आज लगभग दो साल बाद उसका फोन आया, “दीदीमिलना चाहता हूँ, आ जाऊँ… कुछ खाने को तैयार रखना, अपना डिब्बा” कहकर वह जोर से हँसा |
मैंने कहा,“हाँ आ जाओ”।
कुछ लोग निश्चित रूप से आपके जीवन में ऐसे होते हैं, जिनसे चाहे बरसों के बाद मिलो लेकिन वही गर्माहट, वही मस्ती वही ताज़गी रहती है, जैसे रोज़ मिलते हो, कुछ मुलाकातों मे, कुछ रिश्तों में वक्त की भूमिका नहीं रहती, दो मुलाकातों के बीच का समय खो जाता है। उससे मिलना ऐसा ही होता था, जब आता दौड़ता हुआ कैबिन में आकर टिफिन में जो रखा हो खा जाता। मैं उसे दुष्ट कहती और वह हँसता हुआ उंगलिया चाटता मेरा टिफिन सफाचट कर जाता ।
न जाने कैसी टाइमिंग रहती उसकी, जिस दिन कुछ अच्छा लाती थी उसी दिन कहीं से टपक जाता था। सीधा मिलने आता और बोलता, “क्या लाई हो आज बताओ”, और मेरे जवाब देने के पहले सब चट..”
आज भी देखो सबको मेरे हाथ का पुलाव बहुत पसंद आता है तो वही बना कर लाई थी और घर के आम के पेड़ के आम का रस और उसी का फोन।
मैं मुस्कुरा उठी, आते ही कहेगा, “दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम, और आपके यहाँ के दाने पर तो मेरा नाम लिखा ही है,लोग ब्राह्मण को दान देते हैं मेरी जात में, ब्राह्मण हमें छूते भी नहीं थे और देखो मैं तो दान देने के बदले आपका अन्न खा जाता हूँ, श्राप तो न दे दोगी, विप्रा ”।
मै खीज कर जवाब देती, “हर बात में जाति क्यों लाते हो, मैंने कभी भेद नहीं किया”|
“आपने नहीं किया, लेकिन मैंने झेला है”, कहते कहते उसकी आँखे आक्रोश में आती और फिर वह बड़े ठहाके से उसे नियंत्रित कर लेता।
चे ग्वेरा का झोला लटकाये, ढेर सारी किताबों के साथ वह डोलता रहता, काम करने में मन कहाँ, बहुत झगड़ा होता मेरा उसका विचारधारा को लेकर, मैं कहती, “केवल बातों से क्रांति नहीं आतीजनाब,जो अपने हिस्से के काम को ठीक से न कर सके वो क्रांति क्या करेगा, बिल्कुल सिस्टमेटिक नहीं हो तुम, किसी भी काम को करने की कोई व्यवस्था तो होती है ना….”|
व्यवस्था हाँ व्यवस्था से ही तो विरोध था उसका, उसे हर व्यवस्था से चिढ़ थी, फिर वह सुबह जल्दी उठने, समय पर स्नान, भोजन करने या समय पर कहीं पहुंचने की हो या देश, समाज, विश्व या धर्म की ।उसे हर व्यवस्था से चिढ़ थी।
मैं कहती, “चलो व्यवस्था न कहो जीवन अनुशासन कह लो वह तो जरूरी है ना”|
वह कहता, “आप एक स्वतंत्र आत्मा को नियमों में क्यों बंधना चाहती हो, मैं ऐसे ही भला हूँ”|
मैं एक धौल जमा कर कहती, “अपनी अकर्मण्यता, आलसीपन को आत्मा की स्वतंत्रता, संतोष जैसे शब्दों के पैरहन मत पहनाओं”।
मैं उसे विलियम गोल्डिंग का उपन्यास “लॉर्ड ऑफ द फ्लाईस” पढ़ने की सलाह देती, और कहती, “ऐब्सलूट फ्रीडम इज़ अ कर्स, वी नीड़ अ सिस्टम, इफ एनीथिंग नेगटिव इन इट, ट्राइ तो रीमूव इट, नॉट द सिस्टम इट्सेल्फ, बिकज़ इफ यू रीमूव द सिस्टम, सोसाइटी विल क्रीऐट अ न्यू सिस्टम देन ”|
“देट्स वाट आई आम डूइंग”,वह कहता।
मैं हँसती “बाइ डूइंग नथिंग“.
ढीठ मानता कहाँ था, हँसता रहता।उसकी खिलखिलाती हँसी, नहीं खिलखिलाती नहीं खिल्लीउड़ाती हँसी, ऐसी मानो दुनिया के हर नियम को, हर धरम, हर चाल को धता बताते हुए, अपनी ही रौ में बहता चला जाने वाला, मनका करना, मनमानी करना, कुछ न करना और जो करना वह भी बड़ा अजीब और दूसरों को अचंभित करना कि ऐसा क्या है जो यह इंसान इतना बेफिक्र है, मौज में है, बेखौफहै, बेशरम है। नहीं वह कोई सन्यासी नहीं है, ऐसी निश्चिंतता तो सन्यासियों को भी सालों साधना करने के बाद भी दुर्लभ है जो उसे सहजप्राप्त है |हर कोई परेशान है उससे, घर क्या, बाहर क्या, दोस्त क्या, दुश्मन क्यापर वो वो परेशान हैक्या, नहीं…..बिल्कुल नहीं, वह और उसकी किताबें, वह और उसका दर्शन, वह और उसके तर्कदुनिया कोउलझाने वाले , दूसरों को उलझा कर अपनी उसी शरारती हँसी से बेलौस, बिना उलझेनिर्लिप्त हो निकल जाने का उसका ढंग और शून्य में ताकती आँखे किसी दार्शनिक साव्यक्तित्व, जब वो मुझे पहली बार मिला था तो उसकी चमकती आँखों के सिवा मुझे कुछ अलग नजर नहींआया था, लेकिन धीरे धीरे उसके अध्यययन और वक्त्रव्य कला से मैं जरूर प्रभावित हुई थी, हालांकि मैं उसके विचारों से सहमत अक्सर नहीं होती थी, न वह मेरे विचार से, नोक झोंक चलती रहती..
लेकिन मैंकिसी विचार को नकार नहीं सकती थी और वह किसी भी विचार को अपना नहीपाताथा |एकअजीब सा निषेध था उसमे हर मान्यविचारके लिए, वह उस पीढ़ी का प्रतिनिधि था जो हरपुरानी व्यवस्था से खिन्न था, नहींवह हरव्यवस्था से खिन्न था, व्यवस्था मात्र से, नई क्या और पुरानी क्या, वह स्वतंत्रता का पक्षधर था उसके अनुसारबंधन आपकी नैसर्गिकता को मार देता है, नियम बर्दाश्त ही नहीं था, इसलिए जब जहाँ पहुँचना हो तब वह वहाँ नहीं होता, जो करनाचाहिए वह नहींकरता, वो वही करता है जो उसका मन कहे, सारे लोग हाहाकार करे और वो अपनी उज्जवल धवल खिल्ली उड़ाती हँसी ले कर मासूम चेहरा लिए फिर हाज़िर, आप चिल्ला लें, खीज ले, नाराज हो ले,लेकिन आप उससे नफरत नहीं कर सकते ।कौन है वो, क्या नाम है उसका आप इस कहानी को पढ़ने के बाद उसे जो नाम देना चाहें दे मैं तो उसे मलंग कहती हूँ, या फिर कोई यायावर । वह घोर नास्तिक है, ईश्वर के अस्तित्व को नकारता सा, मुझे किसी तीज त्योहार पर सजा हुआ देखता तो कहता, “पूज आईं आप भी एक बुत को” |
“तुमसे किसी ने कही क्या पूजने की, न पूजो, लेकिन मुझे क्यों रोकते हो” मेरा जवाब होता |
अपने विवाह में किसी रीती का पालन नहीं किया उसने, किसी विषय पर बोलते सुने तो मंत्र मुग्ध हो जाए, पर बुद्धि का अतिरेक संवेदनाओं पर हावी.. नहीं नहीं वह हिंसक नहीं है लेकिन किसी और विचार को न मानने को आप वैचारिक हिंसा कह सकते है, अक्सर उसके तर्क मुझे उलझा देते |
वह ठठाकर हँसता और कहता , “आपके धर्म में पाप को सहीं तरह से परिभाषित नहीं किया गया है” । मैकहती “कोई बच्चा अगर गणित के कठिन सवाल हल न कर पाये, और उसे अच्छे शिक्षक न मिले हो तो वह गणित को ही गलत समझने लगता है, ठीक ऐसे ही धर्म समझन आये या कोईउसकी गलत व्याख्या कर दे तो क्या धर्म को गलत कह देना चाहिए ? ”
वह शायद मेरी इस बात से सहमत था, या शायद नहीं, मैं नहीं जानतीपर उसने इस बात का विरोध नहीं किया था ।
“चाहे जो कहें मैं ईश्वर को नहीं मानता” कह कर अपनी गूंजती हँसी छोड़ अपना बैग उठाये वह चल दिया करता ।
उसके धर्म को न मानने से किसी का क्या नुकसान होना था भला |
मैं अक्सर सोचती, ‘वह नास्तिक होते हुए भी कितना दृढ़है अपने नास्तिकपन में, और मैं आस्तिकपनमें भी कितने संशयों से घिरी हुई हूँ । कहते हैं विश्वास और आस्था जिस भाव पर रखी जाए वह भाव सिद्ध हो जाता है, उसने अपना नास्तिक पन साध लिया है ।
उसकी उन्मुक्त हँसी, उसका किसी कल की चिंता का न होना, हर हानि लाभ में एक जैसा रहना मान अपमान का कोई भय नहीं, अपनी मर्जी से जीता हुआ सदा मुस्कुराता चेहरा मुझे चिढ़ाता है | मैं सोचती, मैं क्यों नहीं रह पाती निर्द्वंद, निश्चित, निर्भार, निर्भय, मैंने कैसे इतने बंधन खड़े कर लिए है अपने आस पास | हर कही व्यवस्था और अनुशासन का हामी मेरा मन उसकी स्वच्छंदता से चिढ़ता और घबराता भी कि कहीं इसका उन्मुक्त व्यवहार मेरी व्यवस्था में सेंध न मार दे |
मुझे दीदी कहता है वह डाँट भी खाता पर अपने तर्कों से मुझे असमंजस में अक्सरडालकर मुस्कुराता जैसे मेरे सिद्धांतों को, मेरे विश्वास कोतौलना चाहता हो |
मैंने एक दिन कहा- “तुम तो यायावर हो” |
वह शरारत से मुस्कुराया, कहा – “कौन यायावर नहीं है, क्या आप नहीं हो ” ।
मैं चौंक पड़ी सच ही तो कह रहाथा, कौन यायावर नहीं है, सिर्फ शरीर का घूमना ही तो यायावरी नहीं होती, मन की घुमक्कड़ी की तो कोई सीमा ही नहीं है | मैंने कहा, “सुधर जाओ, यह यायावरी छोड़ो और थोड़ा स्थिर हो जाओ, थोड़ा व्यवस्थित हो जाओ” |
फिर वही हँसी, “आप अपनी यायावरी छोड़ दो, मैं भी छोड़ दूंगा” |
मुझे लगा जैसे वह मुझे चुनौती दे रहा है, लगा जैसे कह रहा हो “खुद का मन तो स्थिर करो, खुद के मन को तो रोको, मैं तो सिर्फ तन से घूमता हूँ तुम तोमन के चक्रव्यूहमें घूमते ही रहते हो” ।
मैंने उससे कहा था,“या तो आगे चलकर जीवन में अवसाद के चलते तुम विक्षिप्त हो जाओगे, दार्शनिक या सन्यासी” ।
आज आ रहा था, मैं देखना चाहती थी क्या हुआ, वह विक्षिप्त हुआ, दार्शनिक हुआ या सन्यासी ।
मुझे अपने आकलन पर भरोसा था, लोगों के बारे में सोच शायद ही कभी गलत निकली हो, कभी कभी तो मैं खुद अपनी भेदक दृष्टि से डर जाती हूँ |जाने कैसी तो छटी इंद्री दी है ईश्वर ने मुझे कि इंसान के मन के भीतरी कोने में छुपी कोई बात, कोई भावना भली बुरी जो हो सब जैसे एक्स रे मशीन की तरह सामने आ जाती। चेहरों के पीछे छुपे चेहरे मुझे प्रत्यक्ष दिखते, उनकी इर्ष्या, स्वार्थ, व्यंग्य, बनावटी प्रेम सबकुछ, इसलिए शायद किसी के साथ सहज नहीं रह पाती, भीड़ में अकेले, कई बार आजमाया इसको हर बार खरी निकली छटी इंद्री, अक्सर तो मुझे पहले से पता होता कि मेरा ऐसा कहने या लिखने के बाद किसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी, और वैसा ही होता भी, ईश्वर की यह शक्ति सबके पास होती है और सबके अपने अपने अनुभव |
फिर सोचती हूँ हम सबमें होंगें ना कुछ दुर्गुण, आखिर हैं तो मनुष्य ही, पूर्ण और दुर्गुण रहित हो नहीं सकते, अपनी पूर्णता और श्रेष्ठता का भ्रम सबसे बड़ा भ्रम है और मज़े की बात यह है कि यह सबसे ज्यादा प्रचलन मेंहैं। शायद भ्रम की सत्ता ही बड़ी है, वास्तविक सत्य तो अपने को सहेज के रखते हैं, अपना सत्य जानने के लिए कितने जतन करने होते हैं, भ्रम का क्या है एक ढूंढों हज़ार घेर लेंगें।
सिर को झटका दिया, जिसे दार्शनिक होना था उसका पता नहीं क्या हुआ.मैं यूँ ही दार्शनिक हो रहीं हूँ।
समय पे कब आया है भला, जो आज आयेगा, फिर भी मेरी नज़र बार बारघड़ी की तरफ जा रही थी, लंच के पहले आ जाए तो अच्छा, नहीं तो टिफिन खोलते ही खत्म हो जायेगा, मैंने एक अलग टिफिन में उसके लिए पुलाव और रस निकाला और अपना काम करने लगी।
कुछ उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचा, कुछ नंबर डाले, एक आध डिटेल और थी उसको देखा, तभी हल्ला मचाता, “हैलो एवेरीवन, कैसे हो, कहाँ हो मेरी दुश्मन”, कहता हुआ वह दौड़ता हुआ मेरे केबिन के सामने खडा था |
वह कुछ और हो न हो एक बहुत अच्छा इंसान जरूर था, उसकी उपस्थिति में एक ऊर्जा, चमक होती थी, उफनती पहाड़ी नदी जैसा उसका व्यक्तित्व, ऊबड़ खाबड़ बहता सा, एक हाथ में किताब वही मुस्कुराता चेहरा|
“मेरे लिए कुछ बचाया है कि नहीं कहते हुए पूरे अधिकार से सारे केबिन की व्यवस्था को छिन्न भिन्न करते उसने टिफिन उठा लिया, मैंने डब्बा छीनते हुए उससे कहा, “पहले हाथ धो कर आओ, गंदे कहीं के….”
वह फिर वही ठहाका, “फिर वही नियम मैं बीमार पड़ूँगा आप नहीं लाओ दो”
और शुरू….. “ई.. ई ….. मैंने सड़ा सा मुँह बनाया….”
बीच बीच में बोलता भी जा रहा था…,
लेकिन मैं उसे देखती रही….
सांवला रंग और सांवला हो गया था, उसने आँख उठा कर देखा, “क्या.. ? क्या देख रही हो… और काला हो गया…” फिर वही ठहाका ….
“मुझसे ज्यादा काला कोई देखा भला…, काली कामरी पर चढ़त न दूजो रंग…”
मैंने अपनी चिर परिचित शैली में कहा, “लेकिन तुम पर तो लाल रंग चढ़ा हुआ है, ये लाल रंग कब तुझे छोड़ेगा …” मैं मुस्कुराई ।
वह व्यंजना समझ गया…”आपजो दो किताबें मुझे पढ़ने को बोलती थीं, वो मैंने पढ़ ली…”
मैंने कहा, “एनीमल फॉर्म” और , “लॉर्ड ऑफ द फ्लाईस”
“हाँ”वह बोला|
“फिर कैसी लगी” मैंने पूछा|
“बकवास” उसने मुँह बनाया|
“हाँ, जो तुम्हें आईना दिखाए, या किसी नियम या व्यवस्था का महत्व बताये, वह तुम्हेँ बकवास लगेगी ही।“क्या कर रहे हो आजकल, बीबी, बच्चा कैसा है”?मैंने पूछा |
मेरे इस सवाल पर सर के पीछे दोनो हाथ रख, कुर्सी के पीछे उसने सिर टिका दिया |
मैंने गौर से उसे देखा, “थोड़ा मोटा हो गया है, कान के आसपास के बाल पक गए हैं, बोलने में भले ही अंतर ना लगे लेकिन चेहरे और आँखों की उदासी ने मुझे आहत किया।
मुझे इसी का डर था। मैंने धीरे से पूछा, “तबियत ठीक है तुम्हारी” |
उसने मेरी तरफ वैसे ही सर टिकाए तिरछी नज़र से देखा और बोला, “यूँ तो नज़र बड़ी कमज़ोर है आपकी, लेकिन क्या कोई हिडन एक्स रे मशीन या स्केनर लगा है जो शकल देख पहचान जाती हो”|
मैं थोड़ा घबराई, “आजकल कैसी कैसी बीमारी हो रही कहीं लड़का किसी बड़ी बीमारी की चपेट में न आ गया हो, खाने पीने सोने उठने का कोई नियम संयम है नहीं “|
“क्या हुआ”? मैंने सीधे सीधे पूछा|
“कुछ नहीं शुगर और बी पी” फिर हँसी, “बीमारी भी साली रईसों वाली नहीं हुई, ये बीमारी भी कोई बीमारी है, लल्लू है है है”।
मैंने फिर छेड़ा, “इतने कड़वे जहरीले आदमी को शुगर हो गई, लो बोलो भला, शुगर के बुरे दिन आ गए…. और बी पी जो दूसरों का बी पी बढ़ाने का काम करे उसको बी पी कैसे हो गया”।
“अब हो गया तो हो गया, जिन लोगों का बी पी मैंने बढ़ाया था उनकी बद्दुआ लगी लगता है”, वह मेरी तरफ अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोला, मैंने एक चपत लगाई |
“चलो चाय पीते हैं”, उसे ले मैं कैंटीन में आई, दो बिना शकर की चाय का ऑर्डर किया।
“अरे आप फीका क्यों….” वह बोला |
“हम पयाला का साथ नहीं दूँगी”, मैंने हँसते हुए कहा, “वैसे भी मैं कम शकर लेती हूँ” |
“बोलती तो बड़ा मीठा हो”, उसने छेड़ा।
“शुक्रिया जनाब, आपको कुछ गुण तो नज़र आया”, मैंने नाटकीय भाव भंगिमा में बोला।
चाय आ गई थी, “अब सच सच बताओ क्या बात है, इतनी देर से ये जो मस्ती कर रहे हो ना, मुझसे छुपा नहीं है, परेशान हो, कहो, जो कहना चाहते हो, बातें मुझसे कहीं दूसरे तक जाती नहीं, आय एम अ गुड लिस्नर टू, क्या बात है, बताओ”।
“दीदी आपने कहा था ना, या तो मैं पागल हो जाऊँगा या सन्यासी , मैं उसी राह पर हूँ,” एक ठंडी सांस ले वह बोला |
मैंने कहा, “पागल या सन्यासी”|
वहबोला, “दोनों”|
“क्यों ऐसा क्या हुआ”, मैंने अपने गाल पर हथेली टिकाते हुए कहा |
“बदलाव, नहीं ला पाया, जो सोचता था वह नहीं हुआ, व्यवस्था, समाज में कुछ भी बदलना संभव नहीं, सदा से ऐसा होता आया है ऐसा ही होता रहेगा, इस अन्याय को बदलने की हर कोशिश एक नए अन्याय को जन्म देती है। मैं वह नहीं कर पा रहा जो करना चाहता हूँ, समाज की तो ऐसी की तैसी, लेकिन घर परिवार की अपेक्षाएं, उम्मीदें मुझे बांध रही हैं, पैसा एक बड़ी जरूरत है, मैं इन सब झंझटों में नहीं पड़ना चाहता था, इसलिए….”|
“बस, इतनी जल्दी हार गए, पता है तुम्हें कभी पता ही नहीं था कि तुम करना क्या चाहते हो, विचार जब तक प्रभाव में न लाये जाएं वे पुस्तक की शोभा हैं, कई विचार केवल आदर्श हैं व्यावहारिक नहीं, मुझे यही डर था, ठीक यही, जो बहुत बहुत ज्यादा पढ़ते हैं वे किताबी जीवन को अपने आस पास ढूँढने की कोशिश करते हैं… न मिलने पर ऐसे ही अवसाद में आ जाते हैं जैसे तुम..” “व्यावहारिकता और पुस्तकों के विचारों के बीच संतुलन का एक सेतु जो बना लेते हैं वे समझ जाते हैं”।
“तो क्या किताबें बेकार हैं, वो भृमित करती हैं, केवल अज्ञान के साथ आगे बढ़ते रहो, भेड़ बकरियों की तरह जीवन जीते रहो, और किसी दिन मर जाओ किसी कीड़े की तरह” वह तमक कर बोला ।
“नहीं, बिल्कुल नहीं, मैं और तुम किताबों के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हैं, हमारा तो जीवन ही इनके इर्द गिर्द है, और अज्ञानता… क्या ज्ञान केवल किताबों से मिलता है”… मैंने उसकी तरफ प्रश्न वाचक दृष्टि से देखा, वह मेरी बात सुन रहा था, “जीवन से कोई शिक्षा नहीं मिलती, दिक्कत वही तो है डियर कि हमने केवल किताबों को ज्ञान का आधार मान लिया, उसके नियम या विचार जीवन में जस के तस उतारने पर जोर दिया जबकि हर जीवन अपने आप में अलग, एक ही बात सबके लिए ठीक एक तरह से कैसे लागू होगी”।
“लेकिन..” वह कुछ बोलने को हुआ,
मैंने उसे रोकते हुए कहा, “सपोज़ गूगल मैप से किसी जगह का रास्ता तुमने पूछा, उसने बताया, तुम उस पर चले, लेकिन कहाँ रुकना है, कहाँ भोजन करना है कहाँ विश्राम करना है , यह तो तुम तय करोगे ना, बस किताबेंभी रास्ता दिखाती हैं, विचार पथ, किंतु इस विचार को कहाँ विश्राम देना है, कहाँ थोड़ा परिवर्तित करना है कहाँ रिपेयर करना है इसकी समझ तो इंसान में होनी चाहिए”।
“जिस समस्या से तुम गुजर रहे हो वह समस्या अक्सर बहुत ज्यादा पढ़ने वालों के साथ होती है, वे एक जाल में फंस जाते हैं, विचारों की अति सबसे बड़ी बीमारी है, इसलिए थोड़ा अध्ययन, और थोड़ा मौलिक व्यावहारिक चिंतनमानसिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है पुत्र”, मैंने नाटकीय अंदाज में अभय मुद्रा में हाथ उठा, आशीर्वाद देते हुए, जोर से खिलखिलाते हुए कहा।
वह चुप था कुछ सोच रहा था, उसकी चुप्पी आनेवाले तूफान का इशारा थी, मैं किसी अगले धमाकेदार प्रश्न के लिए तैयार थी, “वंस अ टीचर आलवेज़ अ टीचर” वाली उक्ति सहीं बैठती है मुझ पर, इसलिए जब कोई प्रश्न पूछे तो जवाब तो देना ही पड़ता है |
“तो यूटोपिया को एक मिथ्या अवधारणा मान लिया जाए, मान लिया जाए कुछ नहीं हो सकता, फिर तो बात ही खत्म, जब पहले से मान लो कि यह संभव नहीं तो फिर प्रयास होंगें कैसे, आप बड़ी अवैज्ञानिकबात बोल रहीं हैं, कोई वैज्ञानिक मान ले कि यह हो ही नहीं सकता तो आगे कैसे बढ़ेगा”, टेढ़ी मुस्कान के साथ प्रश्न |
“अच्छा जीवन और विज्ञान में तुम्हें कोई अंतर नज़र नहीं आता, विज्ञान की प्रयोगशाला में तो सब आईडियल सेट करने होते हैं ना, ताप, दाब नमी, मात्रा, द्रव्यमान, प्रकाश सबकुछ…माना जीवन भी एक प्रयोगशाला है लेकिन विज्ञान की प्रयोगशाला से अलग, क्या विज्ञान की प्रयोगशाला की तरह, मात्रा, द्रव्यमान, प्रकाश, ताप दाब की स्थितियाँ जीवन में निर्मित की जा सकती हैं, जीवन से बड़ी कोई अबस्ट्रैट शै नहीं, हर व्यक्ति अपने आप में एक्सक्लूसिव, फिर कोई एक तय नियम में कैसे बाँधोगे इसे,और जहाँ तक बदलाव की बात है, परिवर्तन तो हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है, धीमी धीमी, ऐसा कभी नहीं होगा कि बस अब जितने परिवर्तन होने थे हो गए, आगे और बदलाव की जरूरत नहीं, हर विचार हर व्यवस्था में सदा बदलाव होते रहेंगें, होने चाहिए, वह कभी किसी भी समय में न पूर्ण थी न पूर्ण होगी”।
“फिर यूटोपिया का सिद्धांत छोड़ दिया जाए” उसने एक घूंसा टेबल पर मारते हुए कहा |
“नहीं क्यों छोड़ दें, सामने आदर्श तो होना चाहिए ना, बस 10 -20 प्रतिशत का
मार्जीन रखना होगा” मैंने भी ताल दी ।
“हैं ये क्या, कैसा मार्जीन”, प्रश्न आया |
“लाईफ इन अ मेट्रो” फिल्म देखी है ना, उसमें एक दृश्य है”….. मैंने सौंफ का डब्बा आगे बढ़ाते हुए कहा।
“कौन सा…” सौंफ मुंह में डालते हुए उसने कहा |
“समन्दर किनारे बैठे कोंकणा और इरफ़ान का, उसमें इरफान कहता है ना कि मेरे एक दोस्त ने गाड़ी खरीदी, गेराज में बंद करके रखी है, कहता है जिस दिन इस दुनिया के सारे सिग्नल ग्रीन हो जायेंगें उस दिन गाड़ी बाहर निकालूँगा और चलाऊंगा, बस तुम लोग भी यही करते हो, जिस दिन सब ठीक हो जायेगा, जिस दिन कोई बुराई नहीं होगी, जिस दिन कोई अत्याचार नहीं होगा तब मैं खुश होऊंगा….क्यों, मैंने मुस्कुराते हुए उसकी आँख में देखते हुए कहा, “टेक योर चांस बेबी , टेक योर चांस टू बी हैप्पी”|
“दिल पर हाथ रख कर बताओ, कब ऐसा हुआ, कब ऐसा होगाकि दुनिया के सारे सिग्नल एक साथ ग्रीन होंगें, नहीं होंगें, इट्स लाईफ डिअर, इट्स लाईफ,
तुम यह कह सकते हो ऐसा क्यों हैं, लेकिन ऐसा है, मानना पड़ेगा…”
“तो आवाज उठाना छोड़ दें…” कुछ अचकचाते हुए वह बोला |
“ऐसा मैंने कब कहा, लेकिन क्या कभी, कहीं भी किसी के साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ, या इस संसार में कहीं कुछ भी ठीक नहीं है। दुःख चिंता परेशानी दूर करने की कोशिश करना बुरा नहीं लेकिन उसे सोच सोच कर दुःखी होना और अपने आस पास किसी अच्छाई, खुशी में भी खुश न हो पाना बुरा है,
एक दुःखी व्यक्ति दूसरे को भी दुःखी कर देगा उसका दुःख कम नहीं करेगा,
तुम लोगों के साथ दिक्कत यह है कि कोई खुश संतुष्ट दिखा नहीं कि तुम उसके पिछले या भविष्य में आने वाले दुःख की संभावना बता कर उससे उसका सुख छीन लेते हो” |
“हालत देखी है अपनी, कैसी नज़र हो गई है तुम्हारी, विक्षिप्तों की तरह दिखने लगे हो, हर कहीं नकारात्मकता नज़र आती है तुम्हें, ऐसे लाओगे यूटोपिया..अवसादी, विषादी लोगों से भरा हुआ,
खुद का जीवन संभाला नहीं जा रहा…. व्यवस्था संभालेंगे,
खुद के जीवन में कोई नियम नहीं, समाज के लिए क्या नियम बनाओगे..
जो आदर्श खुद न पाल सको उसके लिए दूसरों से उम्मीद क्यों करते हो….”
बाहर आओ इस अवसाद इस विक्षिप्तता से, जीवन को उसकी सीमाओं में स्वीकार करो और धीरे धीरे सुधार की कोशिश करो, कोई जादू की छड़ी है क्या कि सब ठीक हो जाए, सब एक समान सुखी और संपन्न हो जाये”|
मैं गुस्से में आ गई थी, गुस्सा अक्सर मेरे दुःख की अभिव्यक्ति होता है, एक विचार संपन्न, चेतना संपन्न व्यक्ति का यूँ भृमित हो अपने साथ सबके जीवन से खिलवाड़ करना दुःखी कर रहा था, इसलिए गुस्से में बोलते बोलते हांफने लगी।
वह चुप था,अस्वाभाविक रूप से चुप, “यार दीदी थक गया हूँ, घर की जिम्मेदारी के लिए पैसा चाहिए, पैसे के लिए काम चाहिए, काम के नियम हैं” |
“और नियम तुमसे सधते नहीं”, मैंने कहा |
“ये किताबें पढ़ कर, बोल बोल कर कितना कमा लूंगा, जीवन की जरूरतें और ज़िम्मेदारियाँ कम तो नहीं, अकेला लड़का हूँ, मेरा इतना चिंतनशील होना सच में बोझ होता जा रहा है, मैं खुश नहीं रह पाता, आप सही बोल रही हो मुझे केवल और केवल बुरा देखने की आदत हो गई है…” रूआँसा सा वह बोला |
“गलती तुम्हारी नहीं, दुःख एक प्रोडक्ट है, जिसे कितना, गाढ़ा, तीखा तकलीफ देह, बना कर बेचा जा सकता है उसकी होड़ है, लोगों ने समझ लिया है कि वे दुःख को लिख लिख कर या चर्चा कर कर के ही मिटा देंगें”, मैं व्यंग्य से मुस्कुराई, “तुम्हें पता है सकारात्मक अंत वाली रचनाएँ रिजेक्ट हो जाती हैं, यह… यह.. दृष्टि हो गई है हमारी, फिर चिंता करते हैं कि समाज में अवसाद क्यों बढ़ रहा है, कौन बढ़ा रहा है, लिखने वाले, दिखाने वाले, वे कहते हैं हम आईना दिखाते हैं समाज का, ऐसा कैसा आईना है भाई जिसमें केवल दुख, तकलीफ, रुदन, वासना,अत्याचार ही दिखता है, आह्लाद, खुशी, न्याय, प्रेम, निश्चलता, कोमलता, सौम्यता नहीं दिखती,
नहीं नहीं यह आईना ठीक नहीं है, इसके निर्माण में गड़बड़ है, या दिखाने वाले की नियत में, क्योंकि ऋण है तो धन भी तो है, वह क्यों न दिखाया जाए”, मैं कुछ भावुक हो गई थी |
“ऐसा करो थोड़े दिन कुछ भी पढ़ना, लिखना, सोचना छोड़ दो, परिवार के साथ समय बिताओं, तर्कों को थोड़ा परे रख इस दुनिया की मुर्खता में शामिल हो कर देखो, बच्चे की किलकारी की तरह थोड़ा मुक्त करो अपने को ज्ञान के इस अतिवादी बंधन से, तुम्हें तो कोई बंधन कभी स्वीकार नहीं था, फिर ज्ञान के, तर्कों के इस जाल में कैसे उलझा ली ज़िंदगी, ढीला छोड़ना पड़ेगा बंधु,मैंने तो अपने जीवन में हर बंधन को स्वीकार किया है लेकिन ज्ञान मुझे बांध ले, तर्क मुझे उलझा दें यह मुझे स्वीकार्य नहीं, ज्ञान तो मुक्त करता है ना हर बंधन से, हर अवसाद से, जिस ज्ञान में बंधन हो अवसाद हो, वहाँ कहीं कुछ गलत हो गया समझो”, मैं बोलती रही|
“एक काम है महीने भर में करना होगा, बाकी दिन तुम क्या करते हो क्या नहीं, किसी को मतलब नहीं, बस महीने के अंत की बाध्यता है, एक नियम तो पाल लोगे ना, 10 लेक्चर एक महीने में अनुवाद करके देना है, पैसा पर्याप्त है, तुम्हारी मलंग मस्ती भी बनी रहेगी और महीने में कोई कुछ पूछेगा नहीं, अंतिमदिन भेजना रहेंगें, कर पाओगे ? मैंने पूछा |
उसके चेहरे पर चमक आ गई, उसने अपना बैग उठाया, “वाह दीदी आपने सही काम दिया मुझे ड्राफ्ट भेज देना मैं कर लूंगा”।
“कर तो तुम सब कुछ सकते हो लेकिन करते नहीं, जिसके पास विचार है वह निष्क्रिय है और बिना विचार वाले लोग बहुत सक्रिय हैं यह बड़ी विडंबना है,
चलो महीने भर के बाद इसपर बात करेंगे” मैंने कहा ।
चलो सेल्फी लो आज की क्लास के बाद टीचर जी, सेल्फी लेने के बाद वह बोला, “देखो मुझ पर ज्यादा भरोसा न करना”
ठहाका लगाता वो यह जा वह जा, मैं उस जाते हुए देखती रही |
आज मैं एक बड़े असमंजस में थी, जब आपका कोई आकलन सही निकलता है तो आप गर्व से भर उठते हैं, उसके बारे में मेरा आकलन सही निकला था, वह विक्षिप्त, दार्शनिक, सन्यासी की तरह बात कर रहा था । अंतर में एक हिंसक भाव ने जन्म लिया, मन में अहंकार आया, मन में कहीं गुदगुदी सी हुई, बोला “देखा मेरा कहा सही निकला, आज इसे जीवन में व्यवस्था की कीमत समझ आई”, अहंकार बोला, हूँह ऐसे ही हवा में क्रांति थोड़े ही हो जाती है |अहंकार, एक और चेतना की पराजय देख खुश था |यही तो होता है ना, एक बंधन में बंधा व्यक्ति दूसरे स्वतंत्र मनुष्य को देख उसे भी बांधने की कोशिश करता है, ठीक वही हिंसा मेरा अहंकार भी कर रहा था। अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे, आखिर मेरी बात सही निकली ना, अब परिवार समाज की जिम्मेदारी में यह नियमित हो जायेगा, और अन्य इंसानों की तरह सबके लिए जियेगा और मर जायेगा”, अहंकार ने अट्टहास किया।
लेकिन अहंकार के साथ चेतना भी तो होती है, उसने डपट दिया अहंकार को, मन में कुछ कचोटा, आज अपने आकलन का सही होना खल रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे फिर इस सामाजिक, वैश्विक व्यवस्था के जाल ने एक स्वतंत्र चेतना का शिकार कर लिया है, जैसे किसी उड़ती चिड़िया के पंख काटदिए हों, जैसे किसी मछली को काँच के जार में डाल दिया हो, जैसे किसी किसी शेर को पिंजरे में बंद कर दिया हो, जैसे किसी बहती नदी पर बांध बना दिया हो, दुनिया ने यही तो किया है, हमसे बेहतर, सुंदर, ताकतवर को बांधने का काम”, ओह, मन भारी हो गया |
यही तो हुआ है सदा से शंकराचार्य से लेकर विवेकानंद तक हर चेतना सम्पन्न व्यक्ति को जीवन की भट्टी में झोंकने की कोशिश की, अपने मापदंडों से तौला, क्या हो जायेगा यदि कुछ हज़ार लोग आपकेसमाज के नियम से न चलना चाहें, अपनी कला, अपने चिंतन, के साथ जीना चाहे तो क्या यह समाज उनके लिए व्यवस्था नहीं कर सकता।
मुझे नहीं पता वह इस काम को करेगा या नहीं करेगा, चाहती हूँकर दे, लेकिन अपनी स्वतंत्रता, चेतना के साथ समझौता न करे, अब दोनो बाते साथ हो नही सकती, ऐसे उदाहरण बिरले हैं जो संसार और मलंगपना दोनो साध पाए हों।
मैं विन विन सिचुएशन पर हूँ..
यदि उसने काम समय पर करके दे दिया तो मेरा अहंकार पुष्ट होगा, वह अपनी मलंग मस्ती को कैद में रख देगा, पिंजड़े में तड़फती, झटपटाती उसकी मस्ती एक रचनात्मक व्यक्ति का संसार द्वारा किये गए शिकार को देखती रहेगी, उसका मन झटपटाता रहेगा, जाने कितनों का झटपटाता है, इसे रचनात्मक असन्तुष्टि कहते हैं, परिवार खुश होगा चलो यह ठिकाने पर आया लेकिन वह…अपने लिए न जीकर सबके लिए जियेगा…
अगर उसने काम करके नहीं दिया तो वह वैसा ही रहेगा, मलंग मस्ती के साथ, मैं तब भी खुश होऊँगी कि चलो कोई तो है जो किसी बंधन में न बंध सका और पट्ठा बचा ले गया इस संसार के मकड़जाल से अपनी मस्ती… बिना किसी अध्यात्म का सहारा लिए….
उसकी बात याद आई “अध्यात्म एक बंधन से छुड़ा दूसरे बंधन में बांधने की व्यवस्था है…”.
“फिर भी संसार में घिरे होने से बेहतर ही आध्यात्मिक बंधन में होना” मेरा जवाब |
“आप क्यों हर बार किसी बंधन में बंधे रहना चाहती हैं” वह बोलता |
“जिसे तुम बंधन कहते हो वह नियम हैं” मेरा जवाब |
“बनाये किसने” प्रतिप्रश्न |
“सब तुम्हारी तरह हो जाये तो अराजकता नहीं हो जायेगी”, मेरा उत्तर |
वह हँसा जैसे मेरी मूर्खता पर हँसा हो, “सब मेरी तरह हो पायेंगें क्या? ”
मैं स्तब्ध रह गई, “हाँ सबका उसकी तरह होना संभव ही नहीं, हर कोई क्या बुद्ध हो सकता है, हर कोई शंकराचार्य या मलंग..”
तो जो थोड़े हो सकते हैं उनको होने क्यों न दिया जाए…
मैं सोचती रही…..
लेकिन दुनिया की किसी भी व्यवस्था में इस मलंग मस्ती के संरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है |
बहुत गहरी दृष्टि से व्यक्तित्व को अन्वेषण किया है। बात सही है, समाज में मलंग के लिए स्थान नहीं होता…