बारिश जोरों से हो रही थी। हरियाली की खुशबू से महकती धरती झूम रही थी, रह रह कर चमक उठती बिजली सिहरन पैदा कर रही थी। ट्रेन की खिड़की से झांकती शुभी के चेहरे पर बूंदों की अठखेलियां जारी थी। साथ ही संग संग चल रहा था यादों का सफर जिसने उसे बरसों पहले वाली शुभी की याद दिला दी थी।  तब अम्मा जिंदा थी। और सावन का आना घर में हंसी खुशी उल्लास और उत्सव की उमंग लेकर आता था। अम्मा कजरी बहुत मधुर गाती थी, घर के आंगन में लगे आम के पेड़ पर झूला डलवाती और शुभी व उसकी सहेलियां जी भर झूलती थीं –
“कच्चे नीम की निंबोली बाबा लेते आना जी, मेरी दूर है सहेली बाबा लेते आना जी”
अम्मा की उत्साह भरी कजरी कभी त्योहारों का रंग फीका नहीं पड़ने देती थी, अभावों में घिरे जिंदगी के एक एक पल को उन्होंने अपने साहस और हिम्मत के बल पर एक नयी जिंदगी दी थी।
शुभी के पिता एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थे, घर में बस  शुभी और निखिल भैया ही थे, दो जून रोटी की जद्दोजहद में अनवरत जुटे पिता ने कभी घर के उल्लास को महसूस किया हो या नहीं पर अम्मा ने उन्हें कभी यह अहसास नहीं होने दिया था।
घर में दोपहर ,जब सभी विश्राम कर रहे होते , शुभी चुपचाप छत पर बरसते बादलों में भींगते हुए ,गोल गोल चककर लगाती -और कजरी के अनगढ़ गीत गाती –”आइल सावन के महिनवाँ -बुंदियाँ रिमझिम बरसे ना”–इस पुनीत कार्य में उसकी सहेलियां भी शामिल रहती थीं। गीत के बोलों का अर्थ भले ही समझ में न आता हो, लेकिन भीगने का आनंद तो सौ गुना होता था, फिर जी भर नहाने के बाद सभी सहेलियां मिलकर चंदा करतीं और सड़क  के कोने में गर्म पकौड़ियाँ और आलूचप तलती  रन्नो की माई की दुकान उनका अड्डा होती थी – जिन्हे खरीद कर बरामदे में बैठ उनका अनोखा,तीखा  स्वाद मुंह में घुलता रहता था, जब किसी ने देख लिया तो जोरदार डांट खाने के बाद भी अपनी मुस्कराहट छिपाकर वहां से भाग खड़ी होती थीं और पड़ोसी के घर से अमरुद तोड़कर माँ से उनकी चटनी बनाने का मीठा आग्रह — माँ की सारी शिकायतें भुला देता।
आज भी बारिश होती है। मेघों का रिमझिम मन को भाता तो है, पर अम्मा की याद जरुर आती है। अम्मा सावन में शुभी के लिए हरी चूड़ियां और धानी दुपट्टा जरुर लाती थीं, शुभी को ओढ़ाकर बहुत खुश होती थीं, जैसे अपने भूले बिसरे अभावो भरे बचपन की खुशियों को जी रही थी। सावन में पड़ने वाले तीज त्योहारों पर अम्मा मीठा आमरस और खीर जरूर बनाती और तब झूले पर बैठी अम्मा बड़े मन से कजरी गाती – “अबके बरस भेजो भैया को बाबुल, सावन की पडल फुहार रे”
शुभी भी अम्मा के साथ गाने लगती थी बिना यह जाने कि इस गीत के पीछे अम्मा के जीवन की कितनी करुण कहानियां छिपी हैं। निखिल भैया खूब मन लगाकर पढ़ते थे, पिताजी के श्रम से कमाये गये पैसों का मूल्य समझते थे, उच्च शिक्षा तक वे अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकालने लगे। शुभी भी बड़ी हो गई इसी आपाधापी, हर्ष, विषाद के पलों में जीती हुई घर की लाडली बेटी।
फिर निखिल भैया की शादी हो गई और घर में संगीता भाभी आ गईं, अम्मा के लाड़ दुलार ने उन्हें हाथों-हाथ रखा और बड़े घर की आई बेटी ने खुद ही घर की जिम्मेदारियों से किनारा कर लिया था, शुभी की शादी होने तक अम्मा मशीन की तरह दौड़ भाग करतीं रहीं थीं, पर धीरे धीरे अम्मा बीमार पड़ने लगी। शरीर अशक्त हो गया था, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। बरसों तक जिम्मेदारियां निभाती अम्मा अब थक गई थी।
उसे याद है, उस बार सावन की राखी पर घर आई शुभी,को घर की उदासी और अकेलेपन से जूझना पड़ा था। भाभी अपने कमरे तक सीमित हो गई थी और भैया कभी कालेज तो कभी भाभी के साथ शापिंग पर, अम्मा का अकेलापन बांटने वाला कोई नहीं था। राखी पर शुभी की कलाई में हरी चूड़ियां न देख अम्मा बेचैन हो उठी थी, भाभी से बार बार कहने पर भी उन्होंने अनसुना कर दिया था। तब उनकी, आंखों में आसू  आ गये थे, उन्होंने पड़ोसी विमला से हरी चूड़ियां और धानी दुपट्टा मंगवाया और उसे ओढ़ाकर देर तक निहारती रही, उस दिन शुभी बहुत रोई थी। अम्मा की भावुक विवशता देख कर उसका मन भीग गया था, मां बेटी के अटूट रिश्ते की डोर में बंधे ये अनमोल पल उसने मां की गोद में सिर रख कर चुपचाप रोते हुए सहेज लिए थे जीवन भर के लिए। फिर क्रूर नियति ने पहले बाबा को, फिर अम्मा को छीन लिया, शुभी अकेली हो गई।
चाय वाले की पुकार से उसकी तंद्रा टूटी, बारिश की बूंदों के साथ  आंसू गालों पर बह आये थे। वह बरसों बाद अपने बचपन के शहर में लौट रही थी,उसके मायके के शहर में ही महिला कालेज में उसकी पोस्टिंग हुई थी, उसे ज्वाइन करना था, परिवार बाद में आयेगा, पर यहां आने का फैसला लेने में शुभी को महीनों जद्दोजहद करनी पड़ी थी, फिर बिछड़े मायके का मोह जीत गया था और वह चल पड़ी उन बिछुड़ी गलियों की ओर। वहीं रास्ते, खेत, पगडंडियां सब कुछ जाना पहचाना-सा।
यादों का सफर जारी था, भाभी के साथ भैया ने भी उसे भुला दिया था जैसे। कभी भूलकर एकाध फोन आता भी तो बस कुशल जानने तक, इस उपेक्षा ने उसके मन को चोट पहुंचाई थी, उसने भी वहां जाना छोड़ दिया था, मायके की देहरी दूर हो गई थी।
शुभी का गंतव्य आ गया था, बनारस स्टेशन से रिक्शा कर वह सीधे महिला महाविद्यालय के गेस्ट हाउस में आ गई थी। फ्रेश होने के बाद मेड चाय ले आई थी, वह चाय लेकर गेस्ट हाउस की बालकनी में आकर खड़ी हो गई। आज कई वर्षों के बाद शुभी इस शहर में आई है, अपने बचपन का शहर। जहां जन्मी, बचपन बीता, वही शहर आज बेगाना-सा हो गया है, क्यों नहीं उसकी शीतल बाहें उसे अपनी ममता की छांव में समेट लेती? सड़क की भीड़ में उसकी आँखें हमेशा की तरह किसी परिचित को तलाश रही थीं।
अचानक अपनी स्थिति का ध्यान आते ही वह संभल गई, परंतु न जाने क्यों आज अपने भूले बिसरे रिश्तों से जुड़ने के लिए मन व्याकुल हो उठा था, उस अधूरे अहसास की पूर्णता पाने के लिए वह बेचैन हो उठी थी, अम्मा के दिये संस्कारों ने आज आवाज उठाई थी। वह अनुभव कर रही थी कि उसके जीवन की सारी खुशियां अधूरी हैं, जब तक उसमें उसके अपने शामिल न हों।
शायद वह रिश्तों की गरिमा, मर्यादा, और प्रगाढ़ता की अपनी लड़ाई तब हार गई थी पर आज वह खाली हाथ नहीं लौटेगी। वह हारेगी नहीं, वह लड़ना चाहती है, संबंधों की उस टूटन के खिलाफ, दिलों में पैदा हो गई दूरियों के खिलाफ,न केवल अपने मन की शांति के लिए, बल्कि उस औरत के लिए जो एक मां है, बेटी है, सबसे बढ़कर एक नारी की अस्मिता की पहचान है।
वह जरूर करेगी यह समझौता, अम्मा के लिए। जो उसकी यादों में स्नेह, त्याग, ममता की धरोहर छोड़ गयी है, वह निखिल भैया को फोन करने लगी। थोड़ी देर बाद, दरवाजे की घंटी बज उठी। खोला तो सामने भैया थे, दोनों की आंखें बरस उठीं थीं। बाहर सावन के मेघ बरस रहे थे, भैया के हाथों में भाभी का भेजा उपहार था। वही धानी दुपट्टा और हरी चूड़ियां। वह बिलख उठी, भैया के गले लगकर वह देर तक उस अहसास को जीती रही। मन में अम्मा के गीत गूंज रहे थे –
अबके बरस भेजो भैया को बाबुल। अबके बरस मोरे नैना न बरसे।“ 

4 टिप्पणी

  1. कच्ची नीम की निंबोली पढ़कर बचपन याद आ गया! बहुत अच्छी लगी कहानी! मन भावनाओं के उतार-चढ़ाव से भीग गया!

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