फिल्‍मों में खलनायक का पर्याय बने अभिनेता अमरीश पुरी ने कई यादगार किरदार निभाए हैं। और आज उनकी 89 वीं जयंती है। जन्म हुआ नवांशहर जलंधर पंजाब की धरती पर साल था 1932 लेकिन फिल्मों की तरह ही जीवन से जुड़े किस्से भी रोचक रहे। 40 साल की उम्र में बॉलीवुड में फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ से डेब्यू किया। जिसके बाद अपने पूरे करियर में 450 से ज्यादा फिल्में की। पिछले दिनों एक फ़िल्म देखी थी ‘कामयाब… उम्मीदों के किस्से’ हालांकि उस फिल्म की कहानी जैसा जीवन तो नहीं रहा अमरीश का लेकिन उस फ़िल्म की कहानी की तरह ही वे हमें डायलॉग जरूर दे गए फिर वो ‘दिलजले’ हो या ‘मोगैंबो’।
अमरीश पुरी ने फिल्मों में हीरो बनने के लिए जो स्क्रीन टेस्ट दिया था वे उसे पास नहीं कर पाए थे। इस बात से निराश हो उन्होंने मिनिस्ट्री ऑफ लेबर में काम किया। इसी दौरान उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग और फिल्मी पर्दे पर विलेन के रुप में काम करना भी शुुरू किया। कुछ फिल्‍मों में सकारात्मक भूमिकाएं भी अदा की। दमदार और रौबदार आवाज के मालिक अमरीश पुरी के शानदार अभिनय को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 12 जनवरी 2005 को दुनिया को अलविदा कहने वाले इस शानदार अभिनेता ने इंडस्ट्री में एक लंबा समय बिताया।

उनके कुछ किरदार अमर हो गए जैसे फिल्‍म ‘नगीना’ में तांत्रिक बाबा भैरोनाथ का किरदार फिल्‍म की जान बन गया। नागमणि में उनके गेटअप ने एक अलग ही मैनरिज्‍म क्रिएट किया। इसके अलावा मिस्‍टर इंडिया में मोगैंबो का किरदार बच्‍चे से लेकर बूढ़े तक को याद है आज भी। ‘मोगैबो खुश हुआ’ डायलॉग हर किसी की जुबान पर आज भी चढ़ा हुआ है। आज भी लोग इस डायलॉग को बोलते हुए सुने जाते हैं। यह किरदार अमरीश को हमेशा के लिए लोगों के दिलों में जिंदा तथा सिनेमा के इतिहास में अमर कर गया।
फिल्‍म तहलका में अपने एक अलग देश ‘डांगरीला’ बसाकर जुल्‍म और अत्‍याचार की इंतहा करने वाला संगीत प्रेमी जनरल डॉग के किरदार को कौन भूल सकता है। एक अन्य फ़िल्म जो दो दोस्‍तों की कहानी पर आधारित थी और नाम था ‘सौदागर’ , में दोस्‍त वीर और राजेश्‍वर के बीच झगड़ा कराने वाले चुनिया मामा के किरदार को भी शायद ही कोई भूल पाया हो। शकुनी मामा जैसे इस किरदार में अपने अभिनय से जान डालने वाले इस विलेन ने फिल्‍म ‘दामिनी’ में गुस्‍सैल और चीखने-चिल्‍लाने वाले बैरिस्‍टर इंद्रजीत चड्ढा का किरदार  निभाया जो उस जमाने के हर सिने फैन को अभी तक याद होगा। इस किरदार में अमरीश लीड एक्‍टर सनी देओल से कहीं भी कमतर नजर नहीं आए थे।
अमरीश ने पॉजिटिव यानी सकारात्मक किरदार भी निभाए। फिल्‍म ‘दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे’ जो करीबन 20 साल तक मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा में चलती रही, में एक कड़क पिता चौधरी बलदेव सिंह के किरदार में उनके अभिनय को खूब सराहना मिली। इस किरदार में उनका ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी’ डायलॉग आज तक लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है। हालांकि इस फ़िल्म को मैंने कई बार टीवी पर आते हुए देखा था। लेकिन हर बार रिमोट से चैनल बदल देता या कमरे से बाहर चला जाता था। कारण बस एक था किसी दिन मुंबई जाना होगा तो ट्रेन से ही सफ़र किया जाएगा। उसी समय यह फ़िल्म देखूँगा नहीं तो नहीं और यह छोटी सी ख्वाहिश पूरी हुई थी साल 2017 के मध्य में।
ख़ैर इसी तरह फिल्‍म ‘परदेस’ में किशोरी लाल का किरदार भी कुछ ऐसा ही था। किशोरी लाल अपने बेटे की गलतियों पर पर्दा जरूर डालता है, लेकिन किसी की खुशियों की कीमत पर नहीं। इस किरदार को भी काफी सराहा गया था।

फिल्‍म ‘कोयला’ के राजा साहब भी बॉलीवुड के खतरनाक खलनायकों में आज भी गिने जाते हैं। ‘ग़दर’ आह इस फिल्‍म को भी शायद ही कोई भूल पाया होगा। फिल्‍म गदर में जितनी सराहना सनी देओल के दमदार डायलॉग्‍स को मिली, उससे कम सराहना अशरफ अली के किरदार में अमरीश पुरी को भी नहीं मिली। और इन दोनों के चलते ही मुक्कमल फ़िल्म बनी ‘ग़दर एक प्रेम कथा’। साल 2001 में आई फिल्‍म ‘नायक’ सोशल-पॉलिटिकल फिल्‍म थी। इसमें भी अमरीश नेगेटिव रोल में थे और मुख्‍यमंत्री बलराज चौहान का किरदार निभाया था। इस किरदार में भी उन्होंने खूब तारीफ बटोरी।
फिल्मों में आने से पहले अमरीश की दिली ख्वाहिश थी कि वे एक हीरो बने। इसके लिए उन्होंने एक  ऑडिशन भी दिया लेकिन साल 1954 में तब उन्हें एक प्रोड्यूसर ने उनको ये कहते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया कि उनका चेहरा बड़ा पथरीला सा है। वे निराश जरूर हुए लेकिन हार नहीं माने और रुख किया रंगमंच का। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के रूप में हिंदी रंगमंच को जिंदा करने वाले इब्राहीम अल्क़ाज़ी 1961 में उनको थिएटर में लाए।  कभी बंबई में कर्मचारी राज्य बीमा निगम में नौकरी कर रहा यह शख़्स थिएटर में सक्रिय हो गया। रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के सहायक बने लेकिन छोटे कद के इस आदमी से सीखना उन्हें अजीब लगता  लेकिन बाद में वही उनका गुरु बना और अमरीश ने भी उन्हें पूरा सम्मान दिया।
कर्मचारी राज्य बीमा निगम की अपनी करीब बीस साल से ज़्यादा की सरकारी नौकरी छोड़ देने वाला शख़्स उस वक़्त ए ग्रेड के अफसर थे। हालांकि वे नौकरी बहुत पहले छोड़ देना चाहते थे लेकिन गुरु सत्यदेव दुबे के कहने पर उन्होंने
नौकरी नहीं छोड़ी। सत्यदेव ने कहा था कि जब तक फिल्मों में अच्छे रोल नहीं मिलते वे ऐसा न करें। आखिरकार डायरेक्टर सुखदेव ने उन्हें एक नाटक के दौरान देखा और अपनी फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में एक सहृदय ग्रामीण मुस्लिम किरदार के लिए कास्ट कर लिया। तब वे करीबन चालीस साल के थे। और किसने सोचा था कि एक दिन फिल्मी दुनिया में आने के लिए संघर्ष करने वाला यह इंसान खलनायिकी के लिए ही सबसे ज़्यादा रक़म वसूल करने वाला अभिनेता बनेगा तथा अपनी मनपसंद के मुताबिक फ़िल्म करेगा। उनकी आखिरी फ़िल्म साल 2005 में आई सुभाष घई की  ‘किसना- दी वरियर पोएट’ थी।
अमरीश पुरी ने सत्तर के दशक में कई अच्छी फिल्में की।  सार्थक सिनेमा के अलावा कमर्शियल सिनेमा में भी उनका मुकाम जबरदस्त रहा। विधाता फ़िल्म के बाद घई की ही फ़िल्म ‘हीरो’ के बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। हालात यहां तक हो गए कि कोई भी बड़ी कमर्शियल फिल्म बिना अमरीश पुरी को विलेन लिए नहीं बनती थी।
सिनेमा में हर खलनायक का अपना स्टाइल, गैटअप, संवाद अदायगी का तरीका रहा है और वह उसी स्टाइल की बदौलत दर्शकों के दिलो-दिमाग पर तब तक राज करता रहा है जब तक कि नए विलेन ने आकर अपनी लम्बी लकीर न खींच दी हो।  के.एन.सिंह, प्रेमनाथ, प्राण, अमजद खान से शुरू हुआ यह सिलसिला अमरीश पुरी पर आकर ठहर सा गया था। इन हस्तियों ने खलनायक के स्तरीय एवं बहुआयामी चेहरे समाज एवं सिनेमा के सामने प्रस्तुत किए, जो आज भी हिन्दी सिनेमा में मानक माने जाते हैं।
ऊंची कद-काठी और बुलंद आवाज के मालिक अमरीश इन सबसे आगे निकल गए और उनकी गोल घूमती आंखें सामने खड़े व्यक्ति के भीतर आज भी दहशत पैदा करने का माद्दा रखती है। यही कारण है कि उनकी फिल्में आकर चली जाती थीं, मगर उनका किरदार दर्शकों को बरसों तक याद रह जाता था। अमरीश पुरी अक्सर कहा करते थे कि वे ‘लवेबल-विलेन’ हैं। जब अमरीश पुरी ने अपने आप को विलेन के अवतार में ब्रांड बना लिया तो हॉलीवुड के बेताज बादशाह स्टीवन स्पीलबर्ग ने अपनी फिल्म ‘इण्डियाना जोंस एंड द टेम्पल ऑफ डूम’ (1984) में उन्हें मुख्य विलेन की भूमिका के लिए भी ऑफर दिया। अमरीश ने स्पीलबर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप काम भी किया और इससे उनकी पहचान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। इसके बाद हॉलीवुड फिल्मों के कई ऑफर उन्हें मिले, मगर भारत में रहकर जो रोल मिले उन्हें करना ही उन्होंने अधिक मुनासिब समझा।
अमरीश पुरी अपने समकालीन खलनायकों को अक्सर ‘चॉकलेट बॉयज’ कहकर बुलाते थे। उनके जैसे बहुआयामी अभिनेता को दिग्गज फिल्मकार श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, शेखर कपूर, सुभाष घई, प्रियदर्शन, राकेश रोशन, राजकुमार संतोषी मिले, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को परखा और उन्हें संतुष्टि करते हुए उनकी पसंद के रोल उन्हें दिए। एक दौर था जब अमरीश पुरी की अभिनय क्षमता से उनके साथ काम करने वाले हीरो तक भी घबराते थे क्योंकि उनका मानना था कि फिल्म के तमाम सीन तो यह चुरा कर ले जाएगा। फिल्मी दुनिया का विलेन कैंसर की बीमारी की वजह से 12 जनवरी 2005 को यह दुनिया छोड़कर चला गया। उनके जाने के बाद सिनेमा को दूसरा वैसा दमदार खलनायक आज तक नहीं मिल पाया है।
 रंगमंच में योगदान के लिए उन्हें 1979 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिया गया, जो उनके अभिनय कॅरियर का पहला बड़ा पुरस्कार था। अमरीश पुरी ने हिंदी के अलावा कन्नड़, पंजाबी, मलयालम, तेलुगू और तमिल फिल्मों तथा हॉलीवुड फिल्म में भी काम किया। उनके फिल्मी करियर में अभिनय से सजी कुछ मशहूर फिल्मों में ‘निशांत’, ‘गांधी’, ‘कुली’, ‘नगीना’, ‘राम लखन’, ‘त्रिदेव’, ‘फूल और कांटे’, ‘विश्वात्मा’, ‘दामिनी’, ‘करण अर्जुन’, ‘कोयला’ आदि शामिल हैं।  इंटरनेशनल फिल्‍म ‘गांधी’ में ‘खान’ की भूमिका निभाई जिसके लिए भी उनकी खूब तारीफ हुई थी।

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