रंजन, सुलेमान, महेश और मनजीत चारों दोस्त किसी सुनसान जगह पर बनी टूटी-फूटी झोपड़ी के बाहर आकर.रुक गये।चारों दो बाइक पर आये थे। बाइकेंं एक ओर खड़ी करके चारों उस झोपड़ी के पास ही किसी विषय को लेकर मंत्रणा कर रहे थे।
तीन दोस्तों ने आंखों के संकेत से महेश को झोपड़ी के अंदर जाने को.कहा। थोड़ी बहुत ना नुकुर कै बाद वह अंदर जाने को राजी हो गया।
अंदर जाने पर.उसने जिस युवती को देखा,उसके दोनों हाथ बंधे थे ।मुहं कपड़े से सील.किया हुआ था। दुप्पटे के दोनों छोर गर्दन को लपेटते हुए पीछे की दीवार पर लगी खूंटी से बंधे हुए थे।
युवती विवश दृष्टि से याचना कर रही थी। कुछ बोलने की कोशिश भी करना चाह रही थी। महेश कुछ पल रुककर पीछे की खिड़की से कूदकर बाहर निकल गया।
पंद्रह बीस.मिनिट के बाद.भी जब महेश नहीं लोटा तो सुलेमान को अंदर भेजा गया।उसे अंदर के सुनियोजित दृश्य मे कोई परिवर्तन नहीं दिखा । “बेवकूफ कहीं का। ” वह बड़बड़ाया।। ..हाथ लगा मौका गंवाकर भाग गया।
इतने में सुलेमान की निगा़ह युवती की देह पर पड़े एक मुड़ेतुड़ेत्रकाग़ज के टुकड़े पर जा टिकी। सुलेमान ने उसे खोलकर सीधा किया। उस पर लिखे को पढ़ा…।
“मैं फ़ांंसी नहीं चढ़ना चाहता। कुछ क्षणों का सुख और उसकी इतनी बड़ी. कीमत देना सरासर बेवकूफी है।” सुलेमान के सामने मामला एकदम साफ था।
काफी़ समय बाद जब महेश और सुलेमान बाहर नहीं. आए तो बाहर इंतजार कर रहे रंजन और मनजीत मुस्कराए….
“साले दोनों”
दोनों एकसाथ अंदर गये ।वही कागज़ का टुकड़ा खुलकर युवती के चेहरे पर पहरा दे रहा था। मनजीत.ने उसे उठाया और दोनों ने एकसाथ पढ़ा। न जाने क्या सोचकर दोनों बाहर आ गये। …मामले की गम्भीरता ने दोनों कीऔखें खोल दी। उनके सामने कल के अखबार में छपा समाचार आ गया।
“उच्चतम न्यायालय ने निर्भया के बलात्कारियों और कातिलों को उच्च .न्यायालय से मिली फांसी की सजा बरकरार रखी।”