Saturday, July 27, 2024
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नरेंद्र कौर छाबड़ा की लघुकथा – कुलदीपक

पति पत्नी छुट्टियों में पहाड़ी स्थल पर घूमने निकले।शाम के समय झील के किनारे टहल रहे थे तभी एक वृद्धा हाथ में कंघियों का बंडल लेकर आई और आग्रह करते हुए बोली—“मैडम जी, यह कंघी सिर्फ बीस रुपए की है लेकिन बहुत टिकाऊ है ले लीजिए ना……”
पत्नी ने कोई रुचि नहीं दिखाई और मुंह दूसरी तरफ कर लिया। वृद्धा फिर चिरौरी करती बोली – “ले लो ना आज सवेरे से एक कंघी भी नहीं बिकी…..”
पत्नी कुछ चिढ़कर बोली- “तो मैं क्या करूं…? मुझे नहीं चाहिए, मेरे पास बहुत कंघियां हैं…”
वृद्धा रूआंसी हो गई- “ मैडम जी, रोज के पचास रुपए बहू बेटे को देती हूं तब तो एक वक्त का खाना मिलता है। आज एक कंघी भी नहीं बिकी लगता है आज भूखे ही सोना पड़ेगा…” उसकी आंखें डबडबा आई थी।
पत्नी का दिल पसीज गया कुछ नाराजगी से बोली—“तुम्हारे बेटा बहू बड़े  निर्दयी हैं। इस उम्र में तुम्हें धक्के खाने के लिए छोड़ दिया उन्हें शर्म नहीं आती...?”
वृद्धा बीच में ही बात काटते हुए आवेश से बोली – “मैडम, कंघी नहीं लेनी तो मत लो लेकिन मेरे बेटे को बुरा भला मत कहो। एक ही तो बेटा है मेरा। मेरे बुढ़ापे का सहारा और मेरी चिता को अग्नि भी तो वही देगा ना…..” बेटे की मां होने के गर्व के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहे थे।
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1 टिप्पणी

  1. कुलदीपक लघुकथा में छाबड़ा जी ने भारतीय जनमानस में अब तक बैठे भ्रम को स्वर दिया है। अच्छी

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