मीता जैसे ही बस स्टैंड(दिल्ली) पर पहुंची, बस चलने को तैयार थी। चढ़ते ही उसे मनपसंद कोने की सीट मिल गई। उसने टिकट ले ली। इसी के साथ कंडक्टर की घोषणा कि ‘ये बस सीधे चंडीगढ़ रुकेगी बीच की सवारी कोई नहीं होनी चाहिए क्योंकि बस बीच में नहीं रुकेगी’ ने बहुत ही राहत पहुंचाई मीता को। क्योंकि वह स्वयं भी यही चाहती थी कि इन 4 घंटों में उसे कोई भी परेशान ना करे। उन 4 घंटों में वह केवल अपने साथ रहना चाहती थी,
अपने पास रहना चाहती थी….
इन रास्तों पर… इन सड़कों पर…. इन पेड़ों के साथ बनती हुई गुफाओं में ही खोना चाहती थी…. और खोकर ढूंढना चाहती थी उस पुरानी मीता को ….. जो शायद कहीं दूर खो गई थी। बस के चलते ही मीता की यादों की बस ने भी जैसे रफ्तार पकड़ ली। उसे रास्ते सबसे ज्यादा पसंद है क्योंकि रास्ते निरंतरता, गति, सरसता प्रदान करते हैं, हमारे वजूद को, हमारे विचारों को, हमारे अस्तित्व को।
मंजिल तो एक पड़ाव बन जाती है ।यदि उससे आगे की कोई मंज़िल सोची न जाए तो वहीं अंतिम परिणति भी हो सकती है। परंतु यदि एक के बाद एक दूसरी मंजिल को तय करने की ठान ली जाए तो फिर से नए रास्ते का सृजन हो जाता है या यूं कहें कि करना भी पड़ सकता है और ये रास्ता बड़ा सुकून देता है। जब हम इस पर चलते हैं तो आत्मानुभूति परमानंद की प्राप्ति का हेतु बन जाती है।
अब मीता को याद आया कि कैसे वह बचपन में इतनी मदमस्त,अल्हड़, मस्तमौला हुआ करती थी। पूरे परिवार में सबसे सुंदर, चंचल, कुशाग्र बुद्धि, ईश्वर ने उसे दिल खोलकर प्रदान की थी। पर इन सब बातों का उसने आज तक कभी गुरुर नहीं किया क्योंकि वह मानती है कि जो चीज ईश्वर ने दी है वह हमारी है ही नहीं तो गुरूर क्यों करें।
परंतु उसकी इस सादगी का, उसके इस भोलेपन का ,उसकी इस निष्कपटता का लोगों ने बहुत फायदा उठाया। वक्त बीतने के साथ-साथ वह दौर भी आया जब वह जवान हुई और मन एक ऐसे जीवन साथी की कल्पना से भर जाता था कि वह केवल मेरा होगा,
मुझे समझेगा ,
मुझे जानेगा,
मुझसे इतना प्यार करेगा कि बस..
कैसे छुएगा,
कैसे देखेगा मुझे,
वह प्रथम मिलन कैसे होगा और भी न जाने क्या – क्या ????
सपने देखती रहती थी वो और उन्हीं सपनों के एहसास से एक गुदगुदी सी होती थी और वह इसी अहसास के साथ ही बहुत खुश हो जाती थी। हकीकत से बहुत दूर थे वो सपने ।पर कितने अपने थे…
कितने मजेदार… कितने सलोने…. कितनी खुशी देते थे…. जिसमें कोई भी मिलावट नहीं थी… किसी की कोई भी रोक-टोक नहीं थी। पूरी तरह अपने थे… और इन सपनों से किसी को कोई नुकसान नहीं था ।वरना जैसा आज का जो माहौल है मीता का वह तो उसे सपने देखने पर भी पहरा लगा देते, ऐसे सपने मत देखो, यह मत सोचो, वह मत सोचो…. ….आदि…
और शादी हुई ।जैसा मैंने सोचा था ऐसा कुछ भी संभव नहीं हो पाया। आज शादी के 20 साल बाद पीछे मुड़कर देखती हूं तो 20 सालों की कमाई में उसे सिवाय 2 बेटियों के और कुछ नहीं नज़र आता। कुछ भी उपलब्धि, प्राप्ति नजर नहीं आती। क्या मिला इन 20 सालों में???????? सोच कर खुद ही खीज जाती है मीता। क्यों चाहा इतना इस इंसान को?
क्यों इतनी पूजा की?
क्यों इसकी हर छोटी बड़ी गलती बर्दाश्त की? क्यों हर गलत बात पर मनाया ?
क्यों हर बात पर वही झुकी है?
जबकि उसकी कोई गलती नहीं थी?
क्यों हर बार ही उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए दोषी ठहराया गया?
हर बार उसने ही क्यों अपना स्वाभिमान छोड़कर सब के पाँव छूए?
क्यों ?
आखिर क्यों ?
वह भी तो प्रतिवाद कर सकती थी। गलत बात का विरोध कर सकती थी जैसा कि उसके परिवार की अन्य स्त्रियां कर रही थी। सभी उससे रूप- रंग में, पढ़ाई में, संस्कारों में, सेवा भाव में, आज्ञकारिता में हर चीज में पीछे ही तो थी ।पर फिर भी कैसे सब अपने स्वाभिमान के साथ रह रही थी ।और दूसरी तरफ मीता ने क्या कुछ सहन नहीं किया। पियक्कड़ पति की मार, उसके ताने, उसकी यातनाएं ,उसकी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना। उसकी इच्छाओं के आगे हमेशा ही अपने आप को एक लाश की तरह समर्पित कर देना, अपने देह को उसके आगे प्रस्तुत कर देना क्योंकि प्रतिवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी, और अब….
जब इन सब चीजों के मायने और इच्छाएं जागृत होती है तो बदले में उसे कुछ नहीं मिलता ।वह इन सब चीज़ो के लिए तरस ही रही है क्योंकि समय बीत गया जो उम्र का एक अंतर था। वह अब समझ में आ रहा है। जो इच्छाएं, शारीरिक कामनाएं उसके पति में तब जागृत थी।अब उसे उन चीजों की कमी महसूस होती है। इसीलिए शायद कहा जाता है कि शादी के समय लड़का और लड़की में उम्र का ज्यादा फर्क नहीं होना चाहिए ।बड़े बुजुर्गों की ये बातें आप समझ में आती हैं ।पर उस समय क्या…. क्योंकि तब वह अकेली थी। माता-पिता को बताया नहीं। शायद इसे ही नियति मानकर सब सहन कर लिया। वक्त ने इतना सब सहन करवा दिया कि अब तो किसी खास बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता था। फिर भी सब झेल गई। बच्चों की ममता ही ऐसी होती है। बच्चों के चेहरे पर जो अबूझे सवाल होते हैं उसका जवाब देना सबसे कठिन होता है।
पर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। जिंदगी ऐसे ही चलती रही। किसी की भी नजरों में कोई आत्मग्लानि नहीं, कोई पछतावा नहीं और इन सबकी नजरों में कोई खास काम भी नहीं किया था मीता ने ।पर जो हसीन पल उसकी जिंदगी ने छीने हैं तो उनका हिसाब कौन दे सकता था……. क्या दुनिया की कोई भी ताकत उन बीते हुए पलों को वापस लाकर उसकी झोली में डाल सकती है???? जिस अल्हड़पन से वह उन छोटी-छोटी ख्वाहिशों में अपने आप को दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत मानती थी…… क्या वह बेपरवाही,
वह मासूमियत कोई लाकर दे सकता है……. कभी नहीं……..
जब भी उसने अपने आपको दु:खी पाया तो उसके साथ कोई भी खड़ा नजर नहीं आया। इसलिए शायद कागज कलम और ईश्वर को ही अपना साथी माना मीता ने। वो सोचती है कि हम भगवान को अपनी व्यथा क्यों सुनाते हैं? चाहे वो किसी भी धर्म मजहब के क्यों न हों?….
पता है क्यों ?
क्योंकि वो प्रतिवाद नहीं करते। जब हम अपना दु:ख उन्हें सुना रहे होते हैं तो बीच में उन्हें कोई काम नहीं पड़ता। उन्हें कोई बुलाता नहीं है। वह सिर्फ हमारे पास होते हैं, हमारे साथ होते हैं, और जब तक हम अपना पूरा दु:ख ,अपना पूरा विषाद उनको कह कर अपना बोझ हल्का नहीं कर लेते, अपने आंसुओं से अपने मन को तो नहीं धो लेते, वह हमारे साथ रहते हैं। बल्कि वह तो सदा हमारे साथ ही बने रहते हैं। पर यह बात दूसरी है कि सुख में हमें उनकी जरूरत नहीं पड़ती या हम उनको याद करते ही नही।( पर दुःख में तो उनके सिवा कोई और याद आता ही नहीं )
और जब हम सब कुछ कह लेते हैं तो ईश्वर का मुस्कुराता हुआ चेहरा हमें पुन: खड़े होने की शक्ति देता है और नवचेतना के साथ हुए सब कुछ सहन करने का हौसला और आशीर्वाद देता है। ऐसा मीता ने बहुत बार महसूस किया क्योंकि गृहस्थी में सुख किसे कहते हैं वह पता ही नहीं चला मीता को।लगता है जैसे सब मिलकर कुछ नहीं मिला ।अपना कुछ लगा ही नहीं। सब भीख में मांगा लगता है। हर चीज को देखकर लगता है जैसे इसकी अधिकारिणी ही नहीं थी वो। इस पर दया करके यह सब उसे मिला है । इन सब के साथ सबसे ज्यादा वह खुद को ही दोषी मानती है क्योंकि वो खुद ही बेचारी बन कर रही ।अब तक क्यों अपना सर नहीं उठाया? क्यों अपने अधिकारों की मांग नहीं की? आखिर क्या कमी है उसमें? सबसे सुंदर, आज्ञाकारिणी, शिक्षित, मेहनती, ममतामयी, करुणामयी स्त्रियोचित सब गुण तो थे उसमें। अपितु कुछ ज्यादा ही मात्रा में थे। तो फिर क्यों दबती रही सबसे। जो कोई देखो उसे ही समझा कर चला जाता है। जिसकी औकात नहीं है समझाने की वह भी इतना कुछ सुना कर चला गया ।लेकिन क्यों उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया ?
क्यों सबको इतनी महत्ता दी ?
क्यों आदर्श बहू बनने का भूत सवार था उस पर?
अब क्या मिला ??????
सब होते हुए भी कोई सुख नहीं मिला। पति होते हुए भी आलिंगन तक को तरस जाती है। पुरुष के स्पर्श को भी…..
यकीन नहीं आता ना….. पर यह सच है। एकांत के क्षणों में भी कितनी बार अधूरी रह गई है वो…… चरमोत्कर्ष प्राप्त ना करके भी, स्वयं अधूरी रह कर भी पति को संपूर्ण सुख प्रदान किया ।पर इसका भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा, कोई आत्मग्लानि नहीं
“लहरों को तड़पता छोड़, कर वो खुद नहा कर चल दिए“
यह न जाने कितनी बार हुआ। पर फिर भी उसने कुछ नहीं कहा। जिस बात पर नामर्दी की लानतें देकर औरतें अपने ससुराल को छोड़कर जा चुकी है, वहीं अधूरापन भी सहन कर रही है मीता। वह भी ना जाने कितने वर्षों से। यह भारतीय नारी की विडंबना ही कही जाएगी कि वो अपनी शारिरिक इच्छाओं को प्रदर्शित नहीं कर सकती, या कर नहीं पाती। एक लज्जा का आवरण होता है जो शायद कभी नहीं हटता। वर्तमान की परिस्थितियां अपवाद हो सकती हैं जहां नारी अपनी हर इच्छा को, अपनी हर मांग को खुले तौर पर कहती है, और स्वीकार करने के लिए मजबूर भी करती है। यदि पुरुष की इच्छा है तो नारी की भी इच्छाएं हैं ,और यह प्राकृतिक है। इसमें उसका कोई दोष नहीं। परंतु ना जाने वह यह सब क्यों नहीं कर पाई। शायद दोनों के बीच की उम्र का फ़ासला हर तरह से कहीं ना कहीं बाधक बनता है। जहां एक तरफ शारीरिक इच्छाओं का संतुलन नहीं बन पाता। वहीं मानसिक स्तर पर भी संतुष्टि मिल पाना संभव नहीं है क्योंकि इतने अंतर पर विचार भी नहीं मिल पाते। इस तरह ना तो मानसिक संतुष्टि ही मिल पाई और शारीरिक संतुष्टि की तो बात ही पीछे छोड़ दी गई ।
अब क्या करें कुछ समझ नहीं । पर अपने दु:ख,विषाद को हल्का करने के लिए सच्चे साथी की तलाश में पेन और कागज का सहारा लिया जो अपने सीने पर सब घाव झेल लेता है। और इसी के साथ एक धरोहर की तरह सब कुछ अपने अंदर ही कहीं छुपा कर रख लेता है जो भविष्य में एक रचना बनकर, साहित्य की एक विधा बनकर सबके सामने आती है।
कुछ ऐसा ही हुआ मीता के साथ भी। उसकी लिखने की इस आदत ने उसे लेखिका के रूप में समाज के सामने न जाने कब प्रतिष्ठित कर दिया। यह सब उसके ससुर जी के आशीर्वाद का फल है। वह तो उसकी सेवा से बहुत खुश होते थे। उन्हें याद करके मीता के गोरे गालों पर दो मोती उभर आए।नियति को कुछ और ही मंजूर होता है जो शायद हम सोच भी नहीं पाते। आज मीता एक चढ़ते सूरज के समान है जिसका नाम दिनोंदिन प्रसिद्ध होता ही जा रहा है। लोगों को उस में असीम संभावनाएं नजर आने लगी है जो उसके परिवार वाले शायद कभी नहीं देख पाए। यह उन्नति सब न चाहते हुए भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। आदमी चाहे कितना भी कहें पर औरत की प्रसिद्धि को सच्चे अर्थों में बर्दाश्त नहीं कर पाते। यहाँ पर दो फिल्मों के नाम लेना ज्यादा सही है… अभिमान और अस्तित्व क्योंकि फिल्मों से जीवन प्रभावित होता है और जीवन से फिल्में। शायद अब हर समय की खीज,एक अजीब सा व्यवहार, एक अनमना से माहौल इसका कारण है।
पर अब मीता को इन सब चीजों से कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब वह जीना सीख गई है। जिन लोगों ने उसे ठुकराया, उसे हर समय दुतकारा अब उन्हीं से अलग रहना उसने नियति मानकर अपने आपको खुद के सहारे के साथ खड़ा कर लिया और वह जीना सीख गई है ।अपने आप के साथ….. अपने आप में। अब किसी के सहारे की जरूरत महसूस नहीं होती। हो भी क्यों…. जब सबसे ज्यादा जिसके सहारे की जरूरत थी तब ही नहीं मिला तो अब क्या औचित्य है इन सब बातों का…..
तो क्यों ना उसी सहारे की तरफ बढ़ा जाए जो अंतिम, अनंतिम सत्य है और जो कभी छूटता नहीं। बल्कि संसार छूटने के बाद भी जो सबसे अपना है…. सबका अपना है….. वही ईश्वर….. वही सच्चिदानंद….. वही हारे का सहारा….. सबसे अपना….. सबका अपना …… सदा सर्वदा…… अब मीता थोड़ी दार्शनिक अंदाज में हो गई है क्योंकि……
“दर्द जब हद से बढ़ जाता है तो
दवा बन जाता है…….”
उसी को अब मीता अपने सबसे ज्यादा अपने करीब मानती है।इतने में ही मीता की तंद्रा टूटी बस चाय पानी के लिए रुकी थी। मैडम पानी…. चाय लोगे मैडम…. मीता ने मुस्कुराकर एक कप चाय ले ली और फिर बस चल पड़ी। अब मीता अपने फ्लैशबैक से वापिस आ चुकी थी। पर इन 2 घंटों में उसने अपनी पूरी जिंदगी देख ली थी जिसमें खुशी का तो शायद नाम ही था सिवाय उस दौर के जब उसने अपने बच्चों का बचपन भरपूर जिया था उसने। वरना तो……
“गम हंसता रहा,
खुशी रोती रही
जिंदगी भर, जिंदगी पाने के लिए,
जिंदगी रोती रही……”
यही थी उसकी जिंदगी।
पर अब यह नहीं। अब तो आज आत्मविश्वास से भरी मीता खुद एक मिसाल बनने की तैयारी में है ।अपनी मेहनत, अपनी काबिलियत के बल पर। एक समय ऐसा आता है जब सब पीछे छूट जाता है, इन रास्तों की तरह… चलते चलते जाने कहां तक ले जाते हैं…..
अपने साथ – साथ चलाते ले जाते हैं….. चलाते जाते हैं….
हमें अनवरत….. यादों के साथ….
सपनों के साथ …..
उम्मीदों के साथ…. ये रास्ते….
ये रास्ते….. जिंदगी के रास्ते….
जब तक जिंदगी है .जब तक रास्ते हैं…
रास्ते हैं .. तो हौसले हैं…..
हौसले हैं…. तो मंजिलें हैं…..
क्योंकि…
“कुछ दिन की खामोशी है, फिर शोर आएगा तुम्हारा तो वक्त आया है ,हमारा दौर आएगा”
और जब आएगा तो…. आता ही चला जाएगा….. आता ही चला जाएगा….जीवन में बुढ़ापे की तरह…. जो एक बार आता है…. तो आता ही चला जाता है….।
यही सोचा है मीता ने।
अब और नही। अब वह पूरी तरह आश्वस्त है अपने साथ क्योंकि “कोई” तो सिर्फ नाम ही है। पर जो भी है बहुतों के पास तो यह भी नहीं है। फिर भी “है”, “नहीं” से बेहतर है क्योंकि…
“‘है’ भी बनता ‘नहीं’ से है
पर मजा जो ‘है’ में है,
वो ‘नहीं’ में नहीं ।”
बस तो क्या करना है। पर फिर भी हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए इन कोई का होना बहुत जरूरी है और इस सत्य को मीता जान चुकी है ।इसीलिए सब नियति का खेल मानकर स्वीकार कर लिया है क्योंकि…
“जो मन का हो तो
‘हरि कृपा’…
और मन का ना हो तो
‘हरि इच्छा’….”
बस इससे ज्यादा और क्या कहा जा सकता है।
“मैं स्वयं हूं…. अपने साथ
अपने पास….
कोई नहीं है मेरे आस-पास….
सिर्फ मैं और मैं……
इतने में ही चंडीगढ़ आ गया और मीता ने इन 4 घंटों में अपनी 40 साल की जिंदगी को मानो दोबारा जी लिया हो और जो ग़लतियां हुई भोलेपन में, नादानी में, उसने न दोहराने का निर्णय लेकर दुनिया की चालबाज़ियों का मुकाबला करने के लिए मीता बस से उतर गई और निकल पड़ी इन्हीं रास्तों पर एक अलग आत्मविश्वास के साथ……
एक जूनून के साथ…… क्योंकि वह जानती है
ये रास्ते ही सही मंजिल की ओर ले जाएंगे…
यही रास्ते ……..
…और मीता तेजी से इन्हीं रास्तों पर कदम बढ़ाती चलती गई …..
चलती गई …..और इन्हीं रास्तों पर ओझल हो गई……।
अत्यंत मनोहारी व यथार्थपरक कहानी मुझे तो यह संस्मरण से लगा, एक दम दिल से दिल तक