वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का उपन्यास ‘कौन देस को वासी : वेणु की डायरी’ जो कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, काफी चर्चा में है। इसी उपन्यास का यह एक अंश हम अपने पाठकों के लिए यहाँ साझा कर रहे हैं। यह अंश पढ़िए और यदि पूरी किताब पढ़ना चाहें तो अमेज़न से मंगा सकते हैं।

उदास मैं भी हूं…
लौटता हुआ उदास मैं!…
विशाखा दीदी और वृंदा के पास से लौटने की उदासी – एक वही तो दीदी थी मेरी। मुझे पीठ पर घुड़ैयॉं लाद कर मेरी ‘घुड़ चढ़ी‘ कराने वाली विशाखा दीदी। चाचा, मामा, बड़े ताऊ जी, सब चिढ़ाते लेकिन उसे जरा चिढ़ नहीं होती। हमेशा अपने लाडले छुटंके भाई को गोदी में लादे, पास-पड़ोस में उसकी नुमाइश करती घूमती – सखी-सहेलियों से कहती -देखो, कैसा गोरा चिट्टा है, हम बहनों सा सांवला नहीं… थोड़ा बड़ा हुआ तो – मीनू! तुम्हारे भाई की क्या पोजीशन आई क्लास में? हमारा वेणु न फिर फर्स्ट आया – सब हंसते कि खुद तो अंग्रेजी, गणित दोनों में रपट गई… (वह तो गनीमत हुई कि अंग्रेजी में पांच और गणित में तीन ही नंबर कम हैं तो एक में ग्रेस मार्क मिल गए – एक का रि-इग्जाम हो जायेगा तो क्लास, चढ़ जाएगी) लेकिन उस सब पर सोग मनाने या झेंपने की जगह भाई के रिजल्ट की दुंदुभी बजाती फिर रही है।
रक्षाबंधन पर मां के साथ ‘मातादीन का कटरा‘ जाती और बाजार की सबसे सुनहली सलमें  सितारे जड़ी राखी खरीदवा कर लौटती। मां जब तक वृंदा-वसु की ठिन-ठिन से निपटती,  वह मुझे बड़े चाव से नहला, धुला तौलिये से मेरे बालों का पानी सुखा, मां के निकाले नये कपड़े पहना पाटे पे ला बिठाती… तब तक मां भी वृंदा, वसु को गोंटे, झालर वाली फ्रॉकें पहना कर आ जातीं… दीदी की आंखों में लाड़ भर गुमान होता, जैसे सब उन्हीं का किया धरा है।
बहनों को छोटी-छोटी राखियां वह इस तरह देती जैसे अपनी एक अकेले की खुशी में उन्हें भी शामिल करने का अहसान कर रही है। मां सब समझतीं, मुस्कुरा कर रह जातीं।
दीदी हमेशा साफ-सुथरी सलीके से रहती, चटर-पटर बोलती और मां के कामों में छोटी बहनों को संभालने से लेकर गैस पर रखी सब्जी चलाने तक में मदद करती। पर मुझ पर उसके एकाधिकार का दावा जग जाहिर था। बाकी के बचे समय में उधम भी खूब मचाती। जी भर कर नाचती गाती… नाते-रिश्ते, पास-पड़ोस, किसी के भी शादी ब्याह में, लोगों ने उकसाया नहीं कि बेझिझक घुंघरू बांध कर खड़ी हो जाती। बड़ी होने पर भी, किसी भी उत्सव में रौनक लगाने के लिए विशाखा की उपस्थिति अनिवार्य थी। जरा देर हुई नहीं कि लड़कियां बुलाने पहुंच जातीं।
यह… उसी दीदी के घर से दूर होते जाने की उदासी है… नहीं, उदासी के सबब और गहरे हैं शायद दीदी के घर के दरवाजों की पानी खाई दरारों… और उन्हें छुपा पाने में असमर्थ गाढ़ा कत्थई पेंट।
शायद गलियारे के अंदर घुसते ही बगलवाली कोठरी से आती अमृताजंन, बाम या मालिश के तेल वाली गंध और उसके साथ एक सार चलती दीदी की सास की अनवरत बुदबुदाती, कराहती फुंफुलाती इसमें से कुछ भी या सबकी कुछ मिली जुली आवाजें…
मेरे आने की आहट के साथ ही बाथरूम से निकल कर तेजी से सलवार-कुर्त्ते और गीले बालों में कोठरी की तरफ जाती, दीदी की, छोटी से बड़ी हो गयी ननद, पूजा… या शायद रसोंई से पतली सिंथेटिक की साड़ी में हाथ पोंछते-पोंछते मेरे सामने आकर खड़ी हो गई विशाखा दीदी ही…
अरे वेणुऽऽऽऽ! पल भर को सकुचाई, पलभर की विह्वलता – देबू! अरे देबू!…. देख मामा आया है- वेणु मामा…
दीदी शायद फिर से प्रिगनेंट थीं। थकान से पस्त भी। मेरे आने की तैयारी में मेहनत तो पड़ी ही होगी। डेढ़ दिन दीदी के घर में रहा लेकिन वह पास बैठने, बात करने से ज्यादा रसोई में भिड़ी रही। तरह-तरह के खाने, नाश्ते बनाती रही… मेरे प्रेम के मारे या खातिरदारी के नाम पर, नहीं जानता… पास बैठी भी तो बातों के नाम पर –
– ‘मैंने सोचा था भाभी जरूर आयेगी… ससुराल में भाई-भाभी के आने से मेरा भी मान बढ़ता… कि देखो मेरे भाई-भाभी मुझे कितना मानते है… यह तो गैरों वाली बात हुई न… एक ही तो भाई ठहरा तू। … मेधा फोन भी नहीं करती… यहां इंडिया आने के बाद तो कम से कम कर ही सकती थी… तू चला जाएगा तो ये लोग मुझे ताने देने से बाज नहीं आयेंगे… अम्मा जी छोड़ने वाली नहीं… बीमारी ने भले कमजोर कर दिया है, जबान की तेजी वैसी… स्वभाव नहीं बदलता कभी किसी का…
अपराधी सा सुनता रहा।
देवेन्द्र जीजा जी, मेरे आने का पता होने पर भी काफी देर से आये। ‘जरूरी‘ काम लग आया था उन्हें। (जैसे जरूरी काम, व्यस्तताएं सिर्फ तुम बड़े आदमियों के ही नहीं होती… हमारी भी व्यस्तता है…) उसके बाद जूते निकाल कर हवाई चप्पलें पहनते हुए – और सुनाओं साले साहब… वेलकम… बहुत इंतजार कर वाया भाई। आप तो एकदम अमरीका वाले ही हो गए। – भाभी जी से तो मिलवाया ही नहीं हमें….
मैं मुस्कुराता सुनता रहा। जानता था, किसी प्रश्न को किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी।
नन्हा दिवांग अवश्य मेरे आगे पीछे घूमता रहा। शायद उसे मालूम था, मैंने साथ लाये सामानों का पैकेट उसे थमाया तो दोनों हाथों में लिये फौरन अंदर भागा – तुरत फुरत जल्दी से जल्दी सबकुछ खोल कर देख लेने की उतावली। सचमुच दो मिनट बाद ही उसके लिये आई रिमोट से चलने वाली कार लेकर हाजिर – पहले आप चला कर दिखाइएं – हाथ में पकड़ बटन दबते ही कार सर्र-सर्र आगे पीछे दायें बायें घूमती मुड़ती, रास्ता बनाती चलने लगी तो पूरा घर निहाल… दिवांग को अपने हाथों में पकड़ा रिमोट कोई जादुई करिश्मा लग रहा था – ‘मामा जी! हां तो इस तरह के और भी बहुत और खिलौने मिलते होंगे न! आप अगली बार फिर कब-‘
‘अरे चुप्प… पहले मन लगा कर पढ़ाई करो पीछे रिमोट घुमाना… बताऊं मामा को तुम्हारा छमाही वाला रिजल्ट?‘ जीजा जी घुड़के थे… दिवांग रिमोट वहीं दीवान पर फेंक, रुआंसा कमरे से निकल गया-
जीजा जी ने दीदी को लक्ष्य कर कहा -‘तुमने इसे जरूरत से ज्यादा शह दे रखी है- मिजाज तो देखो, किस तरह झल्लाता चला गया… अब मुझे ही लगाम करनी पड़ेगी…
बैठक में सारे लोग मुझे फेरकर दीवान, कुर्सियों और मूढ़ों पर बैठे थे। जैसे मैं कोई अजूबा या आयोजन होऊं। बीचो-बीच भेजापोड़ा डली सेंटर टेबुल ऐडजस्ट की जा रही थी- चुन्नी संभालती पूजा रसगुल्ले, समोसे, नमकीन की प्लेटें ला ला कर सजा रही थी। बच्चे सकुचा कर लालायित दृष्टि से उन्हें देखते हुए पीछे खिसक रहे थे। मैंने एकाध को रोकना चाहा लेकिन सामने रखे समोसों और रसगुल्लों की संख्या देखकर रूक गया।
खाने नाश्ते के दौरान सबसे बड़ी समस्या मेरे पानी न भी पीने की थी। हमारी ग्लासों में डाला पानी सीधा बोरबेल का था। गला सूखने लगा तो गहरे संकोच से कहा दीदी! मैं जरा एक बोतल मिनरल वाटर लेकर आता हूं, जगह-जगह का पानी पीते-पीते गला और पेट दोनों….
– ‘अरे तो तुम क्यों जाओगे… दिवांग लाये देता है न… कौन बड़ी महंगी चीज है… अपनी भूल पर पछताती उसने फौरन दिवांग को बाहर दौड़ा दिया। महंगाई जैसे कोई फीता हो इंचटेप वाला – जब चाहा, जिंदगी का जो सा भी हिस्सा – नाप दिया। जैसे खाने पीने, पहनने ओढ़ने या फिर घूमने फिरने की, बस दो ही किस्में हीं दुनिया में, सस्ती और महंगी।‘
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खाने के बाद दीदी मेरे पास आकर बैठी थी… ‘कैसा है वेणु’-
सोचा था दीदी यहीं रूक जाएगी पर उन्होंने वाक्य आगे ले जाकर पूरा किया-
– वहां अमेरिका में….
जवाब में मेरी हंसी में भी शायद ढेर सारे फीकेपन से डाइल्यूट होती चली गयी- किसका बताऊं दीदी?
अपना या अमेरिका?…
– वहां तो बड़ा अच्छा होगा न, किसी चीज की कमी, तंगहाली नहीं- न कुटुंब परिवार की खिचखिच। यहां रहने वालों की तरह।… तुझे मेधा को लाना चाहिए था। …थोड़ी बहुत तकलीफ सहने की आदत होनी चाहिए आदमी को। चल, तू वहां खुश है, हमारी सबसे बड़ी खुशी यही….
हां, तू पापा जी, अम्माजी और पूजा के लिए भी साड़ी, शर्ट या पंजाबी सूट ही लाया होता तो ठीक रहता… असल में अमेरिका जाने और शादी होने के बाद पहली बार ही तो आया है तू…
मेरा गला खुश्क होने लगा- फिर भी कोशिश करके कहा था- वहां से आते समय ‘वेट’ का बहुत प्रॉब्लम होता है न…. तो अपने इस्तेमाल की चीजें भी छोड़नी पड़ जाती हैं- फिर साड़ी, पंजाबी सूट वगैरह वहां मिलते भी नहीं… और मां ने तो अम्मा जी के लिए साड़ी दी है न!…
– मां भी संकोच में पड़ी होंगी… क्या कहतीं तुझसे… यह सब तो मेधा को सोचना था। अम्मा जी ने तो मेधा को देने के लिए साड़ी भी मंगवा रखी है लेकिन वह आई ही नहीं।
– मेरा खीझ कर कहने को मन हो रहा था- मैं तो आया हूं न! मुझसे तो बातें करो दीदी… लेकिन कहा सिर्फ इतना – यहां तुम लोगों को परेशानी होती मेधा के आने से… मेरी बात और है इसी से मना कर दिया-
– लो उसके आने से क्या परेशानी भला। तूने बेकार में संकोच किया- जैसे सब खाते पीते, वैसे ही वह भी। यही एक फोल्डिंग कॉट और लगा देते बस। और मैं सोच रहा था, मेधा ने हठपूर्वक मना कर मेरे ऊपर कितना उपकार किया। उस तंग बैठक में लोहे की फोल्डिंग कॉट पर मेधा के सोने और पूरा आंगन पार कर टॉयलेट जाने की कल्पना से ही मैं त्रस्त हो उठा था।
दीदी के नीति वाक्य चालू थे – आने जाने से प्यार बढ़ता है नज़दीकी बढ़ती हैं… और मैं सोच रहा था, दूर रहकर मैं दीदी के ज्यादा करीब था या पास आकर!
रात में बैठक की दीवान पर चादर बिछा दी गई। तकिये पर रंगीन गिलाफ भी। हल्की ठंड की शुरूआत। मुझे दिए गए कंबल में एक मुसमुसी गंध सी बसी है। बार-बार नाक से हटा ले रहा हूं और अंदाजने की कोशिश कर रहा हूं कि रात में बाथरूम जाना पड़े तो रास्ता सीधा है न- सामने खूंटी पर अपनी जैकेट टांग दी है जिसे पहन कर यहां आया था। अभी थोड़ी देर पहले मेरे कंधों के बहाने देवेंद्र जीजा जी ने इसे छुआ था फिर कहा था- बड़ी चिकनी, मुलायम जैकेट है साले साहब- दूर से ही अमरीका की शानमार रही है। काफी महंगी मिली होगी। कितने की वहां…
सुबह उठा। ब्रशकर मुंह धोया। उन लोगों के कहने पर भी मुझे, आंगन पार के बाथरूम तक तौलिया लपेट कर जाना अजीब लगा। जताया यही कि तबियत थकान से कुछ भारी है।
डेढ़ दिन बीतते न बीतते मैं ऊब और थकान से निढाल हो आया। गतिहीन शिथिल सा घर। एक दूसरे को ढोती जिंदगियां। बातों के छोर घूम फिर कर ग्वाले द्वारा दूध में मिलाया जाता और ज्यादा पानी, (वो भी पता नहीं कैसा, कहां का…) दिवांग की बुरी संगत, मां की बीमारी के प्रति डॉक्टर का लापरवाह रवैया और पिता का बढ़ता चिड़चिड़ापन… जैसे जिंदगी शिकायतों का कोई पुलिंदा हो जिसे उठाकर सब चलते फिरते ढोने के लिए अभिशप्त हों।
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इस घर के साथ जुड़ी मेरी स्मृतियों की पहली खेप… शादी के बाद दीदी की विदाई के साथ मैं भी भेजा गया था… यानी दुल्हन का छोटा भाई। बमुश्किल दस ग्यारह का रहा होऊंगा। झेंपू, संकोची, लजीला किशोर और इधर विवाह का रंगा पुता
(मुझे याद आया, बहुत पहले गांव वाले मिश्रा जी ने मां के कहने पर एक लोकगीत सुनाया था – यह दुःख बांधो भइया गरूई गठरिया… बहन भाई से कह रही है… मेरे दुखों की गठरी खोलना मत मेरे भाई।…. बंधी ही रहने देना-
शुभ-सगुनों से भरा पूरा घर। दो दिन पहले गड़े मंडप, अधसूखी फूल मालाओं की लड़ें… यहां वहां लगे नंदनवार सुतली से बांधी गई पतंगी कागजों की झांड़ियां… ओसारे में बिछी दरियां, जाजम, एक तरफ लुढ़के ही सही, ढोलक मजीरे… बिछी चादरों, गाव तकियों पर हंसी ठ्ठा करते लोग।… उन्हीं के बीच से मेहंदी महावर वाले पैरों से छम छम करती यहां से वहां ले जायी जाती दीदी।… जब कभी मौका मिलता अकेले में मेरे पास होते ही फुसफुसा कर पूछती तूने खाया कुछ… भूख तो नहीं लगी… लोग मुस्कुराते, मैं शरमा कर भाग लेता। वहां हर कोई मुझे हाथों हाथ ले रहा था… लहरियेदार चुनरी में रीति-नीति निपटाती उनकी सास और गुमान से भरे विवाहित दूल्हे के रोल में, बात-बात में मुझे छेड़ते और दीदी की ओर लालायित आंखों से चोरी छुपे देखते रहने वाले देवेन्द्र जीजा जी – जिसे देखो बहू के छोटे भाई की बलैया ले रहा है। विदा होते मेहमान ठहर कर मेरी मुट्ठी में भी दस पांच के नोट पकड़ाते जाते।
दीदी की मुंह दिखाई के लिये आई औरतें कभी भी ढोल मंजीरे खींच कर बैठ जातीं। बीच में घूंघट काढे़ विशाखा दीदी बैठी होती। अगल-बगल ढोलकी की थाप के साथ एक से एक मजेदार गाने। कई-कई मनचली लड़कियां लोगों के इसरार करने पर नाचने के लिये उठ खड़ी होतीं। अक्सर नृत्य करती लड़कियां को देख मुझे छोटी विशाखा दीदी याद आ जातीं।
पिछवाड़े की बगीची में खूब सारे पके-पके जामुन गिरे होते। मैं और दूसरे मेहमान बच्चे बीन बीन कर इकट्ठे करते। अम्मा जी के कहने पर फालसे तोड़ कर लाते… वे उन्हें मसल कर बैगनी रंग का खट्मीठा शर्बत बनवाती।
इतनी रंगबिरंगी गतिविधियों वाली स्मृतियों से भरापूरा वह घर, अब कुछ इतना सुस्त निकम्मा सा जैसे समय उसे बेगैरती से ढोने के लिए अभिशप्त हो। – कहीं यही तो मेरी उदासी की वजह नहीं?… शायद सच यह है कि मैं उदासी के असली कारण छुपा, मन गढ़ंत बहाने तलाश रहा हूं…
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बैठक से निकलते हुए मैंने खूंटी पर टंगी अपनी जैकेट उतारी और तह लगा कर जीजा जी को थमा दी- मेरी ज़िद समझिए, रख लीजिए। नई ही है, सिर्फ एक-दो बार की पहनी- ऊपर से नाना करते जीजा जी का चेहरा उत्फुल्त था। आते समय, मैंने दीदी के पैर छुए तो मुझे खींचकर बहुत रोई। खुद मुझे न जाने क्या हो गया। पैर वहीं जमे… रोती हुई दीदी को छोड़ ही नहीं पा रहे थे। एक क्षण पहले और एक क्षण बाद के मुझमें कितना अंतर था। दिवांग और जीजा जी, साथ-साथ चौराहे तक पहुंचाने आये तो सामने केमिस्ट की दुकान देख जल्दी से एक हॉर्लिक्स, एक कॉम्प्लॉन खरीद कर चुनमुन को पकड़ा दिया। पकड़ा कर आधा, हल्का महसूस किया।
कुल पन्द्रह मिनट बाद, रिक्शे में स्टेशन जाते हुए लगा, बरसों बाद खुली हवा में सांस ले रहा हूं। दीदी को याद कर आंखें दुबारा भर आईं… तत्काल एक विद्रूप भी उपजा- खुलेपन में स्नेह-प्यार महसूस करने की ज्यादा गुंजाइश होती है।… घुटन में तो आदमी अपने से बाहर निकल ही नहीं पाता। अब लग रहा है, एक पछतावा सा… जिसे मैं शिकायतों का पुलिंदा समझ रहा था, ऊब रहा था वे दीदी के मन का वह सारा दुःख था जो वे मुझसे ही शेयर कर सकतीं थी। यही तो सबसे बड़ा लाभ है, अपनों का… लोग रोने के लिये कंधे इसीलिए तो ढूढ़ते हैं। अपनी सारी शिकायतें, गुस्सा और उलाहना दीदी मुझसे नहीतो किससे कहतीं…
अब मैं खुद उस ऊब से बाहर था और तटस्थ भाव से एक दृश्य की तरह देख रहा था – अधखिचड़ी बालों के बीचो बीच, लंबी सिंदूरी मांग और अठन्नी भर की लाल सुर्ख बिंदी लगाए अम्मा जी… जूते की धूल ठोंक कर हवाई चप्पलें पहनते देवेन्द्र जीजा जी – खूंटी से लुंगी उतारते उनके पिता और महंगे ब्रांडों की सस्ती नकल वाली जीन्स, शर्ट वाला दिवांग और रोती हुई — धीरे धीरे दरवाजे की ओट होती गर्भवती दीदी!….
– सूर्यबाला
मो. 9930968670

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