Friday, October 11, 2024
होमकहानीप्रताप दीक्षित की कहानी - मत्स्यगंधा के देश में

प्रताप दीक्षित की कहानी – मत्स्यगंधा के देश में

सहाय साहब शेविंग कराने के लिए किसी सैलून की तलाश में निकले थे। सुबह जल्दी उठ वाशबेसिन पर लगे आइने में चेहरा देखा। निरीह, असहाय ओर वृद्ध। तीन-चार दिनो में चेहरे पर सफेद झाड़ियां सी उग आई थीं। दो दिन तो ट्रेन में ही बीत गए थे। देखा तो सामान में शेविंग-किट नहीं थी। घर में छूट गई होगी। पहले उन्होने पत्नी को जगा कर दरयाफ्त करना चाहा। घर पर होते तो लापरवाही के लिए स्पष्टीकरण भी मांगते। वह जब्त कर गए। अब तो हर कहीं यही करना पड़ता है। पहले उनमें बर्दास्त का माद्दा था भी कहां। यह बदलाव तो रिटायरमेट के बाद आया था। 
बेटी जानती थी कि बेटे-बहू के विदेश जाने ओर वहीं बस जाने के बाद पापा-मम्मी नितांत अकेले पड़ गए हैं। दामाद ने भी इसरार किया था। वातानुकूलित शयनयान के टिकट कूरियर कर दिए थे। बेटी-दामाद स्टेशन पर लेने आ गए थे। स्टेशन से घर दूर था  लेकिन दामाद की गाड़ी थी, अतः कोई असुविधा नहीं हुई।
जहां तक बात नफासत की है, विद्यार्थी जीवन में जब उनके पास एक पतलून-कमीज होती  थी, रात में धोकर सुबह इस्तरी कर लेतें। पुराने लेकिन पालिश से चमकते जूतों में वह सहपाठियों में अलग ही दिखते। अब तो पत्नी ने सब सम्हाल लिया थां रात में सोने के पहले वह नियमित रूप से स्नान करते। बाहर बिस्तर  पर धुला, कलफ-प्रेस किया हुआ कुर्ता-पाजामा रहता। चाय, पानी पीते, खाते समय सुड़कने, चप-चप की आवाज करने वालों को वह ज़ाहिल, गंवार कहते। बेकारी, गरीबी, पिछड़ेपन आदि समस्याओं के लिए उनके अनुसार शास्वत कारण थे- आलस्य, गैर जिम्मेदारी, अनुशासनहीनता और बढ़ती जनसंख्या। वह स्वयं कड़े परिश्रम और अध्यवसाय से निचले पायदान से इस स्तर तक पहुंचे थे। 
उनका रक्तचाप बढ़ा रहने लगा था। पत्नी और बड़े होते बच्चे उन्हे समझाने की कोशिश करते। वह फट पड़ते- इस सब को अनदेखा कर मूक दर्शक बना रहूं? फिर इनमें और मुझमें अंतर क्या रह जाएगा? ढोरों के बीच मैं भी ढोर बन जाऊंउन्हे लगता समय के साथ परिस्थितियां और विषम होती जा रही हैं। रिटायरमेंट पास आ रहा था। दफ्तर में लगता उन्हे देख अभी अभी कानाफूसियां रुकी हैं। किसी अनियमितता पर डांटने के बाद, उन्हे प्रतीत होता, लोग मुस्कराहट दबाने का प्रयास कर रहे हैं। जिस महीने उन्हे रिटायर होना था, उन्होने महसूस किया कि बाढ़ ने नियमों के तटबंध तोड़ दिए हैं। काम पेंडिंग रहता, सीटों से लोग गायब रहने लगे। लेन-देन की प्रक्रिया चोरी छिपे चालू हो गई है। यद्यपि ऊपर से सबकुछ सामान्य और यथावत दिखने का प्रयास चल रहा था। 
रिटायरमेंट के बाद सरकारी बंगला, गाड़ी तो जानी ही थी। वह एक फ्लैट में शिफ्ट हो गए थें। पुरानी मारुति 800 घर में थी। जाना भी कहां था। शुरुआती दिनो में कभी कभी क्लब, गिने-चुने मित्र, यदा-कदा पुराने दफ्तर चले जाते। दफ्तर में उनका स्वागत होता, लेकिन वहां दिनचर्या देख वह क्षुब्ध हो जाते। उनके हमउम्र मित्र उन्हे निराश बूढ़े नज़र आते होते। क्लब, लायब्रेरी सभी जगह एक ही सी हालत थी। वहां बरसों से नई किताबे नहीं आई थीं। उन्हे लगता कि पुरानी किताबों की धूल भरी सीलन सभी जगह फैल गई हैं बर्फ की चट्टानो में तब्दील एक अदृष्य शीतलहर से घिरे हुए पातें धीरे धीरे उनका बाहर निकलना बंद सा हो गयां। मॉर्निंग वाक पर वह सुबह जल्दी ही निकल जाते। बाद में लिफ्ट में अफरा तफरी रहतीं। लोग निर्धारित से कहीं ज्यादा संख्या में भर जाते। मुंह से कुछ देर पहले किए गए नास्ते-आमलेट, लहसुन अथवा पान मसाले की तेज गंध, पसीने की बदबू दबाने के लिए उसे और उद्धत करती डिओडोरेण्ट की बेधती लहर उन्हे बेचैन कर देती। ऐसे वक्त यदि जाना जरूरी होता तो वे सीढ़ियों का उपयोग करते। बहुत पहले एक बार उनका ड्राइवर, उनके आने तक, शायद बीड़ी पी रहा होगा। उनके अति संवेदनषील नासारन्ध्रों में हवा में उपस्थित बीत चुकी गंध असह्य हो गई। उन्होने उसे इस बुरी तरह डांटा था कि, उनकी जानकारी में, उसने भविष्य मे फिर कभी धूम्रपान नहीं किया था। 
 सुरुचि, स्वच्छता, वार्तालाप ओर छोटी छोटी बातों में भी आभिजात्य के प्रचिलित तरीके उनकी जीवन शैली का अविभाज्य अंग बनते गए। यह उनकी परिवेशगत विवशता थी या बचपन से युवावस्था तक किए गए संघर्षों की विपरीत प्रतिक्रिया, उन्हे स्वयं नहीं मालूम। लेकिन यह सच था कि उन्हे इसमें अनुचित कुछ भी न लगता।
यादों की पिटारी खोल वे कितनी देर चलते रहे पता ही न चला।  वे वर्तमान मे लौटे। उन्होने देखा कि चटख धूप निकल आई है। घर से निकले देर हो गई थी। जाने कितनी देर वे चलते रहे थें। चौराहे से मुड़ कर सामने केश कर्तनालयका द्वि-भाषी बोर्ड दुकान पर लगा थां। कांच के बड़े दरवाजे पर पर्दे। अंदर सोफों पर अपनी बारी के लिए लोग प्रतीक्षारत थे। उन्हे लगा कि देर लगेगी। नई जगह मजबूरी थी, वे बैठ गए। एक काउण्टर पर हाथ का काम खत्म कर सैलून के मालिकनुमा व्यक्ति ने नम्रता से उनसे आने के लिए कहा। तीन-चार लोग पहले से बैठे थे। उन्हे आष्चर्य आश्चर्य हुआ। लेकिन उनसे ही कहा गया था। बैठेे लोगों ने भी सहमति में सिर हिलाते हुए उन्हे जाने के लिए कहा। उनको लगा उन लोगों ने उनकी उम्र का लिहाज किया है। हजामत के बाद उनका चेहरा जैसे बदल गया थां खिला खिला सा। उन्होने कुर्ते की जेब में हाथ डालते हुए प्रश्नवाचक दष्टि से उसकी ओर देखा। 
पांच टाका, सर!उसने कहा थां उन्हे लगा कि दुकान की हैसियत देखते हुए रेट बहुत कम थे। 
दुकान से निकलते समय वह मुदित थे। उन्हे बहुत दिनो बाद छोटी सी खुशी-यथोचित मान- प्राथमिकता मिली थी। वह उसी मे मग्न चलते हुए चौराहे तक आ गए। चौराहेसे बाएं मुड़े, कुछ दूर तक सीधे चलने के बाद उन्हे लगा कि वह किसी दूसरे रास्ते पर आ गए हैं। सुबह वाली रास्ते की पहचान गडमड हो गई थी। वह फिर लौटे, दूसरी दिशा की ओर चल दिए। दूर तक चलने के बाद दूसरा चौराहा था, अनजान सा। एक सड़क से दूसरी, फिर एकदम नई। वह भ्रमित हो गए। एक तो सुबह जब वे निकले थे दुकाने बंद थीं। इस समय दुकाने खुल चुकी थीं। सड़कों की सुबह वाली पहचान गुम हो गई थी। दूसरेवह चल जरूर इन सड़कों पर रहे थे, लेकिन पूरे समय वे बीत गए कल की तलाश मे रत रहे थें। अवकाश ग्रहण के बाद अकसर ऐसा होता। वह वर्तमान के रथ पर सवार अतीत की यात्रा पर निकल जाते। उन्होने लौटना चाहा, परंतु इस बार बिल्कुल नए रास्ते पर आ गए। अब किसी से पूछना ही पड़ेगा। लेकिन उन्हे तो अपने दामाद का एपार्टमेंट, लेन का नाम कुछ भी याद नहीं था। कल ही रात तो आए हैं। ईडेन, जेनेक्स, प्रान्तिक ऐसा या कुछ और? उन्होने ध्यान ही नही दिया। उन्हे दामाद के एपार्टमेंट का बाहरी द्वार ओर मूंछों वाले दरबान का चेहरा ही धुंधला सा याद था। बेटी ने फोन पर पता बताया जरूर होगा। उन्होने तवज्जो नहीं दी थीं। डायरी में पत्नी ने लिख भी लिया था। लेकिन उसकी आवश्यकता  ही नहीं पड़ी। वे लोग तो उन्हे स्टेशन पर लेने आ गए थे। डायरी भी सामान के साथ घर पर ही थी।
उन्होने दामाद का फोन नम्बर याद करने की कोशिश की, परन्तु नया तो दरकिनार, उन्हे तो उसके पुराने शहर का नम्बर भी नहीं याद था। दरअसल, इस तरह की सभी जिम्मेदारियां पत्नी ने सम्हाल रखी थीं। ज्यादातर तो, लगभग प्रतिदिनबेटी ही फोन कर लेती। मोबाइल तो उन दिनो थे नहीं। वह थक गए थे। ज्यादा पैदल चलने की आदत भी नहीं थी। उन्होने प्रयास किया कि शायद कोई दामाद को नाम से जानने वाला मिल जाए। अभी कुछ दिनो पहले ही तो तबादले पर आया है। स्टील कम्पनी में बड़ा अफसर है। लेकिन असफलता ही हाथ लगी। हजारों तो मल्टी नेशनल कम्पनियां हैं यहां। 
उनका दिशा ज्ञान ही नहीं, समय बोध भी समाप्त हो गया। कितनी देर हो गई घर से निकले। वह एक भूल-भुलैया में फंस से गए थे। पत्नी, बेटी, दामाद अलग परेशान हो रहे होंगे। उनके पास पैसे भी अधिक नहीं थे। सुबह घर से चलते समय पर्स से निकाल, थोड़े नोट-फुटकर पैसे, जेब में डाल लिए थे। उन्होने एक आटो-रिक्शा रोका। उसे अपनी समस्या बताई- मैं अभी कल ही यहां आया हूं। रास्ता भूल गया हूं। मैं अपना एपार्टमेंट देख कर पहचान लूंगा। पैसे जो भी होंगे वहीं चल कर दे दूंगा।
वह आटो पर कई घण्टों तक घूमते रहे। बस इस चैराहे से बांएं, अच्छा जरा सा वापस चल कर दाएं घूम कर चलो। उन्हे याद आता सा लगता- इस पार्क से घूम कर सीघे। उन्हे लगता इस मोड़ के बाद वाला ही एपार्टमेंट है, परंतु पास जाकर वह दूसरा निकलता। वह दुकानो, मकानो पर लगे होर्डिंग्स पढ़ते जाते- कुलिया, माझेर पारा, हेमचन्द्र नस्कर रेड, सुरेश चन्द्र बनर्जी स्ट्रीट आखिर कैनिंग स्ट्रीट पार हो गई। बेली घाट से काफी दूर जाकर उसने आटो रोक दिया – बस साहब मेरा पेमेण्ट कर मेरी छुट्टी करें। अब आप दूसरा आटो कर लें। चार बजे गाड़ी जमा करने का वक्त हो गया है।
सहाय साहब हलकान हो गए थे- लेकिन भाई मैने तो पहले ही कह दिया था कि भाड़ा घर चल कर दूंगा। तुम मुझे घर तक पंहुचा दो। थोडा वक्त और लगेगा। लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। उन्होने असहायता से इधर उधर देखा। आसपास ढलवां छतों वाली पुरानी बस्ती थी। विवाद सुन कर लोग इकट्ठे हो गए। पुरुषों के साथ बच्चे और औरतें भी। उनकी जेब में, उन्होने गिने, कुल मिला कर सत्तर के करीब रुपए थे। वह डेढ़ सौ मांग रहा था। आखिर भीड़ के बीच कुछ लोगों ने स्थिति समझी। उन्होने आटो वाले को समझाया। वह उतने ही लेकर भुनभुनाता चला गया। सहाय साहब ने आश्वस्ति की सांस ली। अनुग्रहीत नजरों से उनकी ओर देखा। लगभग सभी आबनूस से काले, अर्द्ध नग्न, स्वस्थ देह यष्टि के। उनका गला प्यास से सूख रहा था। बस्ती में घरों के बाहर चारपाइयां, मोढ़े, बेतरतीबी से पड़े हुए थे। थकावट के कारण उनके लिए खड़ा होना मुश्किल थां वह उधर बढ़े, बैठना चाहते थे। वह अपनी परेशानी बताते, इसके पहले उन्हे एक युवक और दूसरी ओर से एक युवती ने सहारा दिया। वह एक चारपाई पर ढह से गए। युवती एक लोटे में पानी और एक गिलास ले आई थी। उन्होने मुंह धोया, आंखों पर पानी के छींटे मारे और बिना गिलास के लोटे से पानी गट गट पी खाली कर दिया। अब उन्होने देखा। बस्ती शायद मछुआरों की थी। घरों  के दालानो, उसके सामने और फैले हुए मैदान में जाल फैले हुए थे। टोकरियों में छोटी-बड़ी मछलियां सूख रही थीं। जिनकी बास पूरे वातावरण-हवा में घुली हुई थी। लेकिन इस समय वह उन्हे असहनीय नहीं लगी। तब तक युवती अल्युमीनियम की एक साफ थाली में चावल और झोलदार सब्जी के साथ दूसरी रकाबी में सन्देश ले आई थी। उन्होने मछलियों के ढेर की ओर देख कर बेबसी से कहना चाहा- आमि निरामिश!
युवती हंसी। गहरे काले रंग के बीच दूध सी उजली हंसी झलकी- एते माछ नेई – -।
वह खाने पर टूट पड़े थे। उंगलियां ही नहीं, ठोढ़ी, नाक सब लिथड़ गए थे। खाना खतम कर उन्होने जोर से डकार ली, नजरें उठाईं। युवती के होंठों पर मुस्कान, आंखों में महले कौतूहल फिर वात्सल्य झलका था। बिना कुछ कहे कितना कुछ कहती हुई । उन्हे पहली बार महसूस हुआ कि अभिव्यक्ति कभी भाषा की मोहताज नहीं होती। वह रात उनकी बस्ती में ही बीती। अंदर कमरे में उनका बिस्तर लगा दिया गया था। मेहमान के लिए धुली चादर-गिलाफ निकले थे। उन्हे याद आया- उनके समाज में अजनबी तो दूर, निकट के अतिथि भी अब होटल मे ठहरने लगे थे। खुली खिड़की से कमरे में चांदनी के साथ साथ मछलियों की गंध भी समाई हुई थी। शरीर के क्लांत होने पर भी मन गहरी विश्रांति मे डूब चुका था। कब सो गए? ऐसी नींद उन्हे बरसों से नहीं आई थी। 
दीगर बाते महत्वहीन हैं। देर रात तक लड़कों ने, जहां वे मछलियों की पैकिंग के लिए स्टील के क्रेट्स लेते, तमाम संपर्कों के माध्यम से, स्टील कम्पनी में कार्यरत उनके दामाद का पता मालूम कर लिया था। अगले दिन देर से जागने के बाद वे चलने के लिए तैयार हुए।  आटो-रिक्शा में उनके दोनो ओर दो युवक, सहारा देने के लिए, बैठ गए थे। बादल घिर आए थे। बूंदे गिरीं थीं। सूखती मछलियों, युवकों के बदन से बहते पसीने ओर न जाने कब से न बदले गए कपड़ों के साथ साथ जमीन पर मौसम की पहली बारिस से उठी सोंधी महक से मिल कर सृजित एक नई मनोरम गंध ने उन्हे सम्मोहित कर लिया था। आटो के बाहर उनकी मेजबान युवती के उज्ज्वल दांतों की बिजली सी कौंधी थी। उन्हे आष्चर्य हुआ, कामाख्या में देवी की मूर्ति के रंग बदलने की सुनी गई किवदंती की भांति, युवती की आंखों में कल के कौतूहल, फिर वात्सल्य के बाद इस समय विदाई के विषाद के भाव उपजे थे। उन्हे कुछ धुंधला सा दिखा। गला भी कुछ भर सा आया था, रात में ठंडक भी तो थी। उन्होने चश्मा उतार कर पोंछा, अभी पिछले महीने तो  नम्बर बदला है। शायद उम्र का असर होगा। युवती की आंखों में, आकाश के बादलों की तरलता उतर आई, उन्हे महसूस हुई थी। वे गणित के मेधावी छात्र रहे थे, परंतु यह समीकरण सुलझाना उनके लिए कठिन था। उनके मन में कौंधा था , इस एक पल को संजोने के लिए क्या पूरे जीवन का मूल्य भी कम नहीं है?
प्रताप दीक्षित
प्रताप दीक्षित
दो कहानी संग्रह (‘विवस्त्र एवं अन्य कहानियां‘ तथा ‘‘पिछली सदी की अंतिम प्रेमकथा’) प्रकाशित। हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, कथादेश, वर्तमान साहित्य, पाखी, संचेतना, लमही, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमार उजाला, अक्षरा, शुक्रवार, जनसत्ता, हिन्दुस्तान, नवभारत, पंजाबकेसरी जनसंदेश टाइम्स आदि में 150 से अधिक कहानियां, समीक्षाएँ, लघुकथाएं, आलेख, व्यंग्य प्रकाशित। संपर्क - [email protected]
RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest