Friday, October 11, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – मंथरा

इस बार हम पति-पत्नी मेरी स्टेप-मॉम की मृत्यु की सूचना पर इधर पापा के कस्बापुर आये हैं।
“मंथरा अभी भी जमी हुई है” हमारे गेट खोलने की आवाज़ पर बाहर के बरामदे में मालती के प्रकट होने पर विभा बुदबुदाती है।
“यह मौका है क्या? तुम्हारे उस पुराने मज़ाक़ का?” मैं उस पर झल्लाता हूँ।
मालती को परिवार में पापा लाये थे चार वर्ष पहले। ‘केयर-गिवर’ (टहलिनी) की एक एजेंसी के माध्यम से। इन्हीं स्टेप-मॉम की देखभाल के लिए। जो अपने डिमेन्शिया, मनोभ्रंश, के अंतर्गत अपनी स्मृति एवं चेतना तेज़ी से खो रही थीं। समय, स्थान अथवा व्यक्ति का उन्हें अकसर बोध न रहा करता। और अगली अपनी एक टिकान के दौरान विभा ने जब उन्हें न केवल अपने प्रसाधन, भोजन एवं औषधि ही के लिए बल्कि अपनी सूई-धागे की थैली से लेकर अपने निजी माल-मते की सँभाल तक के लिए मालती पर निर्भर पाया था तो वह बोल उठी थी,
“कैकेयी अब अकेली नहीं। उसके साथ मंथरा भी आन जुटी है।”
“पापा कहाँ हैं?” समीप पहुँच रही मालती से मैं पूछता हूँ।
आज वह अपना एप्रन नहीं पहने है जिसकी आस्तीनें वह हमेशा ऊपर चढ़ाकर रखी रहती थी। उसकी साड़ी का पल्लू भी उसकी कमर में कसे होने के बजाय खुला है और हवा में लहरा रहा है-चरबीदार उसके कन्धों और स्थूल उसकी कमर को अपरिचित एक गोलाई और मांसलता प्रदान करते हुए।
“वह नहा रहे हैं…”
“नहाना तो मुझे भी है,” विभा पहियों वाला अपना सूटकेस मालती की ओर बढ़ा देती है। सोचती है पिछली बार की तरह इस बार भी मालती हमारा सामान हमारे कमरे में पहुँचा देगी। किन्तु मालती विभा के संकेत को नज़र-अन्दाज़ कर देती है और बरामदे के हाल वाले कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़कर उसे हमारे प्रवेश के लिए खोल देती है।
बाहर के इस बरामदे में तीन दरवाज़े हैं। एक यह हाल-वाला, दूसरा पापा के क्लीनिक वाला और तीसरा उनके रोगियों के प्रतीक्षा-कक्ष का।
विभा और मैं अपने-अपने सूटकेस के साथ हाल में दाखिल होते हैं।
अन्दर गहरा सन्नाटा है। दोनों सोफ़ा-सेट और खाने की मेज़ अपनी कुर्सियों समेत जस-की-तस अपनी-अपनी सामान्य जगह पर विराजमान हैं।
यहाँ मेरा अनुमान ग़लत साबित हो रहा है। रास्ते भर मेरी कल्पना अपनी स्टेप-मॉम की तस्वीर की बग़ल में जल रही अगरबत्ती और धूप के बीच मंत्रोच्चार सुन रहे पापा एवं उनके मित्रों की जमा भीड़ देखती रही थी। लगभग उसी दृश्य को दोहराती हुई जब आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व मेरी माँ की अंत्येष्टि क्रिया के बाद इसी हाल में शान्तिपाठ रखा गया था। और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस दिन माँ की स्मृति में अगरबत्ती जलाने वाले हाथ इन्हीं स्टेप-मॉम के रहे थे।
“मौसी?” सम्बोधन के स्तर पर मेरी स्टेपमॉम मेरे लिए मौसी ही रही हैं। रिश्ते में वह मेरी मौसी थीं भी, माँ के ताऊ की बेटी। जो उन्हीं के घर पर पली बढ़ी थीं। कारण, माँ के यह ताऊ जब अपने तेइसवें वर्ष ही में विधुर हो गये तो उन्होंने दो साल की अपनी इस बच्ची को अपनी माँ की झोली में डालकर संन्यास ले लिया था।
“अम्माजी बिजली की भट्टी में भस्म कर दी गयी हैं। उनका अस्थिकलश उनके कमरे में रखवाया गया है…।”
आयु में मालती ज़रूर सैंतीस-वर्षीया मेरी स्टेप-मॉम से दो-चार बरस बड़ी ही रही होगी किन्तु पापा के आदेशानुसार घर में काम करने वालों के लिए वह ‘अम्माजी’ ही थीं।
“हमारा कमरा तैयार है क्या?” विभा मालती से पूछती है।
“तैयार हो चुका है,” मालती सिर हिलाती है।
बैठक का पिछला दरवाज़ा एक लम्बे गलियारे में खुलता है जो अपने दोनों ओर बने दो-दो कमरों के दरवाज़े लिए है। बायीं ओर के कमरों में पहला रसोईघर है और दूसरा हमारा शयनकक्ष। जबकि दायीं ओर के कमरों में पहला कमरा गेस्टरूम रह चुका है किन्तु जिसे मालती के आने पर स्टेप-मॉम के काम में लाया जाता रहा है और जिसे विभा ने अपनी ठिठोली के अंतर्गत ‘सिक-रूम’ का नाम दे रखा है। जिस चौथे कमरे को यह गलियारा रास्ता देता है, कहने को वह पापा का शयनकक्ष है मगर पापा अब उसे कम ही उपयोग में लाते हैं। उसके स्थान पर उन्होंने घर के उस चौथे शयनकक्ष को अपने अधिकार में ले लिया है जो घर के बाक़ी कमरों से कटा हुआ है। मेरे विद्यार्थी जीवन में वह मेरा कमरा रहा है जिसमें मैंने अपनी उठती जवानी के अनेक स्मरणीय पल बिताये हैं। कुछ आर्द्र तो कुछ विस्फोटक। कुछ उर्वर तो कुछ उड़ाऊ।
यह कमरा गलियारा पार करने पर आता है। उस बड़े घेरे के एक चौथाई भाग में, जिसका तीन-चौथाई भाग सभी का है। किसी भी एक के अधिकार में नहीं। इसमें एक तख़्त भी बिछा है और चार आराम-कुर्सियाँ भी।
माँ और फिर बाद में अपने डिमेंशिया से पूर्व मेरी स्टेप-मॉम भी अपने दिन का और बहुत बार रात का भी अधिकांश समय यहीं बिताया करती थीं। स्वतंत्र रूप से : कभी अकेली और कभी टोली में।
“तुम पहले हमें चाय पिलाओ, मालती।” हमारे कमरे की ओर अपना सूटकेस ठेल रही विभा को रसोई-घर का दरवाज़ा चाय की आवश्यकता का एहसास दिला जाता है।
उधर मालती रसोई की ओर मुड़ती है तो इधर अपना सूटकेस गलियारे ही में छोड़कर मैं स्टेप-मॉम के कमरे की ओर बढ़ लेता हूँ।
उनका बिस्तर पहले की तरह बिछा है। बिना एक भी सिलवट लिए।
मालती की सेवा-टहल में औपचारिक दक्षता की कमी कभी नहीं रही थी। हमेशा की तरह बिस्तर के बग़ल वाली बड़ी मेज़ पर दवाओं के विभिन्न डिब्बे अपनी अपनी व्यवस्थित क़तार में लगे हैं। धूल का उन पर एक भी कण ढूँढने पर भी नहीं मिल सकता।
स्टेप-मॉम की पहियेदार वह कुर्सी आज ख़ाली है जिस पर वह मुझे मेरे आने पर बैठी मिला करती थीं।
अस्थिकलश पलंग की दूसरी बग़लवाली छोटी मेज़ पर धरा है। लाल कपड़े में अपना मुँह लपेटे।
उन के अन्तिम देह-चिन्हों का आधान।
उन्हें आश्रय देने के साथ-साथ उनकी उपस्थिति को हवा में पसारता हुआ।
उस पसार में पंद्रह वर्ष पूर्व वाला उनका वह रोष भी है जो मुझे भुलाये नहीं भूलता।
मैं छोटी मेज़ पर जा पहुँचता हूँ और अपने दोनों हाथ अस्थि-कलश पर जा टिकाता हूँ।
काँप रही अपनी देह को सँभालते हुए।
“आप यहाँ कैसे?” तभी सामने पड़ने वाले रसोई-घर से मालती कमरे में चली आती है। “आप तो इस कमरे में झाँकने तक से घबराया करते थे…।”
“इस कमरे में मेरी माँ भी मरी थीं,” मैं सफ़ेद झूठ बोल गया हूँ। माँ का देहान्त एक नर्सिंग होम के आई.सी.यू. में हुआ था। पीलिया के बिगड़ जाने से। मेरे जन्म के बाद ही से उन्हें पीलिया बार-बार पकड़ता रहा था। जिस कारण मेरे ननिहाल के चौतरफा इतर काम निपटाने वाली तब मेरी मौसी रहीं, इन्हीं स्टेपमॉम को हमारे घर पर भेजा जाता रहा था। निरंतर। माँ का परहेज़ी पोषाहार उनके हाथों तैयार कराने हेतु।
“अम्माजी तो कहा करतीं आप कभी झूठ नहीं बोलते।” मालती अपनी टकटकी मेरे चेहरे पर बाँध लेती है।
मैं समझ नहीं पा रहा उसकी इस टकटकी के पीछे मेरी माँ के मृत्युस्थान की सही जानकारी है अथवा वह सच, जिसे हमेशा ओट में रखा जाता रहा है।
“मौसी और क्या कहती थीं?” विकल होकर मैं पूछता हूँ।
“सबकी शिकायत करती थीं-पति की, पिता की, दादी की, चाचा की, चाची की, यहाँ तक कि आपकी माँ और पत्नी की भी। मगर आप की शिकायत उन की ज़ुबान पर कभी नहीं आयी।”
बिना मुझे कोई पूर्व-संकेत दिये मेरी रुलाई बाहर उछल आयी है। जो पंद्रह वर्ष से मेरे गले में अटकी रही है।
“मालती।” जभी पापा की आवाज़ पिछले बरामदे में गूँजती है।
“जी सर,” मालती तत्काल कमरा छोड़कर उधर लपक लेती है।
“वे लोग आ गए क्या?”
“जी सर।”
“जी, पापा।” विभा भी अपने कमरे से चिल्लाती है। “हम आ पहुँचे हैं।”
“तुम दोनों उधर हाल में बैठो। मैं वहीँ आ रहा हूँ। इस बीच मालती मेरे गीले तौलिए बाहर आँगन में फैलाकर हमारे लिए चाय तैयार कर देगी…।”
“जी पापा,” विभा फिर चिल्लाती है।
मेरी रुलाई वहीँ थम जाती है। मेरे लिए ज़रूरी है मैं पूर्णतया प्रकृतिस्थ दिखाई दूँ। पापा को। विभा को। मालती को।
“तुम्हारा सूटकेस क्या मुझी को उधर ले जाना होगा?” विभा इस कमरे में आन घुसी है।
“नहीं,” अपने को प्रकृतिस्थ कर लेने का समय मुझे मिल चुका है।
“मंथरा अब दूसरी कैकेयी बनने की तैयारी में है,” विभा मेरे कान में फुसफुसाती है।
प्रतिवाद में मैं अपनी उँगली अपने होठों पर रखकर उसे चुप रहने का संकेत देता हूँ। जानता हूँ मेरी प्रत्येक प्रतिकूल टिप्पणी को एक लम्बी बहस बनाने का उसे शौक है।
“देखें, इसमें क्या है?” वह स्टेप-मॉम की स्टील-अलमारी के पास जा खड़ी हुई है।
अलमारी उसे बंद मिलती है।
“इसमें ऐसा क्या था?” वह हीं-हीं छोड़ती है।
“चलो, हाल में बैठते हैं।” मैं स्टेप-मॉम के कमरे के दरवाज़े का रुख़ करता हूँ।
स्टेप-मॉम की उपस्थिति मैं विभा के साथ सांझा नहीं करना चाहता।
सच पूछें तो इसमें मुझे पापा की साझेदारी भी नहीं चाहिए।
उनकी इकलौती सन्तान होने के बावजूद उनसे मेरे सम्बन्ध प्रगाढ़ नहीं, भुरभुरे हैं।
एक-दूसरे के संग न तो हम अपने अन्तर्मन के भेद ही साझे करते हैं, और न ही अपनी बाह्य समस्याएँ।
एक-दूसरे की आय एवं उसके प्रयोग के बारे में भी हम ज़्यादा नहीं जानते। अस्पष्ट रूप से उन्हें इतना ज़रूर मालूम है कि मेरी यह कम्पनी मुझे अच्छी तनख्वाह देती है और मुझे यह पता रहता है कि शहर के एक प्रमुख हड्डी-विशेषज्ञ के रूप में उन की प्रैक्टिस अच्छी चल रही है।
बदली गयी मेरी कम्पनी का नाम उन्हें मेरे कम्पनी बदलने के बाद ही मिलता है। मेरे साक्षात्कारों के समय नहीं। विभा के बारे में भी उन्होंने तभी जाना जब हमारा विवाह-प्रस्ताव अपने अन्तिम चरण पर था। हमारे प्रणय-याचन की कालावधि के दौरान नहीं।
और मोबाइल से ज़्यादा हम ई-मेल इस्तेमाल करते हैं। मोबाइल पर सीधी बात तभी करते हैं जब हमारी जीवनचर्या में कोई दुर्घटना घटी हो अथवा कोई नया चित्र उभर रहा हो।
जैसे विभा की गर्भावस्था और उसकी प्रसूति की सम्भावित तिथि सबसे पहले मैंने उन्हें ही उद्घाटित की थी। और सम्भावित उस तिथि से जब हमारा भास्कर पहले ही हमारे पास चला आया था तब भी यह सूचना सबसे पहले उन्हें ही मिली थी जिसे पाते ही उसी दिन वह मेरे पास पहुँच गए थे। मेरे बंगलुरु और अपने कस्बापुर की लम्बी दूरी तय करने हेतु टैक्सी और हवाई जहाज़ बदलने की मजबूरी के बावजूद। जैसे आज मैं उनके पास उनका मोबाइल पाते ही चला आया हूँ। बंगलुरु से लखनऊ और फिर लखनऊ से कस्बापुर। दो वर्षीय भास्कर को उसके नाना-नानी के पास छोड़कर, जो वहीँ बंगलुरु ही में रहते हैं।
हमेशा की तरह पापा से पहले उनके आफ्टर-शेव की महक हाल में प्रवेश करती है।
“हम दोनों आपके दुख में शामिल हैं,” आगे बढ़कर विभा अपने दोनों हाथ उनके हाथों की दिशा में बढ़ाती है। अपनी सान्त्वना प्रदर्शित करने के निमित्त।
अभिवादन के नाम पर हम दोनों में से न तो कोई किसी के पैर छूता है और न ही प्रणाम के साथ अपने हाथ ही जोड़ता है। बस पहचान की एक ‘हल्लो’ या फिर केवल एक मुस्कान ही से काम चला लेते हैं जो इस समय मैं दे नहीं सकता और अपनी सोफ़ा-सीट पर चुप बैठा रहता हूँ।
“तुम भी बैठो, विभा” उसके हाथों को हल्के से थपथपा कर पापा मेरे कन्धे आन छूते हैं। मेरी बग़लवाली सोफ़ा-सीट ग्रहण करने से पहले।
“आपका दुख हमारा दुख है, पापा”, विभा अपने बातूनीपन से मेरी चुप्पी की सम्पूर्ति अकसर किया करती है।
“पिछले चार साल से बीमार तो चल ही रही थी।” पापा मेरी ओर देखते हैं।
मेरे पैर और सिमट लिये हैं।
“उसका जाना तो लगभग निश्चित ही था…।”
“मगर सन्तोष की बात तो यह है कि उसका अन्त सहज रहा।”
अपने प्रत्येक वाक्य के बाद अपना नया वाक्य शुरू करने से पहले वह हमेशा की तरह लम्बे विराम लेते हुए बोल रहे हैं। उनकी आवाज़ में किसी भी भाव का उतार-चढ़ाव नहीं। यह अनुमान लगाना कठिन है कि वह राहत महसूस कर रहे हैं या फिर खेद।
“चुपचाप नींद में चली गयी…।”
“जो भी सुनता है यही कहता है, ऐसी मौत केवल भाग्यशाली लोग ही पाते हैं।”
“उनका भाग्य तो आप ने पलटा था, पापा।” उनके नये वाक्य के शुरू होने से पहले ही विभा बीच में कूद पड़ती है, “वरना वह तो ऊपर से दुर्भाग्य ही दुर्भाग्य लिखवाकर आयी थीं। अनाथ अवस्था में बचपन बितायी थीं। क्या तो उन्हें पालन-पोषण मिला होगा? और क्या लिखाई-पढ़ाई? और फिर कैसे तो उनके परिवार-जन ने आलोक की मॉम की मृत्यु का दोष भी उन्हीं के माथे ला मढ़ा था! ऐसे में आप ही थे पापा, जिन्होंने उन्हें सहारा दिया, घर दिया, नाम दिया… बीमार पड़ीं तो बड़े से बड़े डॉक्टरों से उनका इलाज करवाया, उनकी देखभाल के लिए उन्हें एक निजी नौकरानी रख कर दी। अब उन्हें भाग्यशाली नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे?”
“उसे जो कहें, सो कहें,” विभा के मुँह से अपनी जयकार सुनकर पापा विभोर हो उठते हैं। “मुझे यह बताओ मुझे क्या कहेंगे? जिसने दो बार विवाह किया और दोनों ही बार दाम्पत्य सुख से वंचित रहा? पहली बार पन्द्रह साल तक आलोक की माँ के कमज़ोर जिगर ने मुझे परेशान रखा तो दूसरी बार चौदह साल तक इला के अवसाद-रोग ने…।”
“मुझसे पूछेंगे तो मैं यह कहूँगी आप एक साथ अभागे भी हैं और सुभागे भी। अभागे इस भाव से कि आपने अपनी दोनों पत्नियाँ एक अभिशप्त परिवार से लीं…।”
“अभिशप्त? मतलब?” पापा चौंकते हैं।
“अभिशप्त, मतलब, यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि उस परिवार में विधुर और विधवाएँ अधिक हैं और दम्पती कम। मानो किसी दुर्वासा ने उन्हें शाप दे रखा हो, दाम्पत्य सुख से तुम लोग वंचित रहोगे। तभी देखिए, पिछली पीढ़ी में से आलोक की मॉम के दादा, चाचा और ताई, सभी समय से पहले चले गए और इस पीढ़ी के आलोक के बड़े मामा की पत्नी कैंसर में जा चुकी हैं और छोटे मामा की पत्नी कैंसर झेल रही हैं। बड़ी मौसी एक सड़क-दुर्घटना में पति गँवा चुकी हैं और नाना भी पिछले वर्ष विदा हो लिये हैं।”
“तुम सच कह रही हो, विभा,” पापा सकते में आ गये हैं, “मेरा तो इधर कभी ध्यान ही नहीं गया था।”
“क्योंकि आप सुभागे भी तो हैं।” विजयी भाव से विभा मेरी ओर देखकर मुस्कराती है, “दुर्वासा का यह शाप आपने झेला ज़रूर किन्तु आप जीवित बचे रहे, बने रहे, टिके रहे। जैसे आलोक की नाक बचपन में गहरी चोट खायी तो, मगर नाक बची भी रही, बनी भी रही, टिकी भी रही…।”
मेरे माथे पर त्योरी चढ़ आयी है। विभा ने पापा के और मेरे मर्म स्थान पर अपनी उँगली ला धरी है।
एक ही वज्रपात में।
‘चाय’, विशुद्ध चाय के तीन प्यालों के साथ ट्रे में शक्कर और दूध के अलग-अलग पात्र रखे मालती हमारे पास आ पहुँचती है।
ट्रे वह सबसे पहले पापा के पास ले जाती है।
फिर विभा के पास और सबसे बाद में मेरे पास।
वे दोनों ही अपने-अपने हिसाब से अपने प्यालों में दूध और शक्कर ले लेते हैं और मैं चाय भी लौटा देता हूँ, “मन नहीं…।”
“तुम अब बड़े हो गए हो, आलोक, “पापा मुझे मीठी झिड़की देते हैं,” एक बेटे के पिता भी बन चुके हो। अब तो अपना मन मज़बूत रखा करो।”
“यह मज़बूत बिल्कुल नहीं पापा।” विभा चुटकी लेती है, “भास्कर को हल्का बुख़ार भी आ जाय तो आफ़त खड़ी कर देते हैं।”
“हमें आप से कुछ कहना था, सर।” मालती की घोषणा विभा की ज़ुबान को विराम लगा देती है, “हम अम्माजी के लिए यहाँ आयीं थीं। जब वह नहीं रहीं तो अब आपको हमारी क्या ज़रुरत? आज हम जाएँगी सर…।”
“ज़रुरत क्यों नहीं?” पापा हड़बड़ा उठे हैं।“कल के अख़बार में इला की मृत्यु की ख़बर छपने वाली है। परसों की तारीख़ में उधर मन्दिर में शान्ति-पाठ रखा गया है और स्वाभाविक है, घर में तमाम मिलने वाले आएँगे…वे बैठेंगे तो फिर उन्हें खिलाना-पिलाना भी पड़ेगा…ऐसे में तुम हमें बीच में छोड़कर कैसे जा सकती हो?”
“आपकी बहू आ तो गयी है सब देखने-सँभालने…।”
“नहीं, भई, विभा घबरा गयी है, “मुझे तो तुम्हारी रसोई में यह तक नहीं मालूम क्या चीज़ कहाँ रखी है। मैं किस मेहमान को क्या देखूँगी? क्या सँभालूँगी?”
साढ़े-तीन वर्ष के हमारे इस वैवाहिक जीवन में विभा पापा की इस रसोई में कम ही दाख़िल हुई है और अगर कभी हुई भी होगी तो केवल यह झाँकने की ख़ातिर कि खाने की मेज़ पर हमें क्या मिलने वाला है।
“तुम्हें तो रुकना ही पड़ेगा मालती,” पापा अपना मधुरतम स्वर प्रयोग में ला रहे हैं-जानते हैं मालती यहाँ रहेगी तो उन्हें घरदारी की कोई चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी-
“जब तुम्हारी एजेंसी वाली तनख्वाह तुम्हें अब भी मिलने वाली है फिर तुम्हारे जाने का सवाल ही कहाँ उठता है?”
“नहीं सर। जब अम्माजी यहाँ नहीं तो हम भी नहीं यहाँ”, उसका गला भर आया है।
“तुम्हें अम्मा से मतलब है या फिर अपनी तनख्वाह से?” विभा चमकती है।
“पहले दोनों से बराबर था मगर अब अम्माजी से ज़्यादा है…”
“और अगर तुम्हारी तनख्वाह बढ़ाकर फिर दोनों बराबर कर दें तो?” पापा नरम पड़ जाते हैं।
“नहीं सर।” मालती हाथ जोड़ देती है, “हम तब भी नहीं रह पाएँगी। अपनी एजेंसी से हम बात कर चुकी हैं। वहाँ से सन्देश भी आ गया है- अपना सामान बाँधो और अपना नया पता पकड़ो…।”
“हम से पूछे बिना तुमने एजेंसी से बात भी कर ली? कब की बात?” पापा का स्वर बदल गया है। नरमी ग़ायब हो गयी है।
“जिस समय हम चाय बना रहे थे।” मालती झेंप जाती है।
“एजेंसीवालों को मैं समझा लूँगा।” पापा अपनी जेब से अपना मोबाइल निकाल लेते हैं। “हमें एक सप्ताह का नोटिस दिये बिना वह तुम्हारा नया पता नहीं तय कर सकते…।”
उनकी आवाज़ में धमकी है। अहंभाव एवं घमंड है।
“आप का ज़ोर न उनपर, चल सकता है और न हम पर”. अपने हर वाक्य में ‘सर’ जोड़ने वाली मालती अपने ‘सर’ के साथ अपनी आवाज़ में विनम्रता लाना भी भूल रही है, “न वह आपके परिवार से हैं, न हम। आप न उनका कुछ बिगाड़ सकते हैं, न हमारा…।”
“तुम मुझे जानती नहीं।” पापा तिनकते हैं, “मैं किसका क्या-क्या बिगाड़ सकता हूँ?”
“हम सब जानते हैं। अम्माजी हमें सब बतायी हैं। बिगाड़ने पर आते हैं तो अपने बेटे तक को नहीं बख्शते…”
पापा का रंग सफ़ेद पड़ रहा है।
“यह क्या बक रही है, पापा?” विभा पापा को कुरेदती है। विभा विष की गाँठ से कम नहीं। आग या झगड़ा लगाने में अव्वल।
“तुम तो जानती हो, विभा, डिमेंशिया के रोगी तमाम बेतुकी और अनर्गल बातें गढ़ा करते हैं। इला ने भी ऐसी कुछ मनगढ़ंत बात बना ली होगी…” विभा की जिज्ञासा पापा को उनके आपे में लौटा लायी है।
“पापा ठीक कहते हैं,” अपनी ज़ुबान खोलना मेरे लिए अनिवार्य हो गया है-पापा को मैं विभा की सूली पर नहीं चढ़ाना चाहता। “यह बिगाड़वाली बातें स्टेप-मॉम की मनगढ़ंत ही रही होंगी। सच नहीं…।”
“चलिए, मालती से वह मनगढ़ंत ही सुन लेते हैं,” मालती को विभा एक नटखट मुस्कान देती है। शायद उसकी नज़र में मालती और पापा के बीच उत्पन्न हो रही इस नयी युद्धस्थिति ने मालती के काम छोड़ने की घोषणा से अधिक महत्ता ग्रहण कर ली है।
“मालती अब कुछ नहीं सुनाएगी”, पापा अपनी सोफ़ा-सीट से उठ कर खड़े हो गए हैं।
वह अपनी चाय का प्याला बीच वाली मेज़ पर टिकाते हैं और अपने मोबाइल पर एक नम्बर घुमाते हुए मालती को अपने पीछे आने को कहते हैं, “चलो, मेरे साथ उधर पिछले बरामदे में आओ…। तुम्हारी एजेंसी से बात करता हूँ और तुम्हारा हिसाब अभी ही निपटा देता हूँ…। सोचता हूँ तुमने अगर जाने का मन बना ही लिया है तो मुझे तुम्हें रोकना नहीं चाहिए।” उनका स्वर समतल है।
उपायकुशलता में उनका कोई सानी नहीं। जाते-जाते वह मेरी ओर देखकर अपने चेहरे पर कृतज्ञभाव को आह्वान भी देते हैं!
हाल से दोनों के ओझल होते ही विभा गोली दागती है। “मैं नहीं जानती थी मालती इतनी हेकड़ और अक्खड़ है! यह तो मंथरा से भी बहुत आगे निकल ली है। राम पर बलिहारी जा रही है और सीधे दशरथ से भिड़ने चली है…।”
“तुम तो नहाना चाहती थीं” मैं विषय बदल देना चाहता हूँ, “तुम अब नहा क्यों नहीं लेतीं?”
“अभी कैसे नहा सकती हूँ?” विभा हँस पड़ती है, “अभी तो मैं चाय पी रही हूँ।”
“ओह!” मैं बनावटी आश्चर्य व्यक्त करता हूँ।
“और अभी तो मुझे यह भी जानना है मेरे पा-इन-लॉ ने मेरे हज़बंड का क्या बिगाड़ रखा है? उसे क्या नहीं बख्शा है? उसका कोई लव-अफेयर? उसकी कोई प्रेम-कथा?”
“तुम्हें बताया तो है पापा ने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा… कभी नहीं बिगाड़ा…।”
“अभी तुम पिटारी बन्द रखना चाहते हो तो यही सही।” वह मध्य-मार्ग ले लेती है-जानती है ई समय मुझसे सुलह कर लेने में ही उसे फ़ायदा रहेगा क्योंकि मालती क न रहने से उसे अब मेरी मदद की ज़रुरत पड़ने वाली है-“लेकिन उधर बंगलुरु में तुम्हें पिटारी खोलकर वह साँप बाहर निकालना ही पड़ेगा। मालती की छोड़ी इस फुलझड़ी की चिनगारियाँ ऐसे नहीं बुझने वाली।”
मैं नहीं समझता वह बीती मेरी ज़ुबान पर कभी आएगी…।
पन्द्रह वर्ष पूर्व वाली वह घटना आकस्मिक थी। और अनजाने ही घटी थी।
माँ की तेरहवीं का जमघट छँटते-छँटते पूरी तरह से विघटित हो चुका था। मेरे ददिहाल एवं ननिहाल से आये सभी जन हम से विदा ले चुके थे। एक इन्हीं इला मौसी को छोड़कर। घर में सामान्य स्थिति लौट रही थी।
उस दिन शाम के नाश्ते के साथ जिस समय मौसी मेरे कमरे में आयी थीं, मैं पढ़नेवाली अपनी मेज़ पर अपना टेप-रिकॉर्डर रखे अपनी कुर्सी पर बैठा अँग्रेज़  गीतकार, गायक एवं वादक, स्टिंग का गीत-‘बी स्टिल, माय बीटिंग हॉर्ट (निश्चल हो जाओ, ताल दे रहे मेरे दिल) सुन रहा था और जीवन, मृत्यु एवं प्रेम का बखान कर रहे उसके शब्द मुझे अपनी माँ को मृत्यु के हाथों यों खो देने के दुख से जोड़ रहे थे। यहाँ यह बताता चलूँ, १९८७ में रिलीज़ हुई स्टिंग के जिस एल्बम-नथिंग लाइक द सन (सूर्य जैसी कोई चीज़ नहीं)- में यह गीत संकलित था, वह एल्बम स्टिंग ने अपनी माँ को समर्पित कर रखी थी। जिन्हें उसी वर्ष कैंसर ने लील लिया था।
“अपना टेप-रिकॉर्डर बन्द करो और देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लायी हूँ,” मौसी की ट्रे में कोल्ड कॉफ़ी के साथ ताज़े बने पनीर-रोल्ज़ रखे थे।
उन्हें देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी। वह मुझे बहुत पसंद थे और मेरी माँ ही ने मौसी को उन्हें बनाने की विधि सिखायी थी। शरीर से माँ बेशक दुर्बल थीं किन्तु उनकी इच्छाशक्ति बहुत प्रबल थी।
“तुम नाहक रोते हो, बच्चे,” मौसी ने मुझे अपने अंक में भर लिया था और मेरे आँसू पोंछते हुए बोली थीं, “मेरे पास तो मेरे माता-पिता दोनों ही नहीं, और कब से नहीं, फिर भी मैं रोती नहीं…।”
और मेरी रुलाई तत्काल ठहर गयी थी। अंजानी-सी एक सिहरन को स्थान देने के निमित्त।
उससे मेरी पहचान अभी गति भी न पकड़ पायी थी कि पापा ने मौसी के कन्धे आन झिंझोड़े थे और उन्हें मुझसे अलग छिटकाकर उनपर चिल्लाये थे, “तुम्हें मन ही बहलाना है तो किसी और के पास जाओ। मेरे बेटे को अपने हाव-भाव मत दिखलाओ। उसके पास फिर कभी फटकना भी मत…।”
“मैंने किया क्या है?” मौसी चीख़ पड़ी थीं। उस एक क्षण के लिए सामान्य अपना दब्बूपन दर किनार करती हुई, “वह जीजी के लिए रो रहा था और मैं, उसे हौसला बँधा रही थी…।”
पापा और ताव खा गये थे और मौसी के गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया था।
पापा का हाथ भरी था और मौसी का गाल नाज़ुक, वह उस तमाचे की प्रचंडता सह नहीं पायी थीं और चक्कर खाकर वहीँ मेरे कमरे के फ़र्श पर गिर पड़ी थीं।
मुझसे वह देखा न गया था और मैंने अपने पूरे ज़ोर से पापा को धक्का दे डाला था।
मेरे उस आकस्मिक आक्रमण ने उन्हें चकित कर दिया था।
उनका निहंग-लाडला उन्हें धक्का दे दे? जिस पर उन्होंने सर्वाधिक प्यार-दुलार लुटाया था? जिसे वह अपनी एकल ‘सिल्वर लाइनिंग’ मानते रहे थे? घोषित करते रहे थे? “मेरा यह आलोक घने काले बादल जैसे मेरे जीवन का रूपहला कोर है-मेरे उज्जवल भविष्य की एकमात्र सम्भावना… मेरे क्लिनिक का अगला स्वामी।”
किन्तु वह देर तक चकित न रहे थे। जल्दी ही उनका प्रकोप फिर उनपर हावी हो गया था। दुगने वेग से। और वह मुझपर झपट लिए थे। मेरी गर्दन को एक ज़ोरदार हल्लन देकर मेरा सिर मेरी पढ़नेवाली मेज़ पर जा पटका था।
मेरी नाक रिसने लगी थी। मानो उसके अन्दर से खून का कोई फव्वारा छूटा था।
उस फव्वारे ने पापा के बिगड़े तेवर तुरन्त बदल दिये थे।
वह जानते थे उस फव्वारे को निष्क्रिय करना बेहद ज़रूरी था और उसके लिए मेरी नाक का उपचार उनकी प्राथमिकता बन गयी थी। डेढ़ माह तक निरन्तर चली उस उपचार की अवधि ने उनकी दंडाज्ञा का समयानुपात बेशक गड़बड़ा दिया था किन्तु उसे अकृत नहीं किया था।
दंडाज्ञा ने हम दोनों पर निशाना बाँधा था।
मुझे घर से बाहर निकलकर छात्रावासी बनना था और मौसी को घर के अन्दर सीमित रहकर मेरी स्टेप-मॉम।
उस समय मैं पन्द्रह वर्ष का था और मौसी बाईस की। पापा से ठीक बीस वर्ष छोटी।
दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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