अशरफ दिन भर की बोझिलता दूर करने की गरज से अपने दोनों बच्चों को मान-मनव्वल के बाद रात्रि-भोज के लिये लखनऊ शहर के नामी होटल रेनेसां ले आया था। हालिया खुले इस होटल की नवीं मंजिल की विस्तृत बालकनी में रेस्टोरेंट था, जहाँ से गोमती नदी का रोशनी से नहाया रिवर फ्रंट एरिया सुंदरता के प्रतिमान गढ़ रहा था। आ-जा रहे वाहनों से जीवंत दिलकश नज़ारे मन को लुभाने के लिये पर्याप्त थे। यही वजह है कि यहाँ लंच या डिनर के लिए हफ़्ते भर पहले से टेबिल बुक करानी होती है। 
दूर-दूर तक शहर के हरे-भरे सुंदर दृश्य यहाँ से देखे जा सकते हैं। गोमती नदी के समानांतर बनी सड़क के दोनों ओर एवं रिवर बैंक साइड के आसपास स्थापित महापुरुषों की आदमकद विशाल मूर्तियाँ व उसके आस-पास बने फव्वारों की अनवरत जलधार के साथ निकलती रंग-बिरंगी रोशनी सारे वातावरण को सुखद अनुभूति से भर देती है।
बच्चों की माँ को घर से गये दो माह हो रहे थे। सत्रह वर्षीय बेटी सफीना समझदार थी, परंतु उससे छह वर्ष छोटा उसका भाई अब्दुल्ला अभी नासमझ था। उस किशोर को पूरी तरह से नासमझ भी नहीं कह सकते थे। वह दीन की बातें, मजहबी परंपराओं को क्या और अभी से क्यों समझे? दरअसल वह अपनी अम्मी के एवज में समझना भी नहीं चाहता था। उसकी एक ही रट थी, “अम्मी को गफ्फार अंकल के पास से तुरन्त घर वापस बुलाइये।”
उसकी अम्मी उसके बिना कैसे रह पा रहीं हैं?’ किशोर मन में यह प्रश्न तमाम अन्य प्रश्नों की तरह अब्दुल्ला को हर पल कुरेदता रहता था। चुप्पी, विवशता और क्रोध का समवेत रूप उसे अपने अब्बा से विद्रोही बना रहा था। अशरफ़ भी सयाने हो रहे बेटे से नज़रें चुराये रहता था।
वेटर मीनू कार्ड रख गया। बेटी सफ़ीना ने अपने पिता की स्थिति शायद समझ ली थी। पिछले दो माह से वह बेचारी स्थिति ही तो समझ रही थी। उपज आई परिस्थितियों से तालमेल बैठाती, मोहल्ले से लेकर कॉलेज तक घूरती आँखें और कटाक्ष वह सुनती-सहती आ रही थी। 
मीनू कार्ड पढ़कर सफ़ीना ने भाई की पसंद की सारी डिशेज आर्डर कर दीं। अब्दुल्ला अपने जूते के खुल गए फीते को बाँध नहीं पा रहा था। सफीना उसकी मदद को झुकी तो वह बोला कुछ नहीं परंतु हल्के से गुर्राया, जैसे अनजान व्यक्ति को देख खामोश डाबर नस्ल का कुत्ता पहले धीरे-से गुर्राता है, ठीक वैसे ही। सफीना सहम कर वापस अपनी कुर्सी पर पूर्व की तरह तन कर बैठ गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
अशरफ ने सिगरेट सुलगाई, फिर बुझा दी और स्मोकिंग जोन में आ गया। वहाँ उसने अँगुलियों में फँसी सिगरेट लाइटर से पुनः सुलगाई और धीरे-धीरे कश खींचने लगा। उसके चेहरे पर तनाव स्पष्ट नज़र आ रहा था और इसी तनाव ने इन दिनों उसे सिगरेट का लती बना दिया था। कभी-कभार सिगरेट पीने वाला अशरफ दो माह में ही चेन स्मोकर बन चुका था।
दो माह पहले की उस मनहूस रात को अशरफ कैसे भूल सकता है, जब वह ऑफिस में बॉस से हो गई लानत-मलानत के साथ थका-हारा देर शाम को अपने घर पहुँचा था। 
अपने बड़े भाई के बेटे की बर्थ-डे पार्टी में जाने के लिए रूबिया बच्चों सहित तैयार बैठी उसी का इंतजार कर रही थी। दरवाजे से अंदर कदम रखते ही रूबिया ने याद दिलाते कहा, “सुनो जी! हाथ-मुँह धोकर जल्दी तैयार हो जाओ। भाईजान कब से इंतजार कर रहे हैं, उनके अब तक दस फोन आ चुके हैं।” रूबिया उसे तौलिया थमा किचिन की ओर भागी। महरी ने कोई बर्तन तोड़ा था। वह जूते खोल, दो पल को पंखे की हवा ले सुस्ताना चाहता था, ‘पन्द्रह किलोमीटर व्यस्त सड़क पर गाड़ी उसे खुद चलानी थी। देर रात वापसी भी उफ्फ! आज ही बॉस से पंगा और आज ही ये बर्थ-डे पार्टी।
हरामिन ने इतना सुंदर काँच का महँगा मर्तबान गिरा दिया…. अरे तुम तैयार नहीं हुए?” हैरानी से उसे ताकती रूबिया आगे गोली-सी दागते तैश में बोली, “तुम्हारे भाई-बहन के यहाँ कुछ होता, तो ऑफिस से छुट्टी ले लेते….”
उलाहना व्यंग्य के साथ अशरफ को विचलित कर गया, फिर भी वह संयत होते बोला, “मैं बहुत थक गया हूँ, उठा नहीं जा रहा। ऐसा करो ओला बुक कर लो और बच्चों संग चली जाओ।”
क्या? वहाँ सब क्या कहेंगे?”
कह देना मेरी तबियत नासाज थी।”  
तौबा!… तौबा! मैं झूठ क्यों बोलूं
अल्लाह! से डरो अशरफ मियाँ।” रूबिया उससे एक माह बड़ी थी और बचपन से ही संयुक्त परिवार में रहने की वजह से उसका नाम बेधड़क लेती आयी है।
रूबिया! ये तुम हर बात पर अल्ला मियाँ को बीच में क्यों ले आती हो?” दरअसल अशरफ का मूड रूबिया के भाई के जिक्र के समय से ही खराब हो गया था, जिसे वह बचपन से ही नापसंद करता चला आ रहा है। 
देखिए जी।”
क्या देखिए जी।” बॉस का चेहरा और उनके साथ हुई झड़प दोनों उसकी आँखों के सामने छा गए, “कह दिया न थका हूँ, नहीं जा सकता, तो नहीं जा सकता।” अशरफ की आवाज़ में तल्खी व स्वर में तेजी आ गई थी। 
कैसे नहीं जा सकते आपको चलना ही पड़ेगा।”
कोई जबरदस्ती है क्या?” इस बार अशरफ के स्वर में नरमी आ गई थी, पर मन में डिठाई भी थी, “जाओ! ओला कर लो मुझे बक्श दो।”
देखो! अशरफ मियाँ! कहे देती हूँ.. गई तो फिर वापस नहीं आऊँगी।” 
क्या”
अबकी गई तो वापस नहीं आऊँगी। लानत है ऐसे शौहर पर।”
मुझ पर लानत भेजती है …बदतमीज औरत!” अशरफ के मुँह से एकाएक निकल गया।
बदतमीज कहा मुझे! भाईजान से शिकायत करूँगी।” बदतमीज शब्द सुन रूबिया रुआँसी और आहत हो गई।
जा कह देना, जो कहना हो कह देना। बचपन से जानता हूँ, साले बदजात को। महा का दब्बू। खुदा जाने फ़ौज में भर्ती कैसे हो गया। लुल कहीं का।” अशरफ का मूड उखड़ चुका था।
हाय अल्ला! भाईजान को बदजात, दब्बू और लुल कहा।” रूबिया दोनों कानों पर हाथ रखते बैडरूम से बाहर निकल आई।
सफीना बेटा कैब बुक करो।” ड्राइंगरूम में टीवी देख रहे दोनों बच्चों ने अपनी अम्मी को बदहवासी में देखा। एकाएक अम्मी को इस हाल में देख सफीना ने टीवी की आवाज पहले कम की, फिर गम्भीरता समझ टीवी बन्द ही कर दी। उसे अब्बू-अम्मी की लड़ाई में टीवी को लेकर डाँट नहीं खानी थी।
टीवी क्यों बन्द कर दी आपा!” अब्दुल्ला ने सफीना के हाथ से रिमोट छीनकर टीवी पुनः चालू कर लिया।
बेडरूम में पहले से ही गुस्से में तमतमाये बैठे अशरफ को अनदेखा कर रूबिया ने पलंग से अपना हैंड- बैग उठाया और बोली, “सुनो मियाँ! सफीना ने कैब बुक कर दी है।”
हाँ! ठीक है जाओ जहालत की भी हद होती है।” 
जहालत! मैंने कौन-सी ज़हालत की है? जब देखो तब आप मेरे मायके वालों को बुरा-भला कहते रहते हो।”
हाँ! हाँ! जा और सुन बड़ी जुबान वाली है, तो लौटकर मत आना।”
हूँ… देख लेना सुबह ही कुत्ते की तरह दुम दबाते चले आओगे मियाँ!” 
रूबिया के इन शब्दों ने अशरफ के तनबदन पर आग लगा दी। उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान में जाकर फट पड़ा। वह तेज आवाज़ में चिल्लाते हुए बोला, “क्या कहा जाहिल औरत! जा मैं तुझे इसी वक्त  तलाक देता हूँ, तलाक, तलाक, तलाक।” बैडरूम के दरवाजे की चौखट पर अवाक खड़ी रूबिया को दरवाजे से परे धकेल अशरफ ने धड़ाक से दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया।
किचन में अपना काम निपटा कर निकली महरी बोल पड़ी, “हाय अल्लाह! यह क्या गजब ढा दिया? बेगम साहिबा को तलाक दे दिया।” वह अपने दोनों कानों पर हाथ रखते पल भर में ड्राइंगरूम पार करते हुए घर से बाहर निकल गई। 
परस्पर लड़ाई में मशगूल अशरफ और रूबिया को यह अंदाजा भी नहीं रहा कि महरी अभी अपना काम निपटा रही है। अशरफ को महरी के शब्द सुनाई दिए। वह बेडरूम से बाहर आ गया। उसे अंदाजा था कि घर में कोई बाहरी नहीं है और महरी भी अपना काम करके जा चुकी है। एकाएक गुस्से में बोला गया तलाक.. या अल्लाह! उसने यह क्या कर दिया?’ अशरफ को अपनी गलती का एहसास जल्दी हो गया। वह तेजी से रूबिया के पास पहुँचा, पर उसने गुस्से के मारे उसका हाथ परे झटक दिया।
अम्मी कैब आ चुकी है, देर हो रही है। सफीना बाहर से आते हुए बोली।
रूबिया ने बिना वक्त गँवाये बेटे अब्दुल्ला की बाँह पकड़ी और घर के बाहर खड़ी कैब में जा बैठी। अशरफ बदहाल और असमंजस की स्थिति में कभी कैब को जाते देख रहा था, तो कभी सड़क पर बिजली के खंभे पर टँगी जल-बुझ रही फ्यूज ट्यूब लाइट को। बेबस दरवाजा बंद कर वह ड्राइंगरूम में आ गया।
 ‘या अल्लाह! उसे जरा भी ध्यान नहीं रहा था कि घर के अंदर कोई बाहरी रुका हुआ है। महरी किसी को खबर न कर दे।इसी उधेड़बुन में बैठा अब्दुल्ला कभी टीवी चालू करता, कभी बंद करता कभी किचन में जाकर पानी लेकर पीता, तो कभी रूबिया के मोबाइल पर फोन मिलाता। रूबिया ने अपना फोन बंद कर रखा था। सफीना के फोन पर घंटी गई, पर फोन तुरंत ही कट गया। फोन रूबिया ने ही काटा होगा।अशरफ बड़े पशोपेश में पड़ गया था। उसने रूबिया के बड़े भाई लियाकत को अपनी गलती की माफी माँगते फोन पर सारा माजरा बयान कर दिया, साथ ही यह भी बताया कि घर की महरी ने उसे तलाक कहते सुन लिया है। लियाकत से बात पूरी होने के साथ ही दरवाजे की कॉलबेल बजी। अशरफ को लगा जैसे रूबिया बच्चों के साथ वापस आ गई है। 
स्वयं से प्रायश्चित करते हुए वह बड़ी उम्मीद के साथ दरवाजे की ओर बढ़ा, पर दरवाजा खोलते ही उसे रूबिया की जगह मुहल्ले की मस्जिद के बुजुर्ग इमाम साहब खड़े दिखे।
‘… तो क्या महरी ने इमाम साहब को खबर कर दी?’ 
अशरफ मियाँ! क्या खड़े-खड़े दरवाजे से ही रुखसत कर देने का इरादा है। अंदर नहीं बुलाओगे?” इमाम साहब अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते बोले।
 “नहीं जनाब आइए, आइए अंदर तशरीफ़ रखिए।”
इमाम साहब ड्राइंग-रूम में अंदर आकर सोफे पर छड़ी का सहारा लेते बैठ गए, फिर अशरफ को घूरते हुए बोले, “तो मियाँ आपने….”
हाँ इमाम साहब! मुझसे गुस्से में बहुत बड़ी गलती हो गई।” पास खड़ी महरी को देखते हुए अशरफ ने कहा, “इसे मेरी गलती समझ कर मुआफ़ कर दिया जाय। आप जो हर्जाना कहेंगे भर दूँगा, पर यह बात बाहर न जाने पाए।”
ला हौल विलाकुव्वत मियाँ क्या बात करते हो? शरिया के रास्ते चलोगे या अपनी मनमानी चलाओगे, अल्लाह के कुफ्र से डरो।”
इमाम साहब अब आप ही रास्ता बताइये। मैं अपनी बीवी से बेपनाह मुहब्बत करता हूँ। अपनी गलती कैसे सुधारूं?” 
मियाँ आपने अपनी बीवी को तलाक दे दिया है। शरीयत के अनुसार अब वह आपकी बीवी नहीं रही।”
मेरे दो बच्चे हैं। शादी हुए अठ्ठारह साल हो गए हैं। इमाम साहब! उसके बिना सब तबाह हो जाएगा।”
यह सब तलाक देते समय सोचना था। तलाक देना औरत का सबसे बड़ा अपमान करना होता है।”
अब क्या करूँ? गुस्से में गलती कर बैठा, कोई रास्ता बताइए।” अशरफ का गला भर आया। आँखों से पछतावे के आँसू छलक आये।
सुनो मियाँ! शरीयत के मुताबिक़ अब एक ही उपाय है, जिससे तुम्हारी बीवी तुम्हारे पास वापस आ सकती है।”
जी बताएँ इमाम साहब!” अशरफ ने महरी को दो गिलास पानी लाने का इशारा किया।
देखो मियाँ! हमारी कौम में शरिया का कानून चलता है। जब तलाक-शुदा औरत किसी गैर मर्द से निकाह कर लेती है, जिसे निकाह हलाला कहते हैं और उससे भी उसका तलाक हो जाता है, तब वह इद्दत का समय चार माह दस दिन पूरा कर अपने पहले शौहर के साथ दोबारा निकाह पढ़ उसके पास  वापस आ सकती है। इसमें न तो दूसरे शौहर पर  तलाक देने का दबाव या कोई जोर जबरदस्ती चलती है न ही औरत पर दबाव डाला जा सकता है।”
इमाम साहब निकाह हलाला के अलावा कोई और रास्ता नहीं है, मेरा मतलब आप अपने तक यह बात रखें, जो रुपये पैसे कहें मैं देने को तैयार हूँ, पर यह निक़ाह हलाला न कराना पड़े।”
लाहौल विलाकुवत! तौबा-तौबा क्या कह रहे हो मियाँ? होश में तो हो.. मुझे रिश्वत की पेशकश उफ्फ़ अल्लाह के ख़ौफ़ से बचो… तौबा… तौबा।” बुजुर्ग इमाम साहब छड़ी के सहारे गुस्से से काँपते हुए उठ खड़े हुए।
अरे नाराज़ मत होइए आप बैठिये…महरी से मुखातिब हो अशरफ ने कहा, ‘इमाम साहब के लिये चाय बना लाओ जल्दी से… क्या लेंगे आप? चाय, कॉफी या शर्बत?”
अब रात में शर्बत कौन पीता है?’ एकाएक नम्र होते इमाम साहब महरी से बोले, “चाय बना दो और सुनो चीनी मत डालना।” छड़ी के सहारे वापस अपनी जगह पर बैठते हुए अशरफ से बोले, “क्या बताएं? अमां! डायबिटीज ने बुरी तरह जकड़ रखा है।”
जी ज़नाब।” अशरफ ने हाथ का सहारा देते कहा।
मियाँ एक रास्ता है चाहो तो अपना सकते हो।”
जी बताएँ।” अशरफ को उम्मीद की रोशनी नज़र आई।
मैंने ऐसे कई मामले सुलझाए हैं… आप चाहो तो मेरे साथ निक़ाह पढ़वा दो। हफ़्ते दस दिन में मैं तलाक़ दे दूँगा, फिर इद्दत का समय पूरा हो जाने के बाद आप निक़ाह कर लेना… हाँ एक बात निक़ाह हलाला के एवज़ में मुझे पचास हज़ार पेशगी और पचास हज़ार तलाक़ देने के बाद देने होंगे।” इमाम साहब अपनी लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले।
अशरफ़ को इमाम साहब का यह प्रस्ताव बेहद नागवार लगा, पर वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए वह ख़ामोश रहा। कोई और मौक़ा होता, तो निश्चित ही वह अब तक इमाम का टेटुआ दबा चुका होता।
महरी चाय बना लाई।
महरी से आँखें मिलते ही अशरफ को तेज ग़ुस्सा आया, ‘इसके द्वारा ही इमाम तक सूचना पहुँची… नहीं तो…अशरफ को मन-मसोस कर रह जाना पड़ा। इमाम साहब अपनी चाय सुड़कते रहे। 
मियाँ! ऐसा है अब हम जा रहे हैं, खबर मिली थी, तो आकर तस्दीक कर ली। जैसा हो बता देना, खुदा हाफ़िज!”
बेख्याली में डूबे अशरफ को यह अंदाजा भी नहीं रहा कि ड्राइंगरूम से इमाम साहब और महरी कब रुखसत फ़रमा कर गए।
बाहर निकलते ही महरी ने इमाम साहब की ओर इनाम पाने की उम्मीद से देखा। इमाम साहब ने कुर्ते की जेब से दो सौ रुपये का कड़क नोट महरी के हाथ पर थमाते हुए कहा, “देख अगर मुझसे निक़ाह हलाला होता है, तो पहले की तरह तेरा हिस्सा तुझे जरूर मिलेगा।”
महरी खुश होते अपने रास्ते चली गई और इमाम साहब भी मस्जिद की ओर चल दिए। ईशा की नमाज़ का वक्त हो चला था। मुअज्जिन होने के कारण उन्हें ही वजु करने के बाद ईशा की नमाज़ के लिये अजान देनी थी।
यह एक विडम्बना रही कि घर के बड़े बुजुर्गों से लेकर रूबिया की अम्मी भी किसी भी सूरत में रूबिया को हलाला कराए बिना अशरफ़ के पास फटकने देने के लिए राजी नहीं हुईं और कमोवेश ऐसी ही मंशा सुदूर गांव में रह रहीं अशरफ़ की वयोवृद्ध अम्मी द्वारा भेजे फ़रमान में स्पष्ट थी। दो औरतें स्वयं एक औरत को शरीयत का वास्ता दे पराये मर्द से हलाला निक़ाह कर शारीरिक सम्बन्ध बनाने के  लिए न केवल वक़ालत करने में लगीं रहीं, बल्कि अंत तक हलाला निक़ाह को औरत की पवित्रता बताती रहीं थीं।
अब्बा! आइए खाना लग गया है।” बेटी सफ़ीना की आवाज़ कानों में पड़ते ही अशरफ ने अपनी उँगलियों में फँसी आधी सुलगी सिगरेट मसल कर डस्टबिन में फेंक दी। रिवर फ्रंट की जगमगाती रोशनी और गाड़ियों की आवाजाही शहर को जिंदा रखे थी।
काश उस दिन उसने इमाम साहब की सलाह मान ली होती, तो दोस्त से दुश्मन बने गफ्फार की वादा-खिलाफी और जलालत न झेलनी पड़ती। नामाकूल पता नहीं कब रूबिया को तलाक देगा? कब वह बच्चों के पास वापस लौटेगी?’ अशरफ सफीना के पीछे-पीछे चल दिया। 
टेबल पर ऑर्डर किया हुआ खाना सजा हुआ था। अशरफ हाथ धोने वाश-बेसिन की ओर बढ़ा, उसने कनखियों से अब्दुल्ला को निहारा, जिसने अपनी पसंद की डिश को काँटा-चम्मच से खाना शुरू भी कर दिया था।
हाथ धोते अशरफ की निगाह की जद में पारदर्शी कैप्सूल लिफ़्ट में सवार गफ्फार और रूबिया ऊपर की ओर आते दिख गए। अशरफ भौंचक-सा उन दोनों को कुछ पल देखता-कुढ़ता रहा, फिर वह शीघ्रता से लिफ़्ट के गेट तक पहुँचा, उसके पहुँचते ही लिफ़्ट का दरवाज़ा खुला। अशरफ़ ने लिफ़्ट के अंदर प्रवेश करते ही गफ्फार का हाथ पकड़कर धीरे किन्तु तल्ख अंदाज में कहा, “अंदर ही रहो, नीचे चलो। बड़ी मुश्किल से दोनों बच्चों को मनाकर लाया हूँ, तुम दोनों को यहाँ देख बच्चे भड़क उठेंगे।” अशरफ ने ग्राउंड फ़्लोर के लिये लिफ़्ट का बटन दबा दिया।
अशरफ मियाँ! यह क्या बेहूदगी है।”
बेहूदगी तो तुम कर रहे हो गफ़्फ़ार!”
मैं?… लो रूबिया सुन लो। अरे! अपनी बीवी के साथ आया हूँ, इसमें मैंने क्या बेहूदगी की?’ रूबिया को अपनी ओर खींचते हुए, ‘बाकायदा निक़ाह किया है कोई भगाकर नहीं लाया हूँ।” बड़ी निर्लज्जता से गफ्फार ने रूबिया को भींच लिया। वह कसमसा कर रह गई। लिफ़्ट ग्राउंड फ़्लोर में आ गई।
यह बेहद तकलीफदेह है मेरे लिये इस तरह से खुलेआम…”
यार अशरफ मियाँ! तुम्हें तकलीफ़ क्यों हो रही है? रूबिया अब मेरी  बीवी है। उस पर अब मेरा अधिकार है। उसके साथ जो चाहे करूँ, मेरी मर्जी….
गफ्फार! बहुत हो गया। दोस्ती का यह सिला तो न दो भाई! निक़ाह हलाला के दो दिन बाद तलाक देने का तय हुआ था, दो महीने हो रहे हैं।”
यार हद है, तुम्हें कितनी बार बता चुका हूँ कि निकाह के बाद भाभी जी अरे मेरा मतलब रूबिया को टायफायड हो गया था, फिर उसकी तबियत दुरुस्त होने में वक्त लगा। बिना हमबिस्तरी के हलाला जायज़ भी तो नहीं होता।”
अब तो सब हो चुका, फिर किसलिये वक्त जाया कर रहे हो?”
तुम भी यार अशरफ मियाँ! रहोगे वही पूरे लपुसट के लपुसट। अमां वक्त जाया नहीं वक्त जी रहे हैं हम.. इनके साथ।” कहते हुए गफ्फार ने एक बार पुनः रूबिया को अपनी बाँहों  में बड़ी बेशर्मी से भर लिया।
गफ्फार की पकड़ से असहज रूबिया की दृष्टि एकाएक ऊपर बालकनी पर चली गई। वहाँ खड़े तनजाये अब्दुला की नफऱत से घूरती निगाहें उसके कलेजे को चीर गई। 
या अल्लाह!”  रूबिया के मुँह से निकल गया।
सभी की निगाहें ऊपर खड़े अब्दुल्ला तक गईं। रूबिया के लब खुले के खुले रह गए। वह स्वयं को सँभाल न सकी और इसके पहले कि वह गिर पड़ती अशरफ ने उसे सँभाल लिया।
छोड़ो लाओ हटो…” गफ्फार ने रूबिया को अशरफ से ले लिया।
मेरे बच्चे या अल्लाह!” ऊपर देखती रूबिया चीख पड़ी। अब्दुल्ला बालकनी से हट चुका था।
सब बेकार कर दिया। अगले जुमे को नकद एक लाख रुपये लेकर आ जाना रुपये मिलते ही तलाक़ दे दूँगा।” 
मॉल के बाहरी गेट की ओर जाते गफ्फार की आवाज़ अशरफ़ हठात सुनता रहा, ‘रुपये पैसे की तो कोई बात ही नहीं हुई थी, खैर! आदमी जब नीचता पर उतर आता है, तभी उसका असली रूप सामने आता है।हारे हुए पहलवान की तरह बेदम अशरफ ने लिफ्ट का बटन दबाया।
अम्मी गन्दी हैं… गन्दी हैं… गन्दी हैं।” सुबक रहे अब्दुल्ला को सफीना मना रही थी। अशरफ़ ने लोगों की ओर निग़ाह दौड़ाई, सभी अपनी-अपनी टेबलों पर अपने-अपने अंदाज में डिनर का लुत्फ़ उठा रहे थे। 
अब्बा को देख अब्दुल्ला का रहा सहा धैर्य जवाब दे गया, “मुझे घर जाना है।” जिद पर अड़े अब्दुल्ला के आगे किसी की भी एक न चली। बैरे को बुलाकर भोजन पैक कराने व पेमेंट करने के बाद वे तीनों घर चले आये। रास्ते में परस्पर कोई बात नहीं हुई।
अब्बा आप परेशान न होइए अब्दुल्ला को मैं सम्भालती हूँ।” सोफे पर परेशान हाल बैठे अपने अब्बा के कंधे पर अपना दायां हाथ रखते सफीना दिलासा देते बोली, फिर अब्दुल्ला के कमरे में उसे मनाने चली गई। 
बेटियाँ कम उम्र में भी समझदार और गम्भीर होती हैं, उन्हें घर की समस्याओं को सुलझाना बखूबी आता है।
अशरफ निढ़ाल सोफे पर ही पसर गया। वह अब्दुल्ला की मनःस्थिति को समझ चिंतित था, ‘गफ्फार को वह अपना अजीज़ दोस्त मानता था, तभी इमाम साहब की जगह उसने गफ्फार को तरज़ीह दी थी। गफ्फार से उसे ऐसी कतई उम्मीद नहीं थी। वह अक्सर घर आता रहा, बच्चों से घुला-मिला था। रूबिया को भाभी का सम्मान देता था। वक्त जरूरत दोनों एक दूसरे के काम आते। 
इसी दृढ़ विश्वास के चलते उसने……अशरफ ने अघाई साँस ली, ‘क्या दोस्ती के मायने यही होते हैं?’ अशरफ ने अपनी गैरत ताक पर रख नाउम्मीदी से गफ्फार को फोन लगाया। दूसरी ओर से गफ्फार का बेहद निर्लज्जता भरा जवाब आया, “अमाँ यार! हद करते हो, क्यों पीछे पड़े हो? न तुमने कोई गुनाह किया, न मैं कोई गुनाह कर रहा हूँ। सब शरीयत के अनुसार हो रहा है। अल्लाह ताला की मर्जी से सब हो रहा है, फिर क्यों दूध डाले दे रहे हो? अरे सब्र करो। 
अल्लाह ने कहा है, ‘सब्र का फल मीठा होता है। हफ्ता दस रोज  की बात और है। मुझे जन्नत के मजे लेने दो यार! भाभी मतलब मेरी बेग़म को और पाक होने दो।” गफ्फार ने जानबूझकर अपना फोन काटा नहीं दूसरी ओर से अशरफ के कानों में वहशी हो चुके गफ्फार की कामुक आवाजें, सहवास की चीखों के साथ सुनाई दीं। 
रूबिया के साथ हो रही इस दरिंदगी का वह गुनहगार है। बेटे अब्दुल्ला के प्रश्नों का उसके पास कतई कोई जवाब नहीं है। बेटी सफीना के साथ ऐसा न हो! यह सूरत बदलनी चाहिए। औरत की देह और उसकी रूह की पाकीज़गी बरक़रार रहनी चाहिये।
फोन काटने के बहुत बाद तक अशरफ के जेहन में बार-बार बस एक ही प्रश्न कौंध रहा था। क्या इस सब के लिए एक वही गुनहगार है?
उस रात का डिनर बंद पैकिट में ही रखा रहा। 

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