है अपना दिल तो आवारा… प्यार की तलाश करता, पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले… प्यार की गुजारिश करता, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब….प्यार की परिभाषा बताता, और राम का नाम बदनाम ना करो… परिवार के प्यार से वंचित चरस-गांजे के नशे में डूबे युवाओं को जीवन धारा में वापस लौटने का संदेश देता…  शायद ही कोई फिल्म और सिनेमा का दीवाना होगा, जिसके ऊपर, खूबसूरत चेहरे, मस्त अंदाज और जल्दी- जल्दी डायलॉग बोलने की अलहदा शैली के धनी चिरयुवा अभिनेता देवानंद का जादू सर चढ़ के ना बोला हो l भारतीय सिनेमा के एवरग्रीन लेजेंड, जो आज भी अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज करते हैं, के बारे में कहा जाता है कि अपनी जवानी के दिनों में लड़कियाँ उनकी इस कदर दीवानी थीं कि उनकी एक झलक पाने को बेचैन रहती थीं l
साल 1958 में देवानंद साहब की फिल्म ‘काला पानी’ आई थी। इस मूवी में सफेद शर्ट और काला कोट पहना था।  कहा तो ये भी जाता है कि जब वो सफेद कमीज के साथ  काला सूट पहनकर निकलते थे तब लड़कियाँ उन्हें देखने के लिए छत से कूद जाती थीं l इस कारण कोर्ट को इस मामले में दखल करना पड़ा और उन पर सफेद कमीज के साथ काला सूट पहनने पर रोक लगाई गई थीl 

बॉलीवुड में ये पहला मौका था जब कोर्ट के किसी फिल्म स्टार के पहनावे पर दखलअंदाजी की हो और बैन ही लगा दिया हो। सुनने में ये भी आता है कि इस घटना से देवानंद जी भी बहुत विचलित हुए थे और वो रोए भी थे, कुछ समय का विराम भी लिया पर उनकी दीवानगी कम ना हुई, बल्कि दिनों दिन बढ़ती रही l यही कारण है कि वर्तमान और भविष्य में जीने वाले स्वप्नदृष्टा देवानंद की सौवीं जयंती जोर शोर से मनाई जा रही हैं l  इसी क्रम में आज हम देश में टोपी और मफ़लर का ट्रेंड स्थापित करने वाले देवानंद की समृद्ध अनुभवों से भरी जीवन यात्रा के सहयात्री बनेंगेl 
गुरुदासपुर का धर्मदेव आनंद 
“लिखा है तेरी आँखों में किसका अफसाना”
अपने अंतिम समय तक अपनी कल्पना के आलोक से सिल्वर स्क्रीन को जगमगाने वाले भारतीय सिनेमा के बहुत ही सफल कलाकार, निर्देशक और फ़िल्म निर्माता देवानंद का जन्म 26 सितम्बर 1923 में गुरदासपुर (जो अब नारोवाल जिला, पकिस्तान में है) में हुआ था l उनका असली नाम धर्मदेव आनंद था l उनके पिता किशोरीमल आनंद पेशे से वकील थे। वे अपने माता-पिता के नौ बच्चों में पांचवी संतान थे। देव आनंद के भाई, चेतन आनंद और विजय आनंद भी भारतीय सिनेमा में सफल निर्देशक थे। उनकी बहन शील कांता कपूर प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक शेखर कपूर की माँ है। देवानंद की शुरुआती शिक्षा डलहौजी के “सेक्रेड हार्ट स्कूल” में हुई और बी. ऐ. उन्होंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से किया l
जब पहली बार देखा था अशोक कुमार को 
“ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत कौन हो तुम बतलाओ”
“होनहार बिरवान के होत चीकने पात” बचपन से ही देवानंद में अपने शौक के प्रति जुनून दिखने लगा था l कहा जाता है कि देव आनंद को बचपन में दो चीजों का बहुत शौक था फिल्में देखना, फिल्मी पत्रिकाएं और स्टैम्प जमा करना l सस्ती होने के कारण वो रद्दी की दुकान से पत्रिकायेँ लाकर पढ़ा करते थे। रोज पत्रिका खरीद कर लाने से दुकानदार से भी उनकी दोस्ती हो गई थी, वो उन्हें ना सिर्फ नई -नई जानकारी देता बल्कि रोज देव आनंद के लिए पत्रिका छांटकर अलग से रख देता और कभी-कभी मुफ्त में भी दे देता था। उन्हें उस पत्रिका वाले ने एक बार उन्हें बताया कि अशोक कुमार गुरदासपुर आ रहे हैं l अपने सबसे पसंदीदा कलाकार की एक झलक पाने का अवसर भला वो कैसे छोड़ सकते थे l भारी भीड़ में वो अशोक कुमार को देखने के लिए बहुत देर तक खड़े रहे l जहाँ और लोग अशोक कुमार का ऑटोग्राफ लेने के लिए उतावले हो रहे थे वो तो जैसे जड़वत हो गए l वो बस उन्हें दूर खड़े देखते रहे… देखते रहे l जैसे  भक्त के सामने स्वयं भगवान आ गए हों l प्रेम की उच्च अवस्था में अक्सर ही शब्द मौन हो जाते हैं l   
वहीं उनके दूसरे शौक स्टैम्प  जमा करने की बात है तो उसके लिए तो उसका नशा भी उनके सर चढ़ कर बोलता था, कभी -कभी अपने दोस्तों से हाथापाई भी हो जाती तो कभी उनको अपना लंच भी खिला कर मनपसंद स्टैम्प हासिल कर लेतेl उनके पास देश-विदेश के स्टैम्प का एक बड़ा कलेक्शन था l 

जब जीवन स्वयं फिल्मों की ओर खींच रहा था 
“माना जनाब ने पुकार नहीं”
कहते हैं कि जब भगवान एक दरवाज़ा बंद करते हैं तो कहीं एक खिड़की खोल देते हैं l वहीं यह भी सच है कि कई बार भगवान हर दरवाजा बंद कर देते हैं, ताकि व्यक्ति एक खास दिशा में ही आगे बढ़ सके l जिसे हम असफलता कहते हैं उसे भगवान, ईश्वर प्रकृति द्वारा अपने चयनित मार्ग की ओर धकेलना होता है l देवानंद के साथ भी ऐसा ही था, जैसे सभी दिशाओं के प्रयास असफलता का टैग लगा उन्हें ऐर- घेर कर फिल्मों की ओर मोड़ रहे हों l देवानंद की रुचि तो फिल्मों में थी पर उन्होंने पहला प्रयास फिल्मों के लिए नहीं किया था l  
देव आनंद पढ़ने में अच्छे थे l कॉलेज की शिक्षा के बाद जब अधिकतर छात्र आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जा रहे थे तब उनका भी मन विदेश जाकर पढ़ाई करने का था, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी, और माता-पिता को कई बच्चों की परवरिश करनी थी इसलिए उनके पिता उन्हें विदेश पढ़ाई के लिए नहीं भेज सके l उसी दौरान देव आनंद को इंडियन नेवी की नौकरी से भी रिजेक्ट कर दिया गया। इसी बीच उनकी माँ की तबीयत बहुत खराब हो गई और देखभाल के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका l इस बात से वो पूरी तरह टूट गए थे। इसके बाद उन्होंने खुद को संभाला और अपने सपने की दिशा में मुंबई की ओर चल दिए l 
स्टैम्प कलेक्शन से सफलता के स्टैम्प तक 
हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया 
1940 में देवआनंद मुंबई तो आ गए पर यह सपनों का शहर सबसे पहले आदमी को धक्के देता है l वही देव साहब के साथ हुआ l उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी l वो एक चॉल में रहते थे l जहाँ उन्हें एक कमरा कई दोस्तों के साथ शेयर करना पड़ता था और बाथरूम…  वो तो पूरी मंजिल में रहने वाले 20 लोगों के बीच में एक था l हालात एक समय का भरपेट खाना खाने लायक भी नहीं थे l ऐसे में जीने के लिए उन्हें वो चीज बेचनी पड़ी, जिससे उन्हें जुनून कि हद तक लगाव था यानि उनका स्टैम्प कलेक्शन l जिसके लिए उन्हें तीस रुपये मिले l वो भी कुछ दिन में खा-पी कर खत्म हो गए l 
85 रुपये में की पहली नौकरी 
फिर देवानंद जी को चर्च गेट पर एक कंपनी में 85 रुपये महीने पर क्लर्क की नौकरी मिल गई l पर इसमें उनका मन नहीं लगा और नौकरी छोड़ कर फिर सड़क पर आ गए l 
इसके बाद उन्होंने ब्रिटिश आर्मी के सेंसर ऑफिस में काम किया। वहाँ उनका काम सेना के अधिकारियों के लिखे लेटर्स को पोस्ट करने से पहले पढ़ने का था। ब्रिटिश सरकार अपने अधिकारियों के खतों को भी सेंसर करती थी, ताकि कोई गोपनीय सूचना बाहर ना जा सके। हालांकि ज्यादातर चिट्ठियां वो ही होती थीं जो सेना के जवान अपनी पत्नी या प्रेमिकाओं को लिखा करते थे। इस काम में उनका मन रम गया था, क्योंकि उन खतों को पढ़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। इस काम के लिए उन्हें 165 रुपये महीना मिलते थे l पर उन्हें लगता उनके सपने… सपने बेचना है, ना कि इस तरह से दूसरों के खतों को पढ़ना l इसी उलझन के दौरान जब एक ऑफिसर का लिखा खत पढ़ रहे थे तो उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया l उस खत में ऑफिसर ने अपने पत्नी को लिखा था- ‘काश, मैं अभी ये नौकरी छोड़ सकता तो सीधे तुम्हारे पास आता और तुम्हारी बाहों में होता।’
इस खत की एक लाइन काश, मैं अभी ये नौकरी छोड़ सकता ने देव आनंद को उनकी मंजिलों का रास्ता दिखा दिया और उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी और सपनों की दिशा में आगे बढ़ गए l अगले दिन लोकल ट्रेन में एक यात्री ने उन्हें बातों -बातों में जानकारी दी कि ‘प्रभात फिल्म कंपनी’ अपनी आने वाली फिल्म के लिए एक सुंदर नायक की तलाश कर रही है। अगले दिन देव आनंद ने वहाँ जाकर बाबूराव पाई से मुलाकात की, जिन्हें उनकी बातों और उनके बेबाक जवाब से बहुत अच्छे लगे l उन्होंने उनकी मुलाकात पी. एल. संतोषी से कराई, जिनकी प्रभात कंपनी के साथ उन्होंने तीन साल का कॉन्ट्रेक्ट साइन किया l यहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हो गया था। उन्हें इस दौरान कई और फिल्मों के ऑफर भी मिलने लगे और धीरे-धीरे अपनी मंजिलों की ओर बढ़ चले l 

तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं 
सुरैया और देवानंद की अधूरी प्रेम कहानी 
देवानंद की बात हो और उनकी प्रेम कहानियों की बात ना हो, यह तो असंभव है l अभिनय में प्रेम को जीवंत कर देने वाले देवानंद और सुरैया का इश्क़ बॉलिवुड की सबसे शानदार प्रेम कहानियों में से एक हैl एक बार  देवानंद ने इसे याद करते हुए किसी इंटरव्यू में कहा था, ‘पहले ही दिन से हम दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे थेl  वो बहुत बड़ी स्टार थीं l  उनके पास बड़ी बड़ी गाड़ियाँ थीं … कैडलक थी, लिंकन थी और मैं पैदल जाता थाl  मैं युवा था l वो बहुत प्रेजेंटेबिल था और मुझमें बहुत आत्मविश्वास था l  हमारी दोस्ती बढ़ती चली गईl’
सुरैया को पानी से डूबने से बचाया और प्यार में डुबो दिया 
देव आनंद और सुरैया को तब प्यार हो गया था जब उन्होंने फिल्म ‘विद्या’ के गाने ‘किनारे किनारे चले जाएंगे’ की शूटिंग के दौरान उन्हें डूबने से बचाया था। वह नाव से फिसल गईं और देव ने उन्हें बचाने के लिए झील में छलांग लगा दी। सुरैया ने एक बार अपने इंटरव्यू में कहा था कि अगर उन्होंने उन्हें नहीं बचाया होता, तो वह जिंदा नहीं होतीं। इसने उन्हें देव आनंद की ओर आकर्षित किया।
इस प्रेम कहानी में सुरैया की दादी बनीं थीं विलेन 
सुरैया की दादी इस प्रेम कहानी के प्रबल विरोध मीन थीं, लेकिन इसके बावजूद वे एक-दूसरे से मिलते रहे l पर आखिरकार उन्हें हार माननी पड़ी l ऐसा कहा जाता है कि सुरैया, देव आनंद के साथ भागने की प्लानिंग भी कर रही थीं, लेकिन उनकी दादी को इसके बारे में पता चला और उन्होंने उनकी योजना को बर्बाद कर दिया। वह उनकी इंटर कास्ट मैरिज के खिलाफ थीं।
 मशहूर फ़िल्म इतिहासकार राजू भारतन अपनी किताब ‘अ जर्नी डाउन मेलोडी लेन’ में लिखते हैं, ‘सुरैया मुझे मरीन ड्राइव पर अपने घर कृष्ण महल की बालकनी पर ले गईं और मुझे उन्होंने बताया कि किस तरह उनकी नानी ने देवानंद की दी गई अंगूठी को मेरीन ड्राइव के समुद्र में फेंक दिया थाl” 
लेकिन देवानंद ने अपनी आत्मकथा ‘रोमाँसिंग विद लाइफ़’ में इसका कुछ दूसरा ही विवरण देते हुए लिखा, ‘सुरैया मेरी भेजी हुई अंगूठी समुद्र के सामने ले गईं l उन्हें आख़िरी बार प्यार से देखा और उसे दूर समुद्र की लहरों में फेंक दिया l ‘ हालांकि सुरैया ने कभी शादी भी नहीं की। कहा जाता है सुरैया देव आनंद से प्यार की बात भूल नहीं पाई थीं और कुंवारी रहकर उन्होंने पूरी जिंदगी बिता दी।
लंच ब्रेक कर की थी कल्पना कार्तिक से शादी
फिर उनकी जिंदगी में आई कल्पना कार्तिक। साल 1954 में फिल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ के सेट पर देव आनंद ने कल्पना कार्तिक को देखा था। फिल्म के सेट पर ही दोनों के बीच प्यार हुआ। देव अपने पिछले रिश्ते के टूटने से काफी दुःखी थे और किसी भी कीमत पर कल्पना को खोना नहीं चाहते थे। एक दिन अचानक लंच ब्रेक के दौरान देव ने कल्पना से शादी की घोषणा कर दी और हाथों हाथ ही लंच ब्रेक में ही शादी कर भी ली। उनके इस फैसले ने सभी को हैरान कर दिया था। ये शादी बॉलीवुड की सबसे यादगार शादियों में से एक है।

जीनत के प्यार में डूब गए थे देव आनंद
जीनत अमान को  फिल्मों में लाने का श्रेय देवानंद को जाता है l फिल्म हरे रामा-हरे कृष्णा में वैसे तो देव आनंद की बहन बनी थी, लेकिन असल जिंदगी में वो जीनत को दिल दे बैठे थे। इस बात का खुलासा खुद देव आनंद ने अपनी बायोग्राफी ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ में किया था। उन्होनें बताया कि वो जीनत के प्यार में डूबे हुए थे लेकिन उन दोनों के बीच में राज कपूर आ गए। देव आनंद के अनुसार ”उन दिनों जब भी कहीं जीनत अमान के बारे में चर्चा होती तो उन्हें काफी अच्छा लगता था। हम दोनों एक-दूसरे से इमोशनली कनेक्ट हो गए थे।” एक दिन देव आनंद ने तय किया कि उन्हें जीनत अमान से अपनी दिल की बात कह देनी चाहिए, प्रपोजल के लिए उन्होंने सारी तैयरियाँ भी कर ली थी। हालांकि उस समय राज कपूर और जीनत को एक साथ देखकर वह बुरी तरह टूट गए थे और उन्होंने अपनी बात दिल में ही रखी।
देवानंद का परिवार 
देव आनंद और कल्पना कार्तिक की दो संतानें हैं बेटा सुनील आनंद और बेटी देविना आनंद।
सुनील आनंद का जन्म 1956 में ज्यूरिख, स्विट्जरलैंड में हुआ था, बतौर ऐक्टर कुछ फिल्मों में काम करने के बाद सुनील ने अपने पिता देव आनंद की फिल्मों के निर्माण के दौरान उनका भरपूर सहयोग किया। 
देव आनंद की बेटी का नाम ‘देविना आनंद’ है।जिनकी शादी हुई थी बॉबी नारंग से जो कि एक पायलट थे। वे प्रसिद्ध व्यवसायी रमेश नारंग के भाई थे। शादी के कुछ साल बाद ही देविना और बॉबी का तलाक हो गया। देविना जी की दूसरी शादी हुई हरजिंदर पाल सिंह देओल के साथ हुई । 
देवानंद से जुड़े कुछ रोचक किस्से 
जब उषा को याद कर देव आनंद दरवाज़ों से लिपट कर रोए
ये किस्सा तब का है जब 1999 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ देव आनंद पाकिस्तान गए थे l तब वह 55 साल बाद वापस अपने शहर और उस कॉलेज में गएl जैसे ही देव आनंद ने अपने कॉलेज को देखा, उनकी आँखों से आँसू बहने लगा l  उन्होंने दरवाज़े को गले लगाया और दहाड़े मारकर रोने लगे l कॉलेज के समय वो उषा नाम की एक लड़की से प्यार करते थे, उसका नाम पुकारने लगे l उन्होंने सबको बताया कि जब वो वहाँ से आखिरी बार निकले तो उषा से क्या कह कर निकले थे l 
जब इंडोनेशिया के राष्ट्रपति देव आनंद की शूटिंग में आए
देव आनंद के चाहने वालों में चंबल के डकैतों से लेकर देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल थेl  फ़िल्म काला पानी की शूटिंग के दौरान इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्नो ख़ास तौर पर शूटिंग देखने आए थेl 
रोमैंसिंग विद लाइफ़’ में ये किस्सा कुछ यूँ दर्ज है, “गाने की शूटिंग होनी थी, गाना था–‘हम बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए’ और सब राष्ट्रपति का इंतज़ार कर रहे थेl जब दो घंटे तक वो नहीं आए तो हमने गाना शूट कर लियाl  जैसे ही शॉट ख़त्म हुआ हमें पता चला कि वो पहुँच गए हैंl  इंडोनेशिया के राष्ट्रपति के लिए हमने वो शूटिंग दोबारा कीl  राष्ट्रपति ने ख़ूब तालियाँ बजाईंl हिंदी फ़िल्म की शूटिंग देखकर वो बहुत ख़ुश थेl काला पानी के लिए मुझे फ़िल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया जो मिस्र के राष्ट्रपति अल नासिर के हाथों मुझे मिलाl ”
जब देवानंद के साथ डाकुओं ने खिंचाई फ़ोटो
देवानंद के चाहने वालों में डाकू भी थे, वो भी चंबल के खूंखार डाकू l 
देव आनंद अपनी किताब में लिखते हैं, “शूटिंग के बाद हम चंबल इलाक़े के डाक बंगले में रुके हुए थेl  किसी ने हमें आगाह किया कि डाकू धावा बोलने वाले हैंl  जो शख़्स हमें आगाह करने आया था मैने उससे कहा कि उन लोगों को बोलना कि ऑटोग्राफ़ के लिए कॉपी लेकर आएँ, कैमरा हो तो फोटो के लिए कैमरे लेकर आएँ.. उनके पास ज़िंदगी का आखिरी मौका होगा अपने स्क्रीन हीरो के साथ फोटो खिंचवाने का l ”
“अगले दिन जब हम शूटिंग कर रहे थे तो मैं ट्रक पर खड़ा हो गया और उनसे बोला और कैसे हो मेरे देशवासियों! अरे देव साहब! वो बोले. कोई मुझसे हाथ मिलाने लगे तो कोई गले मिला l ”
जब देवानंद ने आपातकाल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किया था विरोध 
देवानंद को लेकर एक और बहुत बड़ा चर्चित किस्सा सार्वजनिक है। दरअसल उन्होंने आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विरोध किया था और उन्होंने खुद की पॉलिटिकल पार्टी बनाई थी। खास बात यह है कि इसमें उन्होंने कई कलाकारों को भी जोड़ा था। भारत के स्वर्णिम काल में आपातकाल को काले अध्याय के तौर पर देखा जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी। इसका विरोध कई कलाकारों ने भी किया था। उनमें से एक देवानंद भी थे। उन्होंने ने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया का गठन किया था। पार्टी का घोषणा पत्र भी जारी किया गया था। इस पार्टी का हेड क्वार्टर मुंबई के परेल इलाके में स्थित वी शांताराम का राजकमल स्टूडियो था, जबकि इसका परिचालन देवानंद के कार्यालय से किया जाता था।

देवानंद की कुछ महत्वपूर्ण फिल्में 
बॉलीवुड के सुपरस्टार देव आनंद ने अपनी पूरी ज़िंदगी हर एक फिक्र को धुएं में उड़ाते रहे। उनका अंदाज, उनका अभिनय और उनका रोमांस आज भी हर किसी के दिल को छू जाता है। 1940 के दशक से बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत करने वाले देव आनंद 1980 तक फिल्मों में मेन लीड हीरो का किरदार निभाते रहे। उनकी फिल्में काला पानी, गाईड, तेरे घर के सामने, नौ दो ग्यारह बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रहीं और वो अपने दर्शकों के दिल में राज करते रहे। आइए जानते हैं उनकी तीन आती लोकप्रिय फिल्मों के बारे में 
गाइड (1965)
जिन फिल्मों ने भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर स्थापित किया गाइड उनमें से एक है। आर.के नारायण की किताब ‘द गाइड’ पर आधारित यह फिल्म कहीं न कहीं अपने नाम को सार्थक करती है है। यानि यह दर्शक को गाइड करती है l  फिल्म की कहानी अपने समय से काफी आगे की थी। इसके लिए हमें इस फिल्म के निर्माताओं को श्रेय देना होगा, जिन्होंने 1965 में एक विवाहित महिला के प्रेम, सपने और कला के प्रति जुनून, एक साधारण आदमी के अंदर एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व का उदय आदि दिखाने का साहस किया l गाइड की इन्हीं विशेषताओं के कारण ये उस समय तो लोकप्रिय रही ही, आज की पीढ़ी भी इसे बहुत पसंद करती है l 
ज्वेल थीफ 
ज्वेल थीफ़ बॉलीवुड की क्राइम थ्रिलर है, यह भारतीय सिनेमा में अपराध थ्रिलर कला के सबसे बड़े प्रतिपादक विजय आनंद (‘जॉनी मेरा नाम’ और ‘तीसरी मंजिल) द्वारा निर्देशित है। फिल्म में देव आनंद दोहरी भूमिका में हैं । देव आनंद एक आभूषण की दुकान में काम करते हैं और जब उन्हें काम पर होना चाहिए था तब वहां डकैती होती है – सवाल उठता है यह काम किसने किया, क्या यह देव आनंद ‘विजय’ है जिसके होने का वह दावा करता है या यह ‘अमर’ है जिसे किसी ने नहीं देखा है लेकिन कई लोग दावा करते हैं कि यह उसका हमशक्ल है। फिल्म की नायिका ‘शालू’ (वैजयंतीमाला) तो यहाँ  तक दावा करती है कि वह उसका मंगेतर है, तनावपूर्ण स्थिति में देव आनंद को यह साबित करना होता है कि वह विनय है, अमर नहीं। रहस्य, रोमांच, लोकेशन, गीत-संगीत की दृष्टि से यह एक बेजोड़ फिल्म है l 
हरे राम हरे कृष्णा (1971)
टूटे हुए परिवार और भाई -बहन के रिश्ते पर आधारित “हरे रामा हरे कृष्णा” एक ऐसी फिल्म है जिसे आज भी खूब सराहा जाता है l फिल्म में  एक भाई अपनी खोई हुई बहन की तलाश करता है। बहन उन हिप्पियों में शामिल हो गई हैं जो नशे के लती हैं और हरे राम, हरे कृष्ण का जाप करते हैं। फिर भी फिल्म 70 के दशक में दुनिया द्वारा अनुभव की गई कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्रित करती है। हिप्पी संस्कृति, नशीली दवाओं के प्रति उनका समर्पण, स्वतंत्रता, कर्तव्य, परिवार से बचना और पूर्वी (जो पश्चिमी देशों के लिए नया था) धर्म जैसे कुछ भी नया अपनाना। इस फिल्म के गीत बेहतरीन हैं l ‘देखो ओ दीवानो…राम का नाम बदनाम न करो’ गाने का हर शब्द बेहद दार्शनिक और अर्थपूर्ण है l 
काम काम और काम ही था देवानंद का असली नशा 
एक कहानी के रूप में एक सपना देखना और उसे फिल्म में बदलना ही उनके जीवन का असली सुरूर था l जीवन के आख़िर तक वो फ़िल्में बनाते रहें भले वो फ़्लॉप हुईंl फ्लॉप होने के बाद वो ज्यादा देर तक दुखी नहीं रहते और अगली फिल्म की योजना बनने में मशगूल हो जाते l   
वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार भारती दुबे देव आनंद को कवर करती रही हैं, कहती हैं, “कई लोगों को उनके आख़िरी दौर का सिनेमा पसंद नहीं आया, उन्हें लगा कि वो पहले वाली बात नहीं थी उन फ़िल्मों में, लेकिन देव आनंद को विश्वास था कि उन्हें फ़िल्में बनाते रहना है, चाहे उन्हें ज़ीरो स्टार मिले या तारीफ़l  वो मुझसे कहा करते था कि मुझे काम करते-करते ही मरना हैl  आख़िर की कुछ फ़िल्में देव आनंद को डिफ़ाइन नहीं करतींl” 
बतौर अभिनेता ढेरों सफल फिल्मों में अपने अभिनय निर्देशन का लोहा मनवाले वाले देव आनंद जी को वर्ष 2001 में पद्मभूषण तथा वर्ष 2002 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 3 दिसम्बर 2011 को लंदन में 88 वर्षीय देव आनंद जी इस दुनिया से विदा ले कर उस दुनिया में अपने अभिनय और कला का का जादू बिखेरने चले गए l परंतु अपने फिल्मों के माध्यम से, अपने ईमानदार व्यक्तित्व की प्रेरणा के माध्यम से, और अंतिम समय तक कर्मरत रहने वाली जीवंतता को सिखाने वाले उदाहरण के रूप में सदा हमारे बीच रहेंगे और कहते रहेंगे…
“गाता रहे मेरा दिल… l”

वंदना बाजपेयी 
प्रकाशित पुस्तकें _
कहानी संग्रह– विसर्जन,  वो फोन कॉल 
कविता संग्रह– “जीवन का रेखा गणित” 
सम्पादित– “दूसरी पारी” आत्मकथात्मक लेख संग्रह
शीघ्र प्रकाश्य – 21 सदी का स्त्री कथा साहित्य (समीक्षात्मक), बस चुटकी भर (कहानी संग्रह)
साझा काव्य संग्रह– गूँज, सारांश समय का, अनवरत-1, काव्य शाला सहित 12 साझा संग्रहों में कविताएँ प्रकाशितl   
साझा कहानी संग्रह– मृगतृष्णा, सिर्फ तुम, पुरवाई-19, सहित कई साझा संग्रहों में कहानियाँ प्रकाशित 
साझा इ उपन्यास– देह की दहलीज पर (मातृभारती.कॉम ) और किंडल पर प्रकाशित 
वेब सीरीज– रेडी गेट सेट गो (प्रतिलिपि पर) प्रकाशित 
कलम की यात्रा: सभी प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओवेब पत्रिकाओं, साहित्यिक ब्लॉग्स, इ मैगजीन में कहानी, कवितायें, दोहे, बाल कविताएँलेख, व्यंग, समीक्षा आदि का निरंतर प्रकाशन l   
कई कहानियों, कविताओं, समीक्षाओं का नेपाली, पंजाबी, उर्दू और मराठी, अंग्रेजी में अनुवाद, महिला स्वास्थ्य पर कविता “उसका दोष बस इस इतना था” का मंडी हाउस में नाट्य मंचन |
सम्प्रति: स्वतंत्र लेखन, atootbandhann.com का सम्पादन 
संपर्क – vandanabajpai5@gmail.com
मोबाइल नंबर- 9818350904 

6 टिप्पणी

  1. अपने मनपसंद अभिनेता के बारे में पढ़ना, सुनना और देखना हमेशा सुखद होता है। आज भी जब आपका ये देवानंद के जीवन, कार्य और व्यक्तित्व को लेकर लिखे शोधपरक निबंधात्मक आलेख को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपने बहुत मनोयोग से इसे लिखा है। निश्चित ही पुरवाई की ये पठनीय सामग्री है। अनेक शुभकामनाएं!!

    कल्पना मनोरमा

  2. देवानंद तो सदाबहार अभिनेता थे।इस लेख से यादें ताजा हो गईं। पढ़ते हुए ऐसा लगा कि फिल्म देख रहे हैं। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

  3. वंदना जी, इस बेहतरीन लेख के लिए आपको बधाई और पुरवाई परिवार की ओर से हार्दिक आभार।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.