“प्रेम हमें एक अंधेरी गहरी सुरंग में धकेल देता है,” मैंने कहा तो उसने मेरी ओर देखा।
मैंने उसकी ओर पीठ करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाई, “एक ऐसी सुरंग जिसका सिर्फ एक ही एग्जिट होता है। आप घिसटते हुए वहाँ तक पहुँच भी जाओ तो उस एग्जिट पर एक बहुत बड़ा पत्थर लगा मिलेगा जिसे हटाने की न तो आप में ताकत होती है और न ही हिम्मत…”
वह शायद अभी-भी मुझे देख रहा था। उसकी तरल आँखें मुझे अपनी पीठ पर महसूस हो रही थीं लेकिन…. मैंने पलट कर देखना मुनासिब न समझा। मैं उठी और चलती चली गई, कभी वापस न आने के लिए।
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स्विट्जरलैंड की ठंडी गलियों में बैगपाइपर बजाता हुआ मिला था वह मुझे। ठंड हड्डियाँ जमा रही थी। तापमान माइनस में था। अभी-अभी बर्फ गिरी थी। सड़कें, पार्क, पेड़ सब सफेद हो गए थे। ऐसे में भी वह एक कोने में बैठा बैगपाइपर बजा रहा था।
मैंने उसे आश्चर्य से देखा, “इस मौसम में तो कोई इसका गाना सुनने भी न आएगा!” मैं सोच ही रही थी कि उसकी नज़र मुझसे टकराई। वह मुस्कुराया। उसकी आँखों में कुछ था जिसने मुझे बांध लिया था। मुझे लगा जैसे मैं उसे ही सुनने आज इस बर्फानी ठंड में बाहर आई हूँ। मेरी ही तरह कुछ और लोग, जो किसी जरूरी काम से बाहर निकले होंगे, वहाँ रुक कर उसे सुन रहे थे।
कुछ लोगों ने उसके सामने फैले ओवरकोट पर सिक्के डाले तो मैंने भी अपनी जेब से एक सिक्का निकाला…”हं करेंसी… क्या यह करेंसी सब खरीद सकती है? किसी का प्यार भी?” यह सोचकर मैंने सिक्का उसकी ओर उछाला ही था कि उसने उसे हवा में ही पकड़कर अपनी मुट्ठी में भींच लिया। वह फिर मुस्कुराया और वहाँ पड़े सिक्के समेटता हुआ अपना ओवरकोट पहन वहाँ से चला गया।
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वह एक स्टूडेंट था। जर्मनी से स्विट्जरलैंड पढ़ने आया था। यूरोप में एक खास बात रही है कि अपनी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए यहाँ स्टूडेंट्स अक्सर शाम के समय वायलिन, गिटार, बैगपाइपर बजाकर या अपनी किसी और कला का प्रदर्शन करके पैसे इकट्ठे करते हैं। वह भी उनमें से ही एक था।
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एक शाम जब मैं अपने घर के सामने पड़ी बर्फ साफ कर रही थी तो वही बैगपाइपर की धुन मेरे कानों में पड़ी। मैं बेचैन हो इधर-उधर देखने लगी। सामने के धुंधलके से वह आता हुआ दिखाई दिया। वह मेरी ओर ही आ रहा था। मेरे घर के बाउंड्री पर आकर उसने जर्मन में कुछ कहा। मैं कुछ समझ न सकी। लेकिन उसकी आँखों के भाव कुछ ऐसे थे जिन्हें शब्दों की जरूरत ही नहीं थी। या मुझे ऐसा लगा था शायद… वह मुस्कुराया और चला गया। मैं उसे जाते देखती रही।
कई बार कुछ लम्हे एक ही जगह ठहर जाते हैं और समय आगे निकल जाता है। वह लम्हा भी कुछ वैसा ही था जो मेरी बाउंड्री पर पड़ी बर्फ में कहीं अंदर तक धंस कर ठहर गया था।
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“मैं कोई 16-17 साल की लड़की तो हूँ नहीं फिर यह अभी-अभी जवान हुआ लड़का मुझसे क्या चाहता है भला? क्यों मेरे घर के चक्कर काटता है?” यह ख्याल मेरे मन में कई बार आया। मैं उम्र के उस पड़ाव पर थी जिसे न तो जवानी कहा जा सकता था और न ही बुढ़ापा। लेकिन इस लड़के को देखकर मेरे दिल में… हलचल जरूर हुई थी।
मैंने अपने दिल को धमकाया भी था लेकिन दिल कहाँ मानता है। इसकी इस मनमानी के कारण ही आज मैं अकेली हूँ। नितांत अकेली। जिसे अपना कह सकूँ ऐसा कोई भी नही है मेरे पास। जब-जब मैंने किसी को गले लगाना चाहा तब-तब धोखा ही खाया है।
लेकिन इस लड़के में एक अलग-सी कशिश थी जिसने इस उम्र में भी मुझे बदल-सा दिया था। अकेले रहते-रहते, मैं नागफनी-सी हो गई थी लेकिन इसके क्षणिक साथ ने मुझे फिर गुलमोहर कर दिया था।
“यह क्या करने जा रही है तू! बच्चा है वह तेरे सामने। तुझसे आधी उम्र का होगा…” मेरे दिमाग ने मुझे चेताया।
“मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूँ…” मैंने जवाब दिया। तभी बाउंड्री का गेट खुला और वह अंदर दाखिल हुआ।
“ओह! तो आज घर में दाखिल होने की हिम्मत जुटा ही ली लड़के ने,” मेरे चेहरे पर हँसी खेल गयी। मैंने अपने दिल को कसकर थाम लिया और आगे बढ़ी लेकिन….वहाँ तो कोई न था। मैं मुस्कुरा दी, “कैसे-कैसे खेल खेलता है यह दिल भी….”
मैं आईने के सामने जाकर बैठ गई। आज कई सालों बाद ड्रेसिंग टेबल की धूल साफ की। खुद को आईने में निहारा। “नॉट बैड…” मेरे चेहरे पर फिर हँसी खेल गयी। अभी-भी मेरी खुबसूरती में कमी नही आई थी। हाँ… बालों में कहीं-कहीं हल्की सफेदी जरूर छा गयी थी लेकिन मैंने उसे अपने काले बालों की लट से छुपाया कि तभी….. मैंने फिर उसे देखा। वह मेरे सामने खड़े आईने में से झांक रहा था। मेरे मन को पंख लग गए। अब मैं खुले आसमान में उड़ना चाहती थी, फूलों को अपने बालों में सजाना चाहती थी, हँसना चाहती थी, गुनगुनाना चाहती थी….
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फिर… हम मिले… कई बार। ठंडी बर्फीली हवाओं में, कभी घर की बाउंड्री पर, कभी बाजार में, कभी…. हम मिले और बहुत बार मिले। धीरे-धीरे मैं उसके करीब होती चली गई तो वह खुलता चला गया लेकिन…. शायद पूरा न खुल सका।
वह मुझे जर्मन सिखाता और मैं उसे हिंदी। हम दोनों एक दूसरे की भाषा न समझ पाते न बोल पाते लेकिन एक डोर हम दोनों के बीच बंध गई थी। धीरे-धीरे हमने भाषाओं की दीवार भी गिरा दी।
अब वह अक्सर मेरे घर आ जाया करता और मैं उसकी पसंद का खाना बनाकर उसे खिलाती। धीरे-धीरे मैंने जर्मन खाना बनाना सीख लिया था और उसने हिंदुस्तानी खाना खाना। अब वह तरह-तरह की डिशेस की मुझसे फरमाइश करने लगा और मैं… खुशी-खुशी उसकी फरमाइशों का खाना बनाने लगी।
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जब बाहर बर्फ गिरती तो वह होस्टल जाने के बजाय मेरे घर के बरामदे में बने फायरप्लेस के सामने आ बैठता। उसे एक ही समय में सर्दी और गर्मी, दोनों चाहिए होती। उसकी इस अजीबोगरीब पसंद को पूरा करने के लिए ही मैंने बरामदे में वह फायरप्लेस बनवाया था। मैं भी उसके साथ बैठ आग सेंकती। लेकिन उसके पास बैठे होने के एहसास से ही मैं सुलग उठती।
आग सेंकते जब उसे नींद आती तो वह मेरी गोद में सर रख सो जाता। उसका वह स्पर्श मुझे महका जाता। मैं घण्टों उसके सुनहरे घुंघराले बाल सहलाया करती।
लेकिन….हमारे बीच इससे ज्यादा कभी कुछ हुआ ही नहीं …. न वह आगे बढ़ा और न ही मैं। वह अपने दायरे में कैद रहा और मैं अपने।
मुझे उसका साथ बहुत अच्छा लगता लेकिन धीरे-धीरे मुझे हमारे बीच उम्र का फासला सालने लगा। मुझे अपने बालों की सफेदी नजर आती और उसके सुनहरे घुंघराले बाल मेरी आँखों के सामने घूम जाते। धीरे-धीरे मैं उससे कतराने लगी।
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आज उसे छोड़कर जाते समय मैंने यह भी कह दिया कि, “तुम मेरे लिए नहीं बने हो। हमारा अब तक का साथ मेरे किसी पिछले जन्म के अच्छे कर्म का फल था शायद…”
वह मेरी कही बात कितनी समझा कितनी नही… पता नही लेकिन उसे छोड़ना जरूरी था ताकि वह अपना सच्चा प्यार पा सके, सिर्फ देह का आकर्षण नहीं और मैं… मेरा क्या था। पहले भी अकेली थी, आगे भी अकेली रह लूँगी।
उसे मुक्त कर दिया था मैंने। मैं अपने इस बिन मांगे बलिदान पर खुश थी। उसे छोड़ने के बाद पूरा दिन गलियों की खाक छानने के बाद मैं घर वापस आई। अपना पर्स जमीन पर फेंक थकी-सी सोफे पर लेट गई।
बाहर सर्द हवाएँ चल रही थीं। खिड़की थोड़ी-सी खुली रह गयी थी शायद। उस झिर्री से आती हवा से मेज पर रखा एक कागज बड़ी देर से फड़फड़ा रहा था। लेकिन मेरा न खिड़की बन्द करने का मन हुआ और न ही उठकर उस कागज को देखने का। मैं यूँ ही बेतरतीब-सी सोफे पर पड़ी रही।
यह पहली बार तो हुआ नही था मेरे साथ। लेकिन इसमें दर्द के साथ सुकून भी था क्योंकि इस बार कोई… मुझे छोड़कर नही गया था बल्कि मैंने खुद उसे उसके अच्छे के लिए छोड़ा था।
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वह कागज अभी-भी मेज पर फड़फड़ा रहा था। दो-तीन दिन बाद जब मन सम्भला तो उस पर दोबारा नजर पड़ी।
अपने दाएं हाथ में पकड़ा वाइन का ग्लास बाएं हाथ मे पकड़ते हुए मैंने वह कागज उठा लिया। उस पर एक अनजान लिखावट थी लेकिन उसकी खुशबू मैंने पहचान ली थी।
“यह कागज वह कब रख गया होगा? हम्म…शायद उसी दिन जब मैं उससे आखिरी बार मिली थी…” कहते हुए मैंने उस कागज पर लिखा पढ़ने के लिए चश्मा लगाया।
कागज पर सिर्फ दो ही पंक्तियाँ लिखी थीं –
‘हो सके… तो कभी मेरी माँ से मिलियेगा। एकदम आप-सी ही है…”
……..
……
मेरे हाथ मे पकड़ा ग्लास जमीन पर गिर टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसकी किरचों में उभरे अपने ही अक्स को देखने की मुझमें अब न तो ताकत थी और न ही हिम्मत…..
अत्यंत सुन्दर रचना..!