Friday, October 11, 2024
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नीतू मुकुल की कहानी – किसको मीत बनाऊं-किसकी प्रीत भुलाऊँ

मेरा इस घर से आबाई रिश्ता है और दानिस्त का खजाना लिए लम्बे अरसे से यहीं खड़ा हूँ, मैं अटल हूँ इसलिए सत्य हूँ, इस कुनबे की खुशी और गम का गवाह हूँ | मैंने इनका बचपन भी जिया और बुढ़ापा भी जी रहा हूँ | मैं इनके पल-पल के सुख दुःख का साथी रहा हूँ | पीढ़ीयों के स्थायी जीवन का गवाह हूँ | लगभग एक सदी से यहीं खड़ा इस घर को धूप-छाँव से बचाने की कोशिश करते-करते मैं भी शिकस्त हो गया हूँ | अब मैं इतना बूढा हो गया हूँ कि मैं उम्र को नहीं बल्कि उम्र मुझे ढो रही है, पर अब भी इतिहास की पोटली मेरी पीठ पर लदी है | मैं एक पुराना शजर हूँ, पर कुछ स्मृति और अवशेष शेष है |
मेरे साए में बैठ कर पेपर पढ़ने वाले, ये बूढ़ा जोड़ा कभी इसी चबूतरे पर बैठ कर प्यार भरी शरारते किया करता था| ये जर्जर हो चुका बुजुर्ग कभी मेरी टहनियों में उछल कूद किया करता, कभी पतंग पकड़ने के लिए मेरे ऊपर चढ़ जाता और ये औरत जो आराम कुर्सी पर लेट कर पुराने एलबम पलट रही है, कभी अपने पति की लम्बी आयु के लिए मेरी पूजा-परिक्रमा किया करती | देखना अभी इन बर्फीली हवाओं में काँपती काँपती उठेगी और मेरे नीचे दिया जलाने की नाकाम कोशिश करेगी, फिर रोज की तरह थक हार कर बैठ जायेगी और फिर वहीं से आवाज लगाएगी ..
“अजी …..! सुनते हो आग तेज कर देना, दिया तो जला नहीं, मेरे हाँथ ठण्ड से ठिठुर गए |”
फिर तुलसी के पौधे को अपने आँचल से पकड़ कर वन्दना करेगी .
“ तुलसी मैय्या हमार सुहाग बना रहे |”
उसके बाद आंगन में जाकर मंदिर में बैठ कर एक-एक भगवान् के पैर छुएगी, फिर हाल में लगी अपनी तीनो बेटियों की तस्वीर के आगे अगरबत्ती जलायेगी, इसके बाद चाय बनाने चली जायेगी |
कमाल .. ! एक-एक कर के इसकी तीनो दोशीजायें बालपन में ही काल के गाल में समाँ गयीं | पर इसे भगवान् से कोई शिकायत न थी | रोज इन तस्वीरों के आगे अपनी ममता लुटाती | इन तस्वीरों में उसे अपना अक्स दिखता था, जिससे वो अपनी रूह समझती थी | बूढ़ी औरत का बाप यादव और माँ पंडित थी | उस समय ये अपने आपमें बहुत आश्चर्य था | मेरे भीतर इनकी अनेकों कहानियाँ दबी हैं | मेरे जिस्मानी तने की सूखती छाल को हटाने पर अन्दर ज़ज्बातों का जो हरा लहू दिखता है, उस लहू में इस घर का हर किरदार ज़ज्ब हो चुका है | मैं तो बस सूत्र धार हूँ | मैं न होता तो शायद ये कहानी आपके बीच न होती | चलिए फिर ………….
वक्त की दीवार में जड़ी उन यादों की सीढ़ी से मेरी उंगली थाम उतरिये, अतीत के अंधेरों में सीलन भरी और इन रपटीली सीढ़ियों से |
“ ओह..! आहिस्ता .”
कहीं चोट तो नहीं आयी ? इन सीढ़ियों ने इनके दुखों का केवल आना देखा है | सुख के लिए तो इनके साए भी महरूम है | इनका शरीर सीढ़ी में लगी तमाम जंग खाई कीलों की तरह हो चुका है | चलते वक़्त सीढ़ियों की खर खर आवाज की तरह हो चुकी है इनकी जिन्दगी | 
“जनाब यहाँ पहाड़ियां है, रोशनी बहुत कम |”
देहरादून से आगे मंसूरी से कुछ पहले एक छोटा सा गाँव | उन छोटे छोटे दरख्तों से घिरी पहाड़ी के बीच में पुराना कोठी नुमा मकान | शाम के गहराते अँधेरे में बंद खिड़की की दराजों के बीच से ठंडी हवाओं की झालर कमरे में आहिस्ता आहिस्ता खनक रही थी | यहाँ साल में तीन महीने बर्फ घिरी रहती | अक्सर ये जगह इन महीनों में बाक़ी दुनिया से कट जाता है | सिगड़ी में सुलगते कोयले के अंगारों ने फिजा में गुन-गुनी परत चढ़ा दी थी | साथ ही तिपाई पर जर्जर बूढ़ा आदमी लेटा हुआ था | सर पर फर वाली पहाड़ीनुमा टोपी पहन रखा था, बड़ा सा नेपाली कोट, पैर में ऊनी मोज़े | सुलगते अंगारों से निकली चमकीली गुनगुनी बौछार उसके चेहरे की झुर्रियों को सेंक रही थी | वो आराम से अध् लेटा कुछ पढ़ रहा था | बगल में आराम कुर्सी पर बैठी बूढ़ी औरत कभी हाल में टंगी फ़ोटो को देखती तो कभी हड्डियों को छोड़ चुकी खाल को उठा कर अपनी बची जिन्दगी का गुणा भाग करती और पास ही पालतू बिल्ली यहाँ वहां फुदक रही थी  | कमरे में पुराने जमाने का आधुनिक फर्नीचर रखा था | कमरे की सजावट कुछ ख़ास न थी, पर उस कमरे में जो ख़ास था वो सामने दीवार पर बहुत बड़ी सी तस्वीर थी जिसमे एक सुंदर नौजवान मुस्कुराता हुआ खड़ा था | आकर्षण चेहरा, रौबीली मुस्कान, घनी घनी मूंछों में उसका व्यक्तित्व निखर रहा था | पैरों में लेदर के शू, ब्राऊन पैंट, वाइट शर्ट बड़ी दबंग सी तस्वीर थी, बाकी की तस्वीरों से काफी बड़ी थी | एक तस्वीर के ठीक सामने अंग्रेजों के जमाने की कांटे वाली घड़ी टंगी थी | दरवाजे के ऊपर दीवार पर वह तीनों बेटियों की तस्वीर माला पहले लगी हुई थी | हाल में घुसते ही उस नौजवान का सुंदर सा मुस्कुराता चेहरा नजर आता, बल्कि दरवाजे के ऊपर दीवाल पर लगी तस्वीरों पर ध्यान ही न जाता | बूढ़ा अपनी झुर्रियों को सेंकता हुआ बोला..
“ आज तो बहुत ठंड है यहां आकर हाथ पैर सेंक लो |”
“ ह्म्म्म….. मैं अभी तुम्हारे जितनी बूढ़ी नहीं हूं तुम ही बैठो सिगड़ी में घुसकर, मैं यहीं ठीक हूं|”
 उसने अपने हाथों में दस्ताने चढ़ाते हुए बिल्ली को गोद में उठाकर पुचकारने लगी | 
पहाड़ी में दूर दूर कुछ एक घर ही बसे थे, जहां हल्की हल्की रोशनी टिमटिमा रही थी | रज्जू ने दरवाजा धीरे से धकेला और बर्फीली हवा के झोंके के साथ अंदर आ गया| बूढ़ा घुटनों पर हाथ रख कर उठते हुए बोले ..
“रज्जू ! आज बड़ी देर कर दी तुम्हारी चाची कब से राह देख रही है|”
“ अरे क्या बताए चाचा आज एक बवाल में फंस गए थे | आप तनिक ठहरो मैं फटा-फट खाना बनाता हूं|
“ अरे घड़ी भर बैठ जा बेटा फिर बना देना | इस उम्र में कहां चाय पीने की कयास जगती है| हम तो तुम्हारे आने का इंतजार करते हैं| तुम आते तो वीराने में हम दोनों को बातें करने का जरिया मिल जाता है,वरना इस ठंड में तो दिन में भी कोई नजर नहीं आता| सब दुबके पड़े रहते अपने घरों में| यह मरी ठंड तो हम बूढ़ों के लिए कहर बन जाती है| यह ठंड तुम जवानों के लिए मजा…… हमारे लिए सजा है …हो हो…हो…|”
“रज्जू इन से कहो ज्यादा ना हंसे इस उम्र में हँसने में भी थक जाते हैं | हा हा हा…|”
 जोश में खड़े हो गए “किसको बूढ़ा बोल रही हो| भूल गई वह दिन जब तुमसे मिलने धनोल्टी से गांव तक पैदल आता था|”
बूढ़ी अपना शाल ठीक करते हुए बोली, “हाँ बहुत अच्छे से याद है, जब दिसंबर की ठंड में तुम बादलों में भटक गए थे और बी एस एफ़  के जवान तुम्हें दो दिन में ढूँढ कर घर लाए थे.. हो ..हो.. हो…|” 
 उनको यूँ हँसता बोलता देख रज्जू मुस्कुराने लगा वह उनके घर का केयर टेकर कुक, माली सबकुछ था| उन दोनों को हँसता छोड़ रसोई घर में जाकर काम करने लगा| कुछ मिनटों ही में हाथों में काढ़ा लेकर आ गया| ये लो,गरम गरम काढ़ा| दोनों ने कांपते हांथो से काढ़ा थाम लिया और तीनों वहीं बैठकर काढ़ा पीने लगे|
 जिंदगी का एक दिन और कटा | बूढ़े ने अपनी सिगरेट की राख एशट्रे में यूँ झाड़ी जैसे अपनी सारी बुढौती झाड़ दी हो, पूछा.. “आज तुम किस बवाल में फंस गए बेटा?”
“ चाचा वह पास वाले गेस्ट हाउस में एक लड़की रिसर्च करने आई है वह मेरे चाचा के बेटी की सहेली है तो चाचा का फोन आया था कि उसका ध्यान रखना कल उसका वहां के मैनेजर के साथ कुछ बवाल हो गया |”
 वह मुझसे आकर कहने लगी कि दूसरी जगह इंतजाम करा दो | अभी छह  महीने यहीं पर हूँ | उसी के साथ मकान देखने चला गया| 
“तो क्या कहीं बात बनी?”
“ नहीं चाचा यहां कितने घर ही हैं अब कल फिर प्रयास करेंगे|”
बूढ़ा आदमी कुछ सोचने लगा | फिर खाना खाया और उसी जगह फिर अपने-अपने काम करने लग गए | औरत वापस स्वेटर बुनने लगी| पुराना टीवी अपनी भर-भर आती आवाज में न्यूज़ सुना रहा था| बूढ़े ने चिलम सुलगाने को बोला | फिर ऊंघते रज्जू से बोला.. 
“सो जाओ, सुबह वात्सल्य का कमरा खोलकर साफ कर देना वह लड़की यहां आराम से रह सकती है|”
रज्जू खुश हो कर बोला जरूर चाचा कल मैं समय से थोड़ा पहले आ जाऊंगा| 
दूसरे दिन जब सारिका ने रज्जू के साथ घर में प्रवेश किया तो आदतन उसकी निगाहें घर के पिछवाड़े क्षितिज में समाते वीराने में फैल गई और सामने लगे दरख़्त पर उलझ गई| सामान का बैग फ़र्श पर रखते हुए उसने उन दोनों बुजुर्गों को नमस्कार किया| मुस्कुराते हुए उन बुजुर्गों ने उसका स्वागत किया | फिर डाइनिंग टेबल की तरफ आने का इशारा किया| सारिका ने देखा मेज़ पर कटे फल, सैंडविच, कॉफी, चाय सब बड़े करीने से सजा हुआ था| वह सकुचाते हुए चेयर आगे सरकाते हुए बैठ गई| 
तभी बूढ़ी महिला बड़ी रसानियत से बोली..
“ क्या नाम है तुम्हारा ?” 
“सारिका”
यह कहते हुए सारिका के ओंठो पर महरून लिपस्टिक मुस्कुराहट में फैल गई| 
“बेटा तुम नाश्ता कर लो, फिर जाकर अपना कमरा देख लेना |” 
ओके आंटी..”, कटे हुए फल का टुकड़ा मुंह में रखते हुए बोली| 
नाश्ता करने के बाद रज्जू के साथ कमरे में गई| कमरा उसे असरार से भरा लगा| बेहद अस्त व्यस्त, जैसे लंबे समय से बंद पड़ा हो | लगभग सारे फर्नीचर पर चादरें पड़ी हुई थी| अजीब सी सीलन भरी गंध अंदर जाते ही उसकी नाक में भर गयी |एक बारगी तो उसका जी घबरा गया | कमरा किसी होर्रेर फिल्म के सेट के माफिक था | पर क्या करती उसके पास कोई दूसरा खैर-गाह भी न था | वो दोनों तो बुजुर्ग है, आखिर कमरा साफ़ तो नहीं कर सकते | धीरे से कुर्सी की चादर हटाकर बैठ गयी | फोन निकालकर अपने सर को फोन लगाया और दो दिन की छुट्टी ले ली | इन दिनों में उसने अपना कमरा ठीक किया, इन सब काम में रज्जू ने भी उसकी मदद की | कमरे में एक बड़ी सी पुरानी अलमारी थी| उसने उसे खोला तो देखा कुछ छोटे खिलौने, गेम्स, मार्बल्स, कुछ कार्टून की पिक्चर, एक खाने में किताबे भरी हुईं थी |
सबसे नीचे ढेर सारे एल्बम रखे हुए थे और ऊपर पहाड़ीनुमा कैप, कोट, जैकेट, दस्ताने हैंगर पर लगे हुए थे | उसने उलटपुलट कर सामान को देखा, ऐसा जान पड़ा कि बहुत समय से इसका इस्तेमाल नही किया गया | स्टीफेंन किंग, डैन ब्राउन, डेविड, खालिद हुसैनी,शिडनी शेल्डन, लास्ट सिम्बल, इन्फेर्नो आदि तमाम अंग्रेजी लेखकों की किताबे भरी हुयी थीं | उसने देखा कि ज्यादातर हॉरर स्टोरी लिखने वाले राइटर की बुक्स थीं | एक किताब को हाँथ में लेकर उसने मेज पर पटक कर धुल झाड़ा | लगता है जनाब को होर्रेर स्टोरी पढ़ने का शौक है |
कंधे पे पड़े बालों को पीछे करने के लिए गर्दन को हल्का सा झटका देते हुए आई लाइनर लगी नजरे सामने की दीवार पर दायीं तरफ लगे दर्पण पर पड़ी | उसे लगा, उसके शरीर में दौड़ता हुआ रक्त जम गया है | दर्पण में ब्लू कलर की शर्ट पहने एक सुंदर, तहरदार युवक खड़ा था| उसने एक भव्य आकृति को पलट कर देखने को मुड़ी, तो देखा सामने अलमारी में स्मार्ट से नौजवान की तस्वीर रखी थी| शायद जब वो अलमारी में पड़े सामान का मुआयना कर रही थी तभी हैंगर पर लगे कपड़े खिसक गए और वह तस्वीर सामने आ गई| वह अब भी मुस्कुरा कर उसे ही देख रहा था| उसके गोरे चेहरे पर एक ठहराव था | चेहरे पर राजसी शान, काली मूंछों व काली भौंवे के नीचे थोड़ी झुकी हुई काली पलकों की द्रष्टि उससे टकरा गई| उसे एक झटका लगा, उस लम्बे आईने में समाई तस्वीर में उसके व्यक्तित्व का समूचा अक्स उभर आया | एक लम्हें को वो भूल गयी कि वो सिर्फ तस्वीर है, वो शर्म से जार जार हो गई| उसे लगा जैसे किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो| कैसी खुदा की कुदरत है जो सामने नहीं है फिर भी उसके लिए मन में ये लहरें उठ रही है| उस आईने के कोण के कारण सामने वाली सारिका बंध गई, जबकि दूसरी तरफ बिना जज्बातों की सिर्फ तस्वीर थी| उसने उस तस्वीर को चूमा और अलमारी बंद कर दी | एक ही पल में इस दरो दीवार के इस लम्हें ने उसकी जिंदगी में हलचल मचा दी |
कुछ दिनों में ही, इस परिवार से घुलमिल गयी | धीरे धीरे वो किरायेदार से परिवार का हिस्सा बन गयी | वो बुजुर्ग दंपत्ति खाने और चाय में उसका इस तरह उसका इंतज़ार करते, गोया वो अपरिचित न हो कर उनकी अपनी औलाद हो | अक्सर वो अपने बेटे से जब भी फ़ोन पर बात करते तो सारिका का जिक्र जरूर करते | दूर खड़ी सारिका के मन में यकायक सितार के सारे तार एक साथ झनझना उठते, तभी कहीं आम के दरख़्त पर कोयल कूकी, तो कहीं मोर की दर्द अंगेज़ झंकार सुनायी दी | ज़ज्बातों का ऐसा तूफ़ान उमड़ता, बदन में तपिश और ठंडक उसे गाफ़िल कर देते | न चाहते हुए भी इन तीन सदस्यों वाले परिवार का चौथा सदस्य बनती जा रही थी| 
ऐसे ही एक दिन सारिका घर के पिछवाड़े मैं बैठी थी | धूप नहीं आज धुंध थी | हलकी हलकी सर्दी में उनके घर के पक्षी दाना खा रहे थे | सारिका, जरा सी गर्दन भी हिलाती तो वो उड़ जाते और सामने उस दरख़्त पर बैठ जाते |
“सारिका …सारिका ..” तभी कँपकपाती पुकारती आवाज ने उसे चौका दिया | 
“अरे आंटी ..! आपने मुझे बुला लिया होता | आपने क्यों तकलीफ की |”
“ ये लो गरमा गरम काढ़ा पियो और अपने शिकस्त हुए शरीर को आराम कुर्सी में डाल दिया |
“ रज्जू बता रहा था कि कल रात तुम काफी देर बाद लौटी थी | तुम्हे बुखार था, शायद इसीलिये आज तुम काम पर नहीं गयी |”
“हाँ .. आंटी .., कल का दिन वाकई बहुत थका देने वाला था, पर मैं ठीक हूँ | आज सामान लेने शहर जाना है, इसलिए काम पर नहीं गयी |”
“ ये रज्जू तो कुछ भी बोल देता | खैर ..छोड़ो ..! ये बताओ सारिका कि तुम हमारा कितना ख्याल रखती हो, थोड़ा सा इस बुढ़िया को रख….|” शब्द पूरे होने से पहले ही सारिका उनके गले लग गयी | वो प्यार से सर पर हाँथ फेरती बोलती,
“मैं गॉड से प्रे करती हूँ कि मेरे वात्सल्य को तेरे जैसी बीबी मिले और मुझे बहू …..|” ये शब्द सुनते ही सारिका के गाल सुर्ख हो गये, शर्म के गुलाबी जोरे उसकी आँखों में उतर आये, वो अपने ख़्वाबों को सीने में संजोने लगी | उसके कानों में मोहब्बत के हाजरों पैगाम नर्म हवा से बातें करने लगे | अगले ही पल संभलते हुए खड़ी हो गयी, तभी अंकल भी वाकर के सहारे चलते हुए पिछवाड़े से अंदर आ गए | अपनी आँखों का चश्मा चढ़ाते उतारते हुए बोले,
“आज रोज से मौसम कुछ साफ़ है | देखो..! वात्सल्य की माँ शायद आज उसका कोई फ़ोन या चिठ्ठी आ जाय, पिछले कई दिनों से उसका फ़ोन भी नहीं आया |”
“ हूँ…….! अंकल मैं जा रही हूँ, पोस्ट ऑफिस में पता कर लूंगी |” ये कहते हुए सारिका अपने कमरे में आ गयी | अलमारी खोली, ड्रेस निकली और उस तस्वीर की तरफ मुखातिब हो बोली,
“छि:.. शर्म नही आती, कैसे घूर रहे हो, अब आप उधर देखो तो चेंज करूं |” और तस्वीर को चूमते हुए उल्टा कर दिया | कैप्स, दस्ताने, शाल डालकर, बूट्स पहनकर, फिर अपना मनपसंद मेक अप, आँखों में लाइनर और काजल डाल खुद को आईने में देख इतरा गयी | तस्वीर को सीधा किया, प्यार भरे अंदाज से कहा कि वात्सल्य आपको और कुछ चाहिए, फिर अगले ही पल सर को झटक कर बोली….,
“ये मुझे क्या हो रहा है| वो तो प्यार से ही दूर भागती थी, उसे ये क्या होता जा रहा है | क्या वात्सल्य को इस तरह प्यार करना गलत है ? कितना जानती है इस वात्सल्य के बारे में | कहीं उसकी कोई गर्लफ्रेंड भी तो हो सकती है, रकावत और जलन की एक लहर उसके अन्दर दौड़ जाती | रफ्ता रफ्ता गुबार आलूद जलन की गर्द में सिमटा उसका प्यार सुनहरे शहर की मिटी-मिटी मीनारें, जो वक़्त की धुंधली वादी में मद्धिम ख़्वाबों पर बनी हुयी थी, उसकी तस्वीर को निहारते ही उजली पड़ने लगीं | वात्सल्य का प्यार उसके दिल में एक राग मालकोस के धीमे स्वरों की तरह उठता दिखाई दिया और अलाप की बुलंद आवाज कानो में गूंजने लगी, जिससे उसका दिमाग चकरा गया | सिवाय इन चंद लम्हों के उसके पास ऐसा क्या था जो उसको उस तस्वीर के प्रति रूमानी बना रहा था |  नही …!, ऐसा होता तो उसके कमरे में कुछ तो अलग होता, जो बताता कि वो पहले से एंगेज है| 
ट्रिन….ट्रिन … अचानक सेलफोन घनघना उठा |
“ हेल्लो … सारिका मैं जोसेफ बोल रहा हूँ | थैंक गॉड, फ़ोन लग गया | सुनो सारे प्रोग्राम कैंसिल कर दो, फटा फट बैग पैक करके निकलो | हम सबको सेंटर फॉर न्यू बेगेनिंग रिसर्च के लिए निकलना है | पूरा वन वीक का प्रोग्राम है | आठ दस लोगों का ग्रुप है | विपुल सर ही हमारे ग्रुप लीडर होंगे |”
“ओके .. आती हूँ |”
“नही .. नहीं .. तुम आधा घंटे में तैयार रहो मैं सफारी से तुम्हे पिक कर लूँगा |”
उसके अचानक जाने का प्रोग्राम सुन कर अंकल आंटी परेशान हो गए, वो जो इन बुजुर्गों की जिन्दगी का हिस्सा जो बन गए थी | थोड़ी देर में उसने सारा सामन पैक कर लिया और दोस्तों का इंतज़ार करने लगी | इस बीच में वो उन्हें ऐसे हिदायतें दे रही थी कि उसने उनसे मुकम्मल रिश्ते जोड़ लिए हों | 
कुछ ही पलों में वो हवाओं से बातें करने लगी | विंडो से बाहर भागते दरख्तों को देख रोमांचित हो रही थी | कभी कभी चेहरे पर बिखरी जुल्फों को समेटती तो कभी अपने काले चश्मे को ठीक करती, अपने आप शर्माती, कभी मुस्कुराती तो कभी अपने आप बेमतलब हंस भी देती | हमेशा चुप-चाप रहने वाली सारिका को यूँ देख साथ आये दोस्त छेड़ने लगे | श्वेता बोली कि क्या यार आज-कल तो मैडम कुछ बदली सी लग रहीं हैं | शरारती ढंग से आँखे मटकाते सारिका ने हलके से बाएं आँख दबा दी | सच…! दोनों खिल खिला कर हंस पड़े | साथ आये लड़कों को भी उन्हें यूँ हँसता देख दिल में थोड़ी सी कोफ़्त हो गयी | शाम ढलने लगी | बाहर अन्धेरा गहरा रहा था | इस टेढ़े मेढ़े रास्ते में पेट उचक-उचक जैसे पैनी छुरिया चला रहा हो | सारिका ने बेचैनी से पूंछा,
“जोसेफ.., अभी और कितनी दूर है, अब गाड़ी रोक दो नही तेरे ऊपर ही उल्टियां हो जायेंगी |”
“ चिल यार, यहाँ गाड़ी रोकना खतरे से खाली नही |” 
बस कुछ ही देर में शहर की रोशनी दिखाई देने लगेगी और गाड़ी की स्पीड तेज कर दी | सारिका चिल्लाई यार हमे ज़िंदा पहुंचना है, घर पर अंकल-आंटी मेरा इन्जार कर रहे हैं | सारिका भी भड़क गयी, मैंने पहले ही कहा था कि पहाड़ों पर गाड़ी चलाना सबके बस की बात नही, बोला था ड्राईवर ले लो, इतनी देर से चुप चाप बैठे पढ़ रहे विपुल सर किताबों से चेहरा उठा बोले…,
“तुम लोग बच्चों की तरह लड़ना बंद करो, पंद्रह मिनट में बेहेतरीन ढाबा आने वाला है, हम सब वहां डिनर करेंगे, इसके बाद आगे का सफ़र तय करेंगे,आगे रास्ता प्लेन है, डरने की जरूरत नही |” वापस अपनी किताब में मुंह घुसा लिया | कार में खामोशी पसर गयी पर आँखों और इशारों से खामोशी को तोड़ने की कोशिश जारी रही |
चंद मिनटों बाद सब ढाबे की चारपाई पर पसरे हुए थे | विपुल सर टहलते हुए सारिका के पास आये |
“हेल्लो मैं विपुल, तुम्हारे टीम का हेड हूँ |” सारिका ने उठ कर हाँथ मिलाया | वो भी वहीं बैठ गए | फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया | 
“तो आप धनौल्टी में ही रुकी हुयी हैं, मैं भी वहीं रहता हूँ |”
“जी सर, जो पहाड़ी पर पोस्ट ऑफिस के सामने  हवेली है, उसी में किराये से एक कमरा लिया है | घर पर बस दो बुजुर्ग और एक नौकर है |”
 आगे बोलते हुए विपुल सर मुस्कुराये, “हाँ हाँ..” 
“सर, एक दम सही पकड़े है आप |”
“ तो कभी आपने अपनी छत पर खड़े होकर बायीं तरफ एक सिलेटी कलर का एक कमरा देखा है ?”
“हाँ सर, बड़ा अजीब सा वीराने में एकांत नीरसता भरा खड़ा, बस…!”
“वहीं ये नीरस प्राणी रहता है और वात्सल्य के बचपन का दोस्त भी |”
“ओह्ह..! सॉरी सर, मेरा वो मतलब नही था, वो क्या है न, उस सारे इलाके में कुछ….”
“इट्स ओके .. मिस सारिका |”
बेचारी सारिका को अपने इस बड़बोले पन पर पछतावा हो रहा था | ध्यान हटाने के लिए उसने बातचीत का सिरा कल के प्रोजेक्ट से जोड़ दिया |
एक दूसरे के आमने सामने बैठे, विपुल के लिए  सारिका, कब जरूरी हिस्सा बन गयी | जब सारा दिन जंगलों और लैब में भटकते, शाम को अपने अपने कमरे में लौटते तो विपुल समूची सारिका को अपने साथ ले जाता | सिलसिला लंच शुरू करने से हुआ | अब अपने सुख दुःख शेयर करने लगे | किसी के साथ होंने का सुकून बड़ा सा दरख़्त बन फ़ैल गया | जितना कांट छाँट करते उतने ही कल्ले और फूटने लगते, पर दोनों के सुकून पर जमीन आसमान का फर्क था | विपुल के दिल में सारिका ने खास जगह बना ली थी, वो उसके प्यार के सागर में डूबता जा रहा था, उधर सारिका को उसका साथ इसलिए सिर्फ भाता क्योंकि वो उसमे वात्सल्य को ढूंढती थी | उसके पास होने से उसे वात्सल्य का एहसास होता था | विपुल जब वात्सल्य और अपनी दोस्ती का किस्सा सुनाते, या उसकी शरारत या बहादुरी के किस्से सुनाते तो वो रसानियत से ऐसे निहारती कि ये विपुल नही वात्सल्य है | वो वात्सल्य के प्यार में इस कदर डूबी रहती कि भूल जाती कि जिन बाहों के पाश में वो है, वो बाहें विपुल की है | 
एक बार विपुल सर बताने लगे कि कैसे लगातार दो हफ्तों तक वो और वात्सल्य एक पक्षी का शूट करने के लिए दिन रात पहाड़ी पर बैठे, अंत में सफलता मिली भी तो वात्सल्य को | उसके उन फोटोग्राफ को “बेस्ट फोटोग्राफ ऑफ़ द इयर” का अवार्ड मिला और उसे खाली हाँथ वापस आना पड़ा | ये सब मिले लक़ब से सारिका को आभास होता कि उसका प्यार उसके पास है | एक बार यूँ लगा कि वात्सल्य खड़ा मुस्कुरा रहा है और अपनी दोनों बाहें फैलाकर बुला रहा है, वो भाग कर उन बाहों में समा गयी और वो उसे कसकर बेतहाशा चूमने लगी | प्यार का गुबार जब शांत हुआ तो होश आया ये तो विपुल है और भाग कर अपने कमरे चली गयी | अपने किये पर शर्मिन्दा होने लगी | पीछे पीछे विपुल भी पहुँच गए | बहुत समझाने पर वो बाहर आयी | विपुल अपने घुटने के बल बैठ गए और सारिका की तरफ हाँथ बढ़ाकर आशिके-सादिक की तरह बेमह्बा पूंछा ..
“ विल यू मेरी मी ?”
“ ये क्या कह रहे है सर ?” सारिका छिटक गयी 
“ आप तो समझ गए होंगे, मैं वात्सल्य को प्यार करती हूँ, हम दोनों के सामंजस्य में वो हमेशा रहा है |” 
विपुल हंस पड़े “क्या..? वात्सल्य को प्यार .., तुम मिली हो उससे ?”
“कभी नही |” सारिका बोली 
“ किसी को प्यार करने के लिए क्या मिलना जरूरी है, मेरे लिए उसका एहसास ही काफी है, वो हर पल मेरे साथ है, मेरी साँसों में मेरी रगों में, धड़कन में |” बीच में ही विपुल ने पकड़ कर उसे सोफे में बैठाया वही शाम का सन्नाटा, सूरज गुरब हो रहा था और बरामदे की जालियों में से रोशनी छन-छन कर आ रही थी | सारिका उसे सवालिया निगाहों से एक टक घूरे जा रही थी | विपुल ने पूँछा ..
“ये प्यार कब हुआ ?” 
“सारिका कुछ तो बोलो |”
“ अज़राहे मेहरबानी, मुझे आपको सफाई देने की जरूरत नही है |” वो गुस्से में उठ गयी | तभी पीछे श्वेता आकर बोली ..
“जरूरत है सारिका..!”
वात्सल्य फोटोग्राफी के जूनून के चलते अक्सर वो रातों को अपनी खोज में भटकता रहता | ऐसा ही उसने किसी किताब में दुर्लभ चीज के बारे में पढ़ा तो उसकी खोज में निकल गया | जब वो हफ्तों तक घर न पहुंचा तो उसे ढूँढने लोग आये, उसकी गाड़ी इन्ही जंगलों में मिली | गाड़ी का सामान ज्यों का त्यों था | किसी ने उसको हाँथ तक न लगाया था | बस गाड़ी के सारे दरवाजे खुले हुए थे और वात्सल्य गायब था | कहाँ गया किसी को नही पता | पुलिस ने बहुत खोज बीन की कोई सुराग हाँथ न लगा | अंत में सभी ने यहीं मान लिया कि वात्सल्य को जरूर कोई जंगली जानवर का शिकार बनना पड़ा होगा | शायद सनकी फोटोग्राफी के शौक की वजह से था | भूत प्रेत की किताबों में खोये रहने से कोई रहस्य को जानने के दौरान शायद उसकी मौत हो गयी होगी | ये सब सुनते ही लहू आँखों में आकर जम गया, ज़ज्बातों का दरिया बहते बहते थम गया | एक लम्हे में ही बिना धागा जले मोम पिघल गया |
सारिका भर्राई आवाज में बोली “पर अंकल आंटी…!”, 
आज सबको वापस जाना था | सबने अपने सामान के साथ वापस सफर शुरू कर दिया | पर इस बार वो खुशी, अपनापन, बहुत कुछ कर गुजरने की ललक न थी | अथक परिश्रम से पाये प्रोजेक्ट के लिए जुटाए मटेरियल पर होने वाली खुशी नदारत थी | धीरे धीरे सब अपनी मंजिल पर उतर गये | अंत में बचे विपुल और श्वेता | श्वेता, सारिका की घनिष्ठ मित्र थी | वो उसकी मनोदशा को भली भांति समझ रही थी | उसने उसके साथ जाना ही उचित समझा | वैसे भी दो दिन बाद उन्हें धनौल्टी को छोड़ अपने घर वापस जाना था | वो सारिका के मन में मच रही उथल पुथल को समझ रही थी |
उधर सारिका मन में ढेरों सवाल लिए, गाड़ी से उतरी तो देखा कि अंकल आंटी अपनी पुराने फिएट कार में कुछ सामन रख रहे थे, शायद वो कहीं जाने की तैय्यारी में थे | उसको देखते ही खुश होकार बोले, 
“अरे वाह…! सारिका आगयी |” वो आश्चर्य से आँखों को बड़ा करते हुए बोली, “इतनी ठण्ड में आप कहाँ जा रहे हैं ?” वू बूढा आदमी खुश होकर बोला, “कल मेरा वात्सल्य मसूरी आ रहा है अपने प्रिय आथर रस्किन बांड से मिलने | तीन चार घंटे मसूरी में रुकेगा | हमको भी वही बुला लिया है | उसे उसी दिन वापस भी जाना है | सारिका न उनकी फिक्र करते हुए बोला,” इट्स ओ के अंकल, पर आप खुद कैसे गाड़ी ड्राइव करोगे ?” तभी आंटी खिड़की से सर निकाल कर बोली, “ तू बेकार चिंता कर रही है, आगे चौकी पर एक इंस्पेक्टर है जो वात्सल्य का दोस्त है वही ड्राइव करेगा |” सारिका असमंजस में पड़ गयी कि क्या करे | मन ही मन जलते चिरागों की ज़िन्दगी की दुआएं मांगने लगी | मन में गहराते अंधेरों में उजालों के कतरी तलाशने लगी | सकुचाते हुए उसने अंकल से वात्सल्य का नंबर माँगा | अंकल खनकती आवाज में बोले मेरा सेल फ़ोन घर पर ही है | उधर चार अपने जानिब की ओर बढ़ चली | मन में उठते गिरते सवालों के जवाब ढूँढने के लिए उसने राजू को कुरेदा | 
 “रज्जू तुम वात्सल्य का नंबर दो मुझे फ़ोन करना है |” 
“पर मेरे पास दीदी उनका फ़ोन नंबर नही है |”
“नंबर नही है ?, ये कैसे हो सकता है |” बौखलाई सी सारिका बोली |
 “तुम यहाँ काम करते हो |” 
“मुझे काम करते दीदी कुछ महीने ही हुए है | मैंने कभी भैय्या को देखा भी नही |”
 सारिका ने पागलों की तरह फ़ोन की डायरी में, वहां रखी दो चार किताबों में, एक दो लोगों से पूंछा | पर किसी को नहीं पता | फिर अंकल आंटी के सल्फोन में देखा तो वात्सल्य के नाम से नंबर सेव था| वात्सल्य का नाम स्क्रीन पर आ गया | सारिका की आंखे चमक गयी | उसने घूम कर पीछे खड़े विपुल को देखा और अगले कुछ सेकंड गुलाबी पंखो पर निकल गए | उसने अंकल की काल डिटेल देखी, शायद दो दिन पहले ही बात हुयी थी | टूटती, उखड्ती साँसों को कुछ राहत सी नसीब हुयी | आँखों से निकलकर पलकों में ठहरे आंसूं मरुस्थल में शबनम की तरह चमक गए | इन चंद लम्हों में उसने सारी उम्र जी ली | कांपते हांथो से नंबर डायल किया | धड़कते दिल से रिंग सुनने लगी |
“ये नंबर सेवा में उपलब्ध नहीं है”
पर अंकल रोज आठ बजते ही वात्सल्य-वात्सल्य कहकर किससे बात करते और उन बातों में उसे भी शामिल करते | सारिका परेशान हो गयी | कितने सारे सवाल और उनका समाधान लेकर आयी थी | उसकी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया | उसे लगा दरख्त के पास वात्सल्य खड़ा मुस्कुरा रहा है, वो हाँथ बढ़ा कर उसे छूने की कोशिश करती, तभी अँधेरा अपनी पैठ बना लेता है और अगले ही पल वो गश खाकर जमीन पर गिरने वाली होती है कि इससे पहले विपुल की बाहें उसे थाम लेती है | 
अगले दिन अखबार में खबर आयी पहाड़ी पर रहने वाले मानसिक रूप से बीमार बुजुर्ग दंपत्ति जंगल में अपनी गाड़ी में मृत पाए गए | नीचे अंकल आंटी की तस्वीर थी | वो गुजरे हुए लम्हों से बाहर आने की जद्दोज़हत में लग गयी |
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