भानु अथैया
1982 में अंग्रेज अभिनेता व निर्देशक रिचर्ड एटनबरो के मन में भारत के राष्ट्रपिता और जीते-जी ही महामानव व सन्त कहलाये जाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी जिन्हें सब प्यार से ‘बापू’ कहते थे के जीवन को सिनेमा के रुपहले पर्दे पर सजीव करने का विचार आया जिसे मूर्त रूप देने जहां अभिनय में बेहतरीन व कालजयी चरित्रों को हूबहू अपनी अदाकारी से जीवंत करने वाले प्रशिक्षित व प्रतिभाशाली कलाकारों की आवश्यकता थी । वहीं उन्हें एक ऐसे ड्रेस डिजाइनर की भी उतनी ही व्यग्रता से तलाश थी जो उस कालखण्ड के परिधानों को अपनी कल्पना शक्ति से रूप दे सके जिन्हें पहनकर फ़िल्म में काम करने वाले अदाकार नाटकीय या बनावटी नहीं बल्कि, वास्तविक नजर आए जो अपने आप में एक चुनौती था पर, जब उन्होंने ठान लिया कि उन्हें यह कर के दिखाना है तो फिर इसके लिए उपयुक्त विशेषज्ञ की खोज भले कितनी भी मुश्किल भरा काम हो उन्होंने कदम बढ़ा दिए और भारत आ गए जो उनकी कहानी की पृष्ठभूमि व कार्यशाला भी था ।
अपने ड्रीम प्रोजेक्ट को मुकम्मल रूप देने रिचर्ड एटनबरो को ऐसा कॉस्ट्यूम डिजानर की चाहिए था जो महात्मा गांधी की जिंदगी भर की यात्रा के सारे पहलुओं को ध्यान में रखकर फिल्म के सभी कलाकारों के कपड़े डिजाइन कर सके इस उद्देश्य को लेकर उन्होंने उस भारत की कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया से मुलाकात की जिसके बाद उन्हें लगा कि उनकी तलाश खत्म हुई और भानु अथैया का फिल्म के लिए चयन करने को लेकर कहना है, ‘मेरी ड्रीम फिल्म गांधी तैयार करने में मुझे 17 साल लगे लेकिन, यह तय करने में 15 मिनट लगे कि भानु अथैया सैकड़ो कॉस्ट्यूम बनाने के लिए एकदम उपयुक्त हैं’ । यह थी 28 अप्रैल 1929 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में जन्मी भानु अथैया जिनका पूरा नाम भानुमती अन्नासाहेब रजोपाध्याय था और उन्होंने पत्रिकाओं में फैशन इलस्ट्रेटर के तौर पर फ्रीलांसिंग से शुरआत की व इसके बाद उन्होंने एक पत्रिका के लिए काम किया और फिर उन्होंने फिल्मों की कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग का काम शुरू किया जिसमें टर्निंग पॉइंट आया जब रिचर्ड एटनबरो ने उनको महानतम फ़िल्म गांधी का हिस्सा बनाया जो उनके लिए भी एक बड़ी उपलब्धि था।
यह तो महज शुरुआत थी जिंदगी का असली हासिल तो अभी बाकी था जो अगले ही साल 11 अप्रैल 1983 में उनके साथ-साथ देश को भी गौरवान्वित कर गया जब उन्हें भारत के प्रथम ऑस्कर से सम्मानित किया गया जो अपने आप में ही एक कीर्तिमान था और ऑस्कर समारोह की उस शाम को याद करते हुए उन्होंने एक बार कहा था कि, “डोरोथी शिंडलेयर पवेलियन में हो रहे समारोह में गाड़ी से मेरे साथ फिल्म के लेखक भी जा रहे थे और उन्होंने कहा था कि उन्हें लगता है कि अवॉर्ड मुझे ही मिलेगा दूसरे डिज़ाइनर्स भी यही कह रहे थे कि अवॉर्ड मुझे ही मिलेगा तब मैंने पूछा कि ऐसा इतने विश्वास से आप कैसे कह सकते हैं?
इस सवाल पर उन लोगों ने मुझे जवाब दिया कि आपकी फिल्म का दायरा इतना बड़ा है कि उससे हम प्रतियोगिता नहीं कर सकते है उस दिन अवार्ड लेते वक्त मैंने सिर्फ यही कहा था कि मैं सर रिचर्ड ऑटेनबरो का शुक्रिया अदा करती हूँ कि उन्होंने दुनिया का ध्यान भारत की तरफ खींचा धन्यवाद अकादमी” ।अब मैं आपको यह भी बताती चलूं कि भानू चित्रकारी में गोल्ड मेडेलिस्ट भी थीं और यही वजह थी कि रिचर्ड एटनबरो ने उन्हें अपनी फ़िल्म में चुना था पर, साल 2012 में भानु अथैया ने ऑस्कर अवॉर्ड को लौटाने की घोषणा कर दी क्योंकि, उनका कहना था कि, उनके परिवार वाले उनके इस अमूल्य अवार्ड के रख-रखाव में सक्षम नहीं हैं, इसलिए यह अवार्ड अकादमी के संग्रहालय में ही सबसे सुरक्षित और सुव्यवस्थित रहेगा” तो उन्होंने इसे वहां रखवा दिया ।
अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत उन्होंने 1956 में देव आनंद की फ़िल्म सीआईडी से की जिसके बाद हिंदी सिनेमा के उस सुनहरे दौर में उन्होंने गुरु दत्त की प्यासा, चौदवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम जैसी फ़िल्मों के कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग की और यश चोपड़ा, बी.आर. चोपड़ा व विजय आनंद जैसे निर्देशकों के साथ काम किया व पांच दशक से अधिक लम्बे करियर में भानु ने बेहतरीन फ़िल्मों में कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर के तौर पर काम किया जिनमें आमिर ख़ान की लगान, आशुतोष गोवारिकर की स्वदेस जैसी फ़िल्मों से उनका नाम जुड़ा इसके लगभग 10 साल बाद उन्होंने मराठी फिल्म ‘नागरिक के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइन किये थे, जो उनकी आखिरी फिल्म थी । उन्हें गुलजार की फिल्म ‘लेकिन’ (1990) और आशुतोष गोविरकर की फिल्म ‘लगान’ (2001) के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला यही नहीं साल 2010 में उन्होंने आर्ट ऑफ कॉस्ट्यूम डिजाइन के नाम से एक बुक भी लिखी जिसे हार्पर कोलिन्स ने प्रकाशित किया इस तरह उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया ।
आज वह अपनी जिंदगी की जंग हार गई लंबी बीमारी के बाद 91 की उम्र में उनके घर पर उनका निधन हो गया उनकी बेटी राधिका गुप्ता ने इस बात की जानकारी  दी उन्होंने बताया कि, “मां को साल 2012 में ब्रेन ट्यूमर हुआ था, लेकिन‌ उन्होंने उस वक्त अपनी बीमारी की सर्जरी कराने से इनकार कर दिया था ऐसे में 2015 में वो लकवे का शिकार हो गयीं और वो तभी से चलने-फिरने की हालत में नहीं थीं और मां की आज सुबह उस वक्त हुई जब वो नींद में थीं मौत के वक्त उनके चेहरे पर एक किस्म की शांति थी आज दोपहर में चंदनवाड़ी शवदाह गृह में उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया” भले अब वे भौतिक रूप में उपस्थित नहीं लेकिन, वह अपने पीछे भारतीय कॉस्ट्यूम डिजाइन की बहुत बड़ी विरासत छोड़कर गई हैं ।

1 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.