जर्सी जाना ही नहीं.”
बहन ने जम कर ठहाका लगाया. डॉक्टर ने सर के किनारे पर अंगुली घुमाई कि देखो मेरा भाई पागल हो गया है.
प्रकट में बोला, “हां हां. मैं तेरे को छोड़ कर जाता. माँ को क्या बोलूँगा? और इंडिया इमीग्रेशन वाले तेरे को डिपोर्ट कर देंगे. तेरा वीसा ख़तम हो जायेगा तब.  यू आर नौट इंडियन मैन.”
“यह यह. आय नो मैन. बट व्हाई दिड माँ एंड डैड गो टू अमेरिका? आय वांट टू लिव हियर. “
“यू बेटर आस्क  देम व्हेन वी गो बेक होम. ओके?”
बात अब संजीदा और गंभीर हो चली थी. दो भाइ आपस में अपने-अपने मन की बात कह रहे थे. इंजिनियर और बहन खामोश ही रहे. वे समझ पा रहे थे किशोर की बात. वह अभी हर चीज़ को एक रोमांटिक चश्मे से देख रहा था. उसे शायद एहसास नहीं था कि उसके माता पिता ने तीस साल पहले जब अमरीका में जा कर बसने का फैसला किया था तब बहुत सोच-विचार के बाद ही किया होगा. बहरहाल वो अपने अमरीकी  नागरिक होने से बहुत खुश नहीं लग रहा था.
इंजिनियर ने बात का रुख मोड़ने के लिए कहा था, “खाना तो हो गया. अब चाय या काफी? मैं बनाऊंगा यहीं.  मेरे पास सारा इंतजाम है. और इस तरह एक घंटा बाद वे लोग खाना और कॉफ़ी से  निपट कर इत्मिनान से बैठी ही थे कि किशोर की नज़र इंजिनियर के दफ्तर के एक कोने में रखे पर्सनल कंप्यूटर पर पड़ गयी.
 सत्तर के दशक के इन सालों में कंप्यूटर अभी सभी जगह अपनी पैठ नहीं बना पाए थे. हालाँकि अमरीका में इनका उपयोग काफी हो रहा था लेकिन यहाँ भारत में उसे आये हुए लगभग एक महीना हो चुका था और उसने किसी भी घर में कंप्यूटर नहीं देखा था. यहाँ कंप्यूटर देख कर उसका मन ललचा गया.
“भाई, मैं खेलूँ? डू यू हैव गेम्स?”
इंजिनियर की आँखें चमक उठीं.
“हाँ यार. भोत सारी हैं. यू नेम इट एंड आय हैव इट. ”
इसके बाद तो चारों को वक़्त का कुछ पता ही नहीं चला. एक के बाद एक गेम ये लोग खेलते गए. सभी की फरमाईश का ध्यान रखा गया. सब से ज्यादा किशोर की. चूँकि सबसे छोटा तो चारों में यही था.
कुछ ऐसा समा बंधा कि तीनों व्यस्क भी सब कुछ भूल-भाल कर बचपन की गलियों में ही खो गए. यहाँ तक कि दो बार इंजिनियर के दफ्तर का चपड़ासी झाँक कर चला गया. इंजिनियर ने उसे घर चले जाने का आदेश दे दिया, ये कह कर कि वह खुद चौकीदार से कह कर ऑफिस में ताला लगवा लेगा.
उसके बाद किसी को कोई होश न रहा. बाहर की बत्तियां तक जल गयीं. एक बार उड़ती सी नज़र से बहन ने खिड़की से बाहर ये देखा और फिर भूल-भाल गयी. शाम तो गहराई ही मगर आगे बढ़ कर कब रात में तब्दील होने लगी कुछ पता ना लगा.
बीच बीच में चाय और कॉफ़ी के दौर चल रहे थे. दफ्तर में रखे बिस्किट के पैकेट एक के बाद एक खुल रहे थे. यानी भूख अगर उन्हें जागरूक बनाती भी तो उसकी सम्भावना भी सिरे से खतम कर दी गयी.
आखिर बहन ने ही घड़ी की तरफ नज़र घुमाई तो चौंक गयी.
“अरे नौ बज गए. अब हमें घर चलना चाहिए.”
“अरे हाँ यार बहुत देर हो गयी. रोजी भी परेशान होगी.” इंजिनियर ने फौरन कंप्यूटर को शट डाउन करने की कार्यवाही शुरू कर दी.
डॉक्टर भी उठ खड़ा हुआ.
किशोर ने बड़ी मायूसी से पूछा , “अच्छा, बस करना अब?”
“हाँ जी बेटा जी. बस करना है अब.” ये उसका बड़ा भाई था. जो समझदारी का परिचय अक्सर दे देता है. उसका दायित्व भी है और छोटे भाई की ज़िम्मेदारी भी तो है उसके कन्धों पर माँ डैड की अनुपथिति में.
इंजिनियर ने कंप्यूटर बंद करने के बाद फ़ोन की तरफ बढ़ते हुए कहा, “वैसे हैरत की बात है रोजी ने अब तक फ़ोन नहीं किया. अब तक तो उसके हज़ार काल आ जाने थे.”
 फ़ोन को देखते ही वो समझ गया और अपना माथा पीट लिया.
फ़ोन का रिसीवर क्रैडल से अलग रखा हुआ था. शायद कैंटीन में बात करने के बाद उसी ने बेख्याली में फ़ोन इस तरह रख दिया था. उधर से कोई फ़ोन करता भी तो वह लगातार एंगेज ही आता.
उसने फ़ौरन फ़ोन को ठीक से रख कर घर का नंबर डायल किया. उधर से वही हुया जिसकी उसे आशंका थी.
दो घंटियाँ बजी और रोजी का चिल्लाता हुआ स्वर उधर से सुनायी दिया, “तुम लोग हो कहाँ? पता है कि टाइम क्या हुआ है? हुआ क्या है? कहाँ रह गये हो? फ़ोन तक नहीं कर सकते थे ? पता नहीं यहाँ मेरी जान सूखी जा रही है. चारों के चारों गायब. कुछ हो गया तो मैं किस किस को को क्या क्या जवाब देती फिरूंगी?”
इंजिनियर ने आँखें मिचमिचाते हुए कहा,”डार्लिंग शांत शांत. यहीं ऑफिस में ही बैठे हैं. अब बस निकल रहे हैं. फ़ोन खराब था. इसलिए तुझे फ़ोन नहीं किया. खाना मत बनाना. बाहर चलेंगें डिनर के लिए.”
समझौते के तौर पर डिनर का पासा फेंका तो था इंजिनियर ने. जानता था घर पहुँचने पर उसकी अच्छी खातिरदारी होने वाली है. वो भी इन तीनों के सामने ही. जिन पर आज पूरे दिन में माइन मेनेजर होने का अच्छा-खासा रौब डाल लिया था. मगर ये चाल भी उल्टी ही पड़ गयी.
“तुम सोचते हो मैं नौ बजे तक खाना बिना बनाये बैठी हूँ? चुपचाप घर आओ और मेरा बना हुआ चिकन दो प्याज़ा खाओ. और हलुवा भी है. और पनीर पसंदा भी है. तुम चाहते हो ये दोनों अमरीका जा कर मेरी  बदनामी करें कि भाभी ने कुछ बना कर खिलाया नहीं?”उसकी आवाज़ में तुर्शी बरकरार थी.
“नहीं डार्लिंग. बस अभी पहुँचते हम सब तेरे पास.” ये कह कर उसने फ़ोन रखा और लपक कर चारों बाहर  निकल आये.
अब तक सभी समझ चुके थे कि घर जाकर इंजिनियर की पेशी होने वाली है. वाकई रोजी के साथ ज्यादती हो गयी थी. इनमें से किसी को भी ख्याल नहीं आया कि उसे बता दिया जाए कि देर हो रही है.  मगर इन्हें खुद भी कहाँ एहसास हुया था कि देर हो रही है. ये लोग तो गुम थे अपने खेल में.
इस बार भी स्कूटर पर बहन के पीछे किशोर ही था. इस बार सब चुपचाप थे. दोनों ड्राईवर तेज़ी से स्कूटर चला रहे थे. आधे घंटे में ही घर के बाहर दोनों स्कूटर लगा दिए गए थे. सामने दरवाजे पर रोजी किसी तरह खुद को संयत किये खड़ी थी.  मगर उसका चेहरा गुस्से से तमतमाया हुया था.
इंजिनियर ने आगे बढ़ते हुए कहा,” डार्लिंग यू लुक लवली टुडे.”
मगर रोजी ने उसकी तरफ देखा तक नहीं. वह तेज़ क़दमों से भीतर चली गयी. चारों दम साधे उसके पीछे-पीछे अन्दर दाखिल हुए.
दोनों भाई जल्दी से गेस्ट रूम की तरफ लपके. ताकि मियाँ बीवी के बीच हो रहे विवाद के साक्षी न बनना  पड़े. बहन भी बच्चे के कमरे की तरफ बढ़ ही रही था जहाँ उसके रहने का इंतजाम था कि रोजी ने उसे हाथ  बढ़ा कर रोक लिया.
“तू तो फ़ोन कर सकती थी. तू औरत है. तुझे मैंने इसीलिये साथ भेजा था कि तू इन सब का ख्याल रखेगी. नहीं तो तेरा क्या कम था माइन देखने का?  बड़ा भाई तो तेरा लापरवाह है ही. तू भी लापरवाह हो गयी? तेरी सारी पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नौकरी करने तक ही है आखिर. औरत होने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई तूने. मर्द लोग तो होते ही लापरवाह हैं. तू कैसे लापरवाह हो गयी? मुझे कितना क्लेश हुआ है तुझे पता भी है?”
बहन चुपचाप उसे देख रही थी. बड़ा भाई पास ही सोफे पर बैठा जूते खोल रहा था. कुकी सहमा हुआ पापा के पास ही बैठा रहा.
वो नहीं समझ पायी कि देर से आने की सारी ज़िम्मेदारी उसकी अकेली की कैसे हो गयी? मेज़बान तो बड़ा भाई था. मगर देख रही थी रोजी ने पति को आसानी से क्लीन चिट दे दी थी. इसलिए कि वो पति है या शायद इसलिए कि वो पुरुष है.
उधर मेज़ पर खाना लगाते हुए रोजी कह रही थी, “मैं अन्दर से बाहर जा रही थी. पागलों की तरह. दूध उबल कर बाहर तक बह गया. चावल उबल कर खिचडी बन गए. फ़ोन पर फ़ोन करते मैं पागल हो गयी.  तुम लोगों ने  मेरी कुछ परवाह नहीं की……….”
अब तक चार उपन्यास : 'हाफ मनू ', 'ठग लाइफ', 'राहबाज़' और 'इश्क फरामोश' प्रकाशित. दो कहानी संग्रह 'लेडीज आइलैंड' और 'मर्दानी आँख' प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अफसाना लिख रह हूँ' प्रकाशित. संपर्क - contact@pritpalkaur.in

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