
आज एक सुनहला दिन है। ऐसा कि जिसके सुनहले को किसी मर्तबान में भरकर पिया जा सके। बहुत देर हुई सूरज कहीं जा छिपा है किंतु यह रंग अभी डूबा नहीं है। रंग आसमान में नहीं, मन के किसी कोने में छिपे होते हैं। वहीं से निकल कर वे आसमान में छितरा जाते हैं। उस रंग के अक्स में दुनिया कभी चमकती हुई दीख पड़ती है, कभी बुझती हुई। जैसे आज उदासियों की तमाम वजहों के बाद भी आरुष का दिन इंतज़ार के गाढ़े रंग में डूब कर सुनहरी हो गया है।
“सर, सर… लाल वाले स्केट्स मैं लूँगा।” विचारों के समुद्र में इस आवाज़ ने नन्हा सा पत्थर फेंका। आरुष ने देखा सफ़ेद स्कर्ट वाली लड़की को पछाड़ते हुए हुआ वह छरहरा लड़का जूतों को स्केट्स की तरह घसीटते हुए उसके आगे आ खड़ा हुआ। पीछे मुँह बिसूरती वह लड़की धीरे–धीरे आ रही थी। आरुष हँसा और दो जोड़ी लाल स्केट्स निकाल कर रख दिए जिन्हें देखते ही लड़की खिल गयी। लड़के ने देखा तो जल्दी–जल्दी स्केट्स पहनने लगा। “आज भी मैं फ़र्स्ट आऊँगा।” वह लड़की को फिर चिढ़ाने लगा। आरुष ने उसे हल्की–सी चपत लगायी। देखकर लड़की खिलखिलाने लगी। थोड़ी देर बाद हाथ पकड़े हुए वे दोनों स्केटिंग रिंक में थे। देखकर आरुष मुस्कुराने लगा। वह जानता है कुछ देर बाद दोनों का फिर झगड़ा होगा। दोनों गुत्थमगुत्था हो जाएँगे और उसे रिंक में जाकर दोनों को अलग करना पड़ेगा। सब कुछ रोज़ की तरह है पर उसके भीतर कुछ है जो इन दिनों अलग हो चला है।
भरे हुए बादल गढ़वाल टेरेस के ऊपर बह रहे हैं। दूर देवदार और चीड़ के वृक्ष हवा में डोल रहे हैं। कटोरे–सा देहरादून सामने नज़र आ रहा है। कुछ ही घंटों बाद जब सुनहरापन डूबने लगेगा तब वहाँ बत्तियाँ जल उठेंगी। बत्तियाँ यहाँ से लहरों की तरह दिखती हैं। हिलती–तैरती हुईं। समंदर में पाल वाली नाव जैसे डगमगाती है, कुछ–कुछ वैसी। अगर वह इस वक़्त नीचे उतरे और सचमुच रोशनियाँ उसे ऐसी ही मिलें, लप–झप करती हुईं! तो वह क्या करेगा? उसे मालूम है इसका जवाब। वह ज़रूर उन्हें हाथों में भर लाएगा और रोप देगा, उसके बालों में। वही जिसके बाल उसे रपंज़ेल की याद दिलाते हैं। इतने लम्बे बाल इन दिनों उसने नहीं देखे। माँ के बाल इतने ही लम्बे हुआ करते थे। माँ जिस रोज़ गुज़री उस दिन उसने अपने हाथों से उनकी चोटी की थी। माँ की त्वचा बुढ़ा गयी थी पर बाल आख़िरी समय तक युवा थे। आरुष को यक़ीन है रपंज़ेल के बाल भी कभी बूढ़े नहीं होंगे। लेकिन वह तो घूमने आयी है। जल्द ही यह शहर छोड़ देगी। वह कभी नहीं जान पाएगा उसके बाल बूढ़े हुए या नहीं। हो सकता है वह फिर यहाँ लौटे और आरुष जान सके उसके बालों का क्या हुआ। लेकिन वह क्यों लौटेगी! यहाँ लौटने जैसा है ही क्या!
रात ग्यारह बजे के बाद जब भीड़ छँट जाती है तब कभी-कभी वे दोनों एक साथ स्केटिंग करते हैं। रूही का हाथ आरुष की कमर के इर्द-गिर्द लिपटा रहता है। ठंड से भीगी रात में कमर का वह एक भाग गर्म रहता है। आरुष को यह गर्माहट भली लगती है।
इतनी भीड़ में कभी–कभी एक ही चेहरा साल–दर–साल साल दिखाई देता है तब उसे हैरानी होती है कि हर साल कोई एक ही जगह क्योंकर आता है? वह भी मसूरी! पहाड़ों को काट कर बनायी गयी इमारतों के हुज़ूम ने इस शहर का बहुत कुछ हड़प लिया है। हर साल यहाँ सैलानियों की संख्या कम होती जा रही है। लेकिन कुछ चीज़ें ख़त्म होने के बाद भी साँस लेती रहती हैं। इसीलिए बहुत कुछ निगले जा चुकने के बाद भी यहाँ का पहाड़ीपन बचा हुआ है। शायद इसी बचे हुए को देखने लोग दूर–दूर से यहाँ चले आते हैं। हैरान तो वह तब भी होता है जब एक ही चेहरा तीन दिन से ज़्यादा दिखाई पड़ता है। अमूमन दो–तीन दिन में यह शहर निबटा कर लोग आगे चल पड़ते हैं। इतने दिनों में मसूरी आसानी से घूमा जा सकता है। घूमने के नाम पर वही कम्पनी बाग़, केम्पटी फ़ॉल, लाल टिब्बा जैसे दो–चार स्थान जहाँ जाना उसे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता। उसके अपने ठिकाने हैं, दबे–छिपे, जिन्हें सिर्फ़ वही जान पाते हैं जो किसी स्थान से दोस्ती गाँठ लेते हैं।
जिस दिन कॉलेज की छुट्टी होती है वह उन जगहों पर चला जाता है, अकेले या रूही के साथ। सुबह से दोपहर तक का वक़्त वहाँ बिताता है। चार बजते न बजते यहाँ लौट आना होता है। यहाँ कभी छुट्टी नहीं होती क्योंकि सैलानी सदा बने रहते हैं। किसी को पहाड़ों की ठंडी हवा में स्केटिंग का लुत्फ़ लेना होता है, तो किसी को ख़ूबसूरत पृष्ठभूमि के साथ पहियों पर तैरता वीडियो बनवाना होता है। किसी रोज़ अगर कोई ज़रूरी काम आन पड़े या तबियत ख़राब हो जाए उस रोज़ रूही उसकी मदद करती है। रूही का बड़ा सहारा है उसे। वह न होती तो कॉलेज और नौकरी दोनों एक साथ नहीं चल पाते। स्केटिंग भी तो वह ग़ज़ब की करती है। लगता है जैसे स्केटिंग रिंक में कोई बेले डान्सर उतर आयी हो। यूँ वह अक्सर वहाँ आती है लेकिन जिस दिन वह रिंक में उतरती है उस दिन भीड़ जुट जाती है। वह स्केटिंग करती है तो लगता है जैसे आसमान से सीढ़ी लगाकर सितारे फिसलते हुए आ रहे हैं।
रात ग्यारह बजे के बाद जब भीड़ छँट जाती है तब कभी–कभी वे दोनों एक साथ स्केटिंग करते हैं। रूही का हाथ आरुष की कमर के इर्द–गिर्द लिपटा रहता है। ठंड से भीगी रात में कमर का वह एक भाग गर्म रहता है। आरुष को यह गर्माहट भली लगती है। ख़ाली मॉल रोड पर मद्धम संगीत गूँजता है। ऊँचे–लम्बे पेड़ जिन्हें काटना सख़्त मना है, जिनमें से कुछ के तने रेस्तराँ के भीतर का हिस्सा बन चुके हैं, झूम–झूम कर नाचते हैं। ठीक उस तरह जैसे वे तब नाचते थे जब रेस्तराँ की दीवारों ने उन्हें क़ैद नहीं किया था। उन की पत्तियों के बीच लटके लट्टू चमक से भर उठते हैं। पेड़ों के नीचे से अपनी दुकान समेटते ग़ुब्बारे वाले, खिलौने वाले, सब ठहर कर उनकी ओर देखकर मुस्कुरा देते हैं। कभी बहुत ऊपर से, कोई बहकी हुई धुन चली आती है जिसका उस मद्धम धुन से कोई मेल नहीं बैठता लेकिन दोनों धुनें मिलकर जुगलबंदी साध लेती हैं। रिंक में वे दोनों होते हैं और बाहर कुर्सियों पर पसरे उनके दोस्त..उनींदी हो चुकी रात में उन्हें मंत्रमुग्ध हो देखते हुए। दोनों के बीच अचानक शर्त लगती है और वे ख़ाली मॉल रोड पर उतर आते हैं। दोनों में से कोई किसी को नहीं पछाड़ पाएगा, यह दोनों जानते हैं फिर भी दोनों यह खेल नहीं छोड़ते। इस प्रतियोगिता का अंत क्लॉक टावर पर संग पहुँचकर एक लम्बे–गहरे चुम्बन के साथ होता है। जब तक वे लौटते हैं तब तक सब जा चुके होते हैं। वह रूही को घर छोड़ता है। उसकी माँ की परछाईं परदे के पीछे से हाथ हिलाती है। बदले में वह भी हाथ हिला कर अपने घर चला आता है जहाँ सब सो चुके होते हैं। बस ठंडी रातों का उजला चाँद उसकी प्रतीक्षा में रहता है। इन दिनों रूही नहीं है। वह स्केटिंग की किसी प्रतियोगिता में चंडीगढ़ गयी है। इन दिनों ओस में भीग कर चाँद भी पनीला रहने लगा है।
वह रूही से प्रेम करता है फिर क्यों किसी अपरिचित स्त्री को देख वह इस तरह बेचैनी से घिर गया है। किसी को एक बार देख लेने भर से उसका वजूद इस तरह हावी हो जाए कि उसके अलावा कुछ भी सोचना मुमकिन न रहे, यह बात अजीब थी पर उसके साथ घट रही थी।
आरुष ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली। छः बजने वाले हैं। लगभग आधा घंटा और। दिन भर भटकने के बाद लौटते वक़्त रपंज़ेल यहाँ आती है। कुछ देर यहाँ ठहर कर खाना खाने चली जाती है। तीन ही दिनों में आरुष को उसके बारे में बहुत कुछ मालूम हो गया है। मसलन उसका पसंदीदा रेस्तराँ, उसके पसंदीदा गाने और उसके पसंदीदा रंग भी। वह तीनों दिन उसी रेस्तराँ में गयी जो सबसे अच्छा शाकाहारी भोजन देने का दावा करता है। कुछ दुकानों पर रुक कर उसने खाने की सूची पढ़ी लेकिन वह वहाँ गयी नहीं। नहीं, वह उसका पीछा नहीं कर रहा था। मॉल रोड के बीचोंबीच स्थित इस जगह से दोनों ओर की सड़क दिखाई पड़ती है, बग़ैर कोशिश किए। उसने तीनों दिन हिंदी गानों पर अपनी गर्दन मटकायी और पैरों से थाप दी। तीनों दिन उसके कपड़ों में पीले रंग का हिस्सा रहा है जैसे मैदानों का पतझड़ अपने संग लिए चलती हो।
जब वह पहली रात आयी थी तब यूँ ही आयी थी..एक पता पूछते हुए। उसे देखते ही फ़ैज़ान ने आरुष को बुला लिया था। फ़ैज़ान को मालूम था कि यह वही है जिसे मॉल रोड पर टहलक़दमी करते देखने के लिए आरुष आज दिन भर रेलिंग के पास खड़ा रहा था। हाँ, उस दिन उसने कहीं भी जाना स्थगित कर, नियम तोड़ कर बहुत जल्दी स्केटिंग रिंक खोल दिया था। उस रोज़ सुबह आरुष ने उसे पुरुष और तीन-चार साल के बच्चे के साथ रिक्शे से सामान उतरवाते देखा था और वह कॉलेज जाने की बजाय यहाँ आ गया था। फ़ैज़ान से उसने कुछ कहा नहीं था लेकिन वह जान गया था। तभी तो उसके आने पर ख़ुशी से लबलबाते हुए उसने आरुष को आवाज़ दी थी। दोस्त आँखें पढ़ लेते हैं तिस पर फ़ैज़ान तो उसका पक्का वाला दोस्त है।
जब वह आयी तो आरुष कमरे के भीतर था। उस दिन वह रिंक में नहीं उतरा था। शाम से कमरे के भीतर चुप बैठा था। सब समझ रहे थे कि रूही के न होने से वह उदास है पर वह उदास नहीं था। वह ट्रान्स में था। वह रूही से प्रेम करता है फिर क्यों किसी अपरिचित स्त्री को देख वह इस तरह बेचैनी से घिर गया है। किसी को एक बार देख लेने भर से उसका वजूद इस तरह हावी हो जाए कि उसके अलावा कुछ भी सोचना मुमकिन न रहे, यह बात अजीब थी पर उसके साथ घट रही थी।
वह बाहर आया तो उसने देखा वह खड़ी थी। रात के दस बज रहे थे। इस वक़्त! वह तो शाम को जा चुकी थी। उसे मालूम तो नहीं हो गया वह आज पूरा दिन उसे देखता रहा है। उसके गाल सुर्ख़ हो गए। वह उसके पास आकर खड़ा हो गया। मीठी,भीनी ख़ुश्बू का भँवर वहाँ डेरा डाले हुआ था। शायद वह अभी नहा कर आयी थी। उसके बालों की नमी वह महसूस कर रहा था। उसने एक बार फिर पता पूछा। आरुष को पता मालूम नहीं था। उसे यहाँ के बारे में सब पता है फिर इस जगह का नाम उसने क्यों नहीं सुना। अपनी हैरानी छिपाते हुए वह बोला, “आपको स्केटिंग करनी है तो आप यहाँ भी कर सकती हैं।”
“नहीं। दरअसल…” कहकर वह चुप हो गयी। उसकी चुप्पी शुष्क थी। उसके चेहरे की तरलता के उलट। उसने अपना मोबाइल निकाला और तस्वीरों के फ़ोल्डर में कुछ खोजने लगी। वह एक ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर थी।
“मैं यह ढूँढ रही हूँ। आप स्केटिंग सिखाते हैं तो सोचा आपको मालूम होगा।”
वह जगह नहीं पहचान पाया और ना में गर्दन हिला दी। वह अट्ठारहवीं सदी की कोई तस्वीर थी जिसमें लोग बर्फ़ पर स्केटिंग कर रहे थे। “यह तस्वीर मैंने किसी जर्नल में देखी थी।”
आरुष उसके बालों की नमी देख रहा था। वह शुक्रिया कह कर पलटने को हुई कि फ़ैज़ान कनखियों से उसके साथ वाले आदमी की ओर देखता हुआ बोला, “आप स्केटिंग करने आइएगा।” आदमी कुछ दूर खड़ा सिगरेट फूँक रहा था। बच्चा प्रैम में सो रहा था। आदमी की चेहरे पर कुछ नागवारी थी। यह बात इतनी दूर से भी सबने महसूस की।
उसने स्केटिंग के लिए हाँ नहीं कहा था। लेकिन उसने शुक्रिया कहा था। उसका शुक्रिया देर तक हवा में गूँजता रहा।
“अब तो रिंक में आजा।” फ़ैज़ान पूरे जोश में चिल्लाया और म्यूज़िक सिस्टम की आवाज़ बढ़ा दी। फ़ैज़ान को इंतज़ार था कि वह पलट कर एक बार देखेगी। इंतज़ार उसे भी था लेकिन उसने नहीं देखा। वह कॉफ़ी शॉप की तरफ़ चली गयी और वह रिंक में। उस रात वह पहली बार रूही के बिना देर रात तक स्केटिंग करता रहा। तब तक, जब तक वह कॉफ़ी पीकर लौटते हुए नहीं दिखी। वह स्केटिंग रिंक की बत्तियाँ बंद करके अँधेरे में खड़ा हो गया जहाँ से वह उसको देख सकता था पर रपंज़ेल उसे नहीं देख सकती थी। लौटते हुए उसकी आँखें नींद से बोझिल थीं। अपना शॉल उसने सिर के चारों ओर कस कर लपेटा हुआ था। उसके लम्बे बाल उसकी स्कर्ट की किनारी तक पहुँच रहे थे। बच्चा अब भी सो रहा था। उसने देखा आदमी ने अपनी बाँहें उसके कंधे पर रखीं जिसे उसने चुपचाप इस तरह हटा दिया जैसे रास्ते में पड़ा पत्थर किसी को चोट लगने के डर से ठोकर मारकर हटाने की बजाय धीरे से उठाकर रख दिया जाए। ऐसा करने के तुरंत बाद उसने पलट कर देखा था। अँधेरे के उसी वृत्त को, जहाँ वह खड़ा था। वह अपराध–बोध से जड़ हो गया ज्यों किसी की निजता को उसने चोरी से भंग कर दिया हो। वह उसे तब तक देखे गयी थी जब तक सड़क के सर्पीलेपन की वजह से उसको दिखना बंद नहीं हो गया होगा।
धीरे-धीरे उसके चेहरे की परत उघड़ने लगी। वहाँ कई सारे मिले-जुले भाव गुँथे हुए थे। वह उन्हें हाथ से छूकर देखना चाहता था। फिर उसे ख़याल आया वे किसी नवजात जैसे कोमल होंगे। उनकी कोमलता हाथों से नष्ट हो जाएगी। उन्हें सिर्फ़ होंठों से छुआ जा सकता है।
सुंदर कहानी, इंतज़ार में ही उम्मीद के बीज छुपे हैं
दिव्या की कहानी ,प्रकृति की ज़ुबानी है ।उम्दा भी ।
प्रभा मिश्रा