ऐसा सन्नाटा पहले कभी नहीं देखा था।सड़कों, पार्कों,गलियों में घूमने वाले घरों में कैद थे।सड़क पर आवारा घूमने वाले पशुओं की टोली हैरान थी कि रात के सन्नाटों में भी चैन से न सोने देने वाली मानव की गंध आज कहाँ घुल गई ?
सड़क पर भागती गाड़ियों की रेस थम गई।बस अड्डे सूने हो गये।साईकिल रिक्शे रुक गये।मेट्रो थमी,थम गई शहर की रफ्तार।दुकानों,ठेलों से अलस भोर की उड़ती कचौड़ियों जलेबी की खुशबू नदारद थी।खाने की कमान घर में छुट्टियों से उकताये पतियों ने सम्हाली हुई थी।बच्चे टीवी पर कार्टून में खोये थे।किशोर नैट पर पबजी खेलने में व्यस्त थे।
समाज का एक वर्ग जो अनायास मिलने वाली इन छुट्टियों की राहत अब तक बड़ा प्रसन्न था ऊबने लगा था।कहकहों और रौल-चौल से सुसज्जित रहने वाले माॅल उदासी की गहन परतों को ओढ़े मानुष गंध को तरस रहे थे।सारी दुनिया अपने खोल में सिमट गई।
सन्नाटों के इस वातावरण में अपने कमरे में उजास को मुट्ठी में भरती मिनी भी इन छुट्टियों के आनन्द से सराबोर थी।पापा के विभिन्न शहरों में फैले अपने बिजनेस और मम्मी को किटी पार्टियों से थोड़ी फुरसत मिल गई थी।मिनी भी वर्क फ्राॅम होम के ऑप्शन से खुश हो घर भागी चली आई थी।बीते दिनों पापा ने अपने जैसे ही बड़े बिजनेसमैन के बेटे से मिनी की शादी तय कर दी थी।स्वभाव से मृदु पराग मिनी को भी पसंद आया।शौक़िया समय बिताने को की हुई जाॅब अब छोड़ने का समय आ ही गया था।मिनी पेन्डिंग काम जल्दी समेट रिजाइन की तैयारी में ही लगी थी।मिनी अपने काम में दीन दुनिया से बेख़बर बैठी हुई थी।पेड़ पर बैठी चिड़िया की आवाज ने उसकी तन्मयता तोडी़।सामने मिनी की मम्मी खिड़की पर खड़ी एकटक चहकती हुई चिड़ियों के झुँड को निहार रहीं थीं।
“आप कब आईं माँ ?”
“जब तुम पूरी तन्मयता से अपने काम में खोईं थी।”
“आप क्यों परेशान हुईं ?कोई काम था तो मुझे बुला लेती।”लाड़ से अपने हाथों को माँ के कँधों पर लपेटती मिनी बोली।
“माँ!काम की वजह से सामान नहीं समेट पाई।आप इधर ही आ जाओ।”
“अब कमरा समेटने की आदत डाल लो बिटिया।नहीं पराग भैया कोरिडोर में ही वेट किया करेंगे।”दरवाजे पर खड़ी काकी बोलीं
“काकी…। “मिनी के गुलाबी गाल गुलनार हो गये।पलकें शरम के बोझ से झुक गईं।
“मिनी! मेरी लाडो।अब तक इस घर में रंग बिखेरती रही।हमारे सारे रंग तू ले उड़ेगी मेरी चिड़िया।”माँ बेटी दोनों की ही आँखें नम हो गईं।मिनी माँ से लिपट गई।
“पराग की मम्मी से बात हुई बेटा।शादी की डेट नजदीक ही आ रही है।समय कब पंछी सा फुर्र हो जाएगा पता भी नहीं पड़ेगा।ढेरों तैयारियाँ करनी हैं।तुम अपनी वैडिंग ड्रैस कब लोगी ?और किस फंक्शन के लिए क्या लोगी ? डिसाइड कर लो बेटा। ड्रैसिज तैयार होने में भी टाइम लगेगा।”
“जी मम्मा!नैट पर काफी सारी ड्रैसिज देखी हैं।शादी पर लहँगा ही सही रहेगा।वो किसी भी शोरुम से ले लेंगे।मेंहदी के लिए सलवार सूट ठीक रहेगा।सगाई और रिसेप्शन के लिए साड़ियाँ लेनी है मम्मा।पराग का भी यही मन है।माँ!रिसेप्शन पर हथकरघे पर बुनी बनारसी साड़ी का बहुत मन है।”
“ठीक है बेटा!ऑर्डर कर दो।कौन सी पसंद की है मेरी लाडो ने ?”
“ऑर्डर नहीं बनवानी है माँ।बस आप हाँ तो करिए।मैंने सब सर्च कर लिया है।कहाँ जाना पड़ेगा ?
कौन बनाता है ?बनने में महीनों लगेंगे।जल्दी चलना होगा मम्मा।”
“मेरी बेटी की ख़्वाहिश से ज्यादा कुछ जरुरी है मेरे लिए! बेटियाँ और चिड़ियाँ कहाँ रुकती बेटी ?एक दिन उड़ जाती हैं।”
माँ की बात से मिनी भी उदास हो गई ।सच ही तो है बचपन से जहाँ रहो वो घर एक पल में पराया हो जाता है।
देशव्यापी बंद बढ़ता जा रहा था।कारखाने थमे,मशीने थमी।उन्हें चलाने वाले लोग थमे।देश की अर्थव्यवस्था के पहिये को रफ्तार देने वाले ही थम गये तो अर्थव्यवस्था कैसे न रूक जाती।
किसने सोचा था भागती दौड़ती जिंदगी इस तरह से थम जाएगी।
चैनलों पर बड़े बड़े व्याख्यान चल रहे थे।बंद को आज महीना भर से ज्यादा हो गया था।बनारस के पीलीकोठी के एक छोटे से घर में रहने वाले अली और रेशमा की आँखों में चिन्ता की रेखाएं तैर रही थीं।अपने हैंडलूम को साफ करता अली रेशमा को बहुत देर से चुपचाप खड़े देख रहा था।
“क्या बात है ?ऐसे चुप क्यों खड़ी हो ? “
“हाथ में कोई काम है नहीं राशिद के अब्बू?पहले काम कम आ रहा था लेकिन आता तो था।मिल बाँटकर दो वक्त की रोटी तो खा रहे थे।हथकरघे पर साड़ियाँ बुनवाकर पहनने वाले वैसे ही कम हैं।पावरलूम ने हमारा काम बंद सा कर दिया है।उस पर ये तालाबंदी!”
” हाँ रेशमा! कच्चा माल मिलने में पहले ही दिक्कतें थी।बाहर से आने वाला रेशम बंद होने से ताने के लिए रेशम की दिक्कत थी ही।इस तालाबंदी से बाने के लिए भी रेशम मिलने में दिक्कत हो रही है।”
“मैं टिक्की स्टोन लगाकर कुछ काम कर लेती थी। ऐसे में ये भी बंद हो गया।ये तो घर से होने वाला काम था।ये भी बंद करा दिया मालिक ने।भूखों मरने की नौबत आ गई है।काम हो तो पैसे आयें। भूख से कुलबुलाते बच्चे अब देखे नहीं जाते।”आँखों में उदासी के साये और गहरे हो गये।
“कुछ खाने को बनाती हूँ।”कहकर रेशमा कोने में बने चूल्हे की ओर चल दी। डब्बे में रखा आटा बस रात भर तक का बचा था।डिबिया में रखे मसाले खतम हो चुके थे।गोद का एक साल का बच्चा अलग रो रोकर उत्पात मचाये था।सूनी आँखों से मरियल बिजली के बल्ब की पीली रोशनी को निहारता अली गुमसुम था।रोज कुँआ खोद पानी पीने वालों के लिए स्थिति और बुरी हो चुकी थी। तालाबंदी में सरकार के मदद करने की खूब खबरें आ रही थीं।लेकिन उनके हाथ कोई मदद नहीं पहुँची थी।सीलन भरे कमरे के एक ओर उसके दोनों बच्चे शोर मचा रहे थे इस बात से अनजान कि उनके अम्मी-अब्बू पर पहले से चल रही विपदा में और इजाफा हो चुका है।
दरवाजा जोर जोर से खटखटाया जा रहा था।बच्चों के भूख के शोर में इस नये शोर से रेशमा झुँझला गई।
“अब इस वक्त कौन?इतनी जोर जोर से मारने पर टूट ही जाएगा।पहले ही टूटा रखा है।जरूर पड़ोस की नज़मा होगी।अब कोई काम आये तभी तो ये बुनने में मदद करायेगी।अपने घर का चूल्हा जलना ही मुश्किल है। इसके घर का कैसे जलवाऊँ?कह दीजिए मैं घर पर नहीं हूँ।”
“वो होगी तो कह दूँगा।पहले देखूँ है कौन ? “ठंडी साँस ले अली दरवाजे की ओर बढ़ गया।
दरवाजे पर सलीम खड़ा था।साथ में दो महिलायें थीं।पहनावे से अच्छे घर की लग रही थीं।युवती ने नीले रंग का जरी के चौड़े बॉर्डर का सूट पहना था।अली के कुछ बोलने से पहले ही सलीम बोला “इन्हें काटन की साड़ी बुनवानी है।साड़ी अच्छी बनाना। बाजि़ब दाम मिलेंगे।”
“कैसी साड़ी बनवानी है बहन? “
” न जाने इसे कैसी साड़ी चाहिए ?हथकरघे की बुनी प्योर सिल्क की साडी़ ही पहनेगी।काफी देर से इधर उधर भटक रहे थे।इन भाई ने बताया आपकी बनी साड़ियाँ बहुत सुंदर होती हैं।दूर-दूर तक नाम है आपका।”
“जी बहन।करम है अल्लाह का। बंदा किस लायक है। “
“प्योर सिल्क की साड़ी ही बनाना काम सोने चाँदी के तारों का ही करना।हमें असल नकल की इतनी पहचान नहीं।ये भाई बोले आप बहुत ईमानदार हो। “
“फिक्र न करिए।अली भाई बहुत बढ़िया साड़ी बनाते हैं।रेशमा भाभी के हाथ में भी माशाअल्लाह बहुत हुनर है।ऐसी बारीक कढ़ाई करती हैं कि बस नजर न हटे।”सलीम बोला
“आओ बहन।अन्दर आ जाओ।”अली ने उन दोनों को कहा।
दोनों महिलाओं ने एक दूसरे को देखा।
“हमें जल्दी है। हमारी गाडी़ बाहर रोड पर खड़ी है। हम पैदल -पैदल यहाँ तक आये हैं।
अली ने उनकी हिचकिचाहट को देखते हुए कहा “बहन अन्दर नहीं आओगी तो बात कैसे होगी ?मुझे कैसे समझ आएगा कैसी साड़ी बनवानी है।”
दोनों अन्दर आ गईं।
अब तक साँझ का झुकपुका धीरे से उतर आया था।दूर क्षितिज में सिंदूरी सूरज अवसान में जा रहा था। एक मायूसी रेशमा के चेहरे पर छाई हुई थी। चूल्हे पर एक ओर देगची में साग उबल रहा था।भूख की खौलन बच्चों के चेहरों पर पसरी हुई थी।गुरबत की झलक घर के कोने कोने से टपक रही थी।
“रेशमा……रेशमा….रेशमा कहाँ गुम हो?” अली ने पास आ रेशमा का कँधा झिंझोड़ दिया।
“आँ….. “सटपटाती सी रेशमा बोली।
“ये बहनें साड़ी बनबाने बड़ी दूर से आई हैं।बाहर आओ।”
रेशमा नेअकबका कर उन दोनों को देखा। तालाबंदी में पावरलूम के जमाने में ये कौन भटकता हुआ फरिश्ता उनके घर तक आ पहुँचा?
दोनों सहन से निकल उसकी ओर चली आईं।
“कैसी साड़ी बनवानी बहन।”
“मुझे काटन की साड़ी बनवानी है।मुगलिया अमरू और दोमक पैटर्न हो।काम जरी के साथ साथ सोने और चाँदी के तारों का।”
“ठीक है।बन जाएगी लेकिन समय लगेगा।बारीक काम बताया है आपने।”
“मेरी शादी से एक दिन पहले तक मिल जाएगी।”मुस्कुरा दी लड़की।
लड़की के चेहरे पर फैली उजास की रोशनी की कुछ किरनें रेशमा के चेहरे पर भी उतर आईं।
“शादी कब है?देने हम दोनों आ जाऐंगे।इस बहाने दावत भी खा लेंगे।”अब मुस्कुराहट की कुछ रश्मियों का सिरा रेशमा के हाथ भी आ गया।
“दो महीने की मियाद है आपके पास।और बनानी आपको ही है।इतने दिनों में कैसे करेंगे आप देखिए।”मिनी ने साधिकार कहा।
“हो जाएगा बहन।”
अली ने दिन रात हथकरघे पर खुट खुटा खुट शुरू कर दी।रेशमा और नज़मा भी दिन रात साथ लगे रहते।जाल में उकेरे छोटे छोटे एक एक डिजाइन की बारीक कढ़ाई अली ने अपने हाथों से की।छोटी छोटी पँचरंगी बूटियों से सजी जमीन पर कोनिया और बेल बूटों से सजी मुगलिया शान की साड़ी की डिजा़इन देखते ही बनती थी।अली के कुशल सधे हाथ साड़ी की खूबसूरती उकेरने में पूरी तरह कामयाब थे। रेशमा, नज़मा ने भी दिन रात एक कर दिया था।थकान हावी भी होती तो इतनी मँहगी साड़ी बुनने के बदले मिलने वाले मेहनताने की आस में अली के परिवार की आँखों की ज्योत जगमगा जाती।रेशमा की आँखें साथ-साथ ख्वाब भी बीन रही थीं।टूटी छत पर मिट्टी डल जाएगी।इस बार सना, राशिद के अच्छे कपड़े जरुर आ जाऐंगे।एक स्वेटर तो राशिद के अब्बू का भी लाएगी।पुराने फटे स्वेटर में ठंड नहीं जाती।और बिसाती पर रखी वो लाल नग की झाँझर वो इस बार अपने लिए ले ही लेगी। उसके पैरों की झाँझर की रुनझुन सना के अब्बू को कितनी पसंद है।
दिन रात के अथक परिश्रम का परिणाम आ गया।चटक लाल रंग के रंगों से सजी साड़ी में मिनी का सौन्दर्य दिप दिप दमक रहा था।बारीक सोने के तारों की बुनाई का आभिजात्य साडी़ में स्पष्ट झलक रहा था।लाखों की बनी साड़ी में गुड़िया सी सजी सँवरी मिनी इठलाई घूम रही थी।सबकी नजरों का मरक़ज मिनी और मिनी की खूबसूरत बनारसी साड़ी थी।
उधर प्योर रेशम और सोने-चाँदी के तारों के पैसे देने के बाद बचने वाले कुछ हजारों का हिसाब अली और रेशमा बार बार लगा रहे थे।दो महीने के अथक परिश्रम के बाद मिलने वाले इन पैसों में सलीम,नज़मा और रंगाई वाले का हिस्सा दे कितने हजार उनके पास  बच पाऐंगे।मुट्ठी में मिलने वाले मेहनताने को देख रेशमा की आँखों की ज्योत बुझ गई।बिना खरीदे स्वेटर के फँदे उधड़ गये।आँखों में सपनों सी बसी झाँझर के घुँघरु बिखर गये।सोने चाँदी के तार और महँगे रेशम में दिन रात काम करते बुनकरों के पास दो वक्त का ढंग का खाना भी मयस्सर नहीं था।

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