संस्मरण :
सक्रियता एवं उर्जा से भरपूर इन्सान – देवेश ठाकुर
– डॉ. सतीश पाण्डेय
एक संवेदनशील रचनाकार का होना अपने समय और समाज को जानने-समझने और उसमें सजग रचनात्मक हस्तक्षेप करने के निरंतर प्रयत्न की संभावना का होना है। इस संभावना का बने रहना तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब उस रचनाकार की दृष्टि प्रगतिशील एवं मौलिक हो तथा उसके चिंतन और व्यवहार में कहीं विरोधाभास न हो। वह जैसा सोचता हो, वैसा ही आचरण भी करता हो। इसीलिए देवेश ठाकुर जैसे रचनाकार का 10 जून 2024 को चले जाना मुझ जैसे कितने ही लोगों के मन में ऐसी संभावनाओं की रिक्तता भर गया।
लगभग चार दशकों से उनके साथ गहरे जुड़ाव के कारण मेरे लिए देवेशजी के व्यक्तित्व पर कुछ लिखना इसलिए कठिन है क्योंकि ढेर सारी घटनाएँ यादों की पूँजी में भरी पड़ी हैं। क्या छोड़ें और क्या लिखें। उनसे पहला परिचय एम.ए. करने के दिनों में हुआ था। ढीली शर्ट और पैंट पहने हल्की-सी दाढ़ी और बेपरवाही के साथ छितराए हुए हुए केश, थोड़े झुके हुए कंधे मानो दुनिया की जिम्मेदारियाँ उठाए हों, एक नफीस लेखकीय अंदाज वाले एक सुदर्शन व्यक्ति। हिन्दी प्राध्यापकों की भीड़ में उनका एक अलग व्यक्तित्व लगा था। फिर शोध कार्य के दौरान एक गंभीर, अनुशासनप्रिय, अध्ययनशील और वस्तुपरक दृष्टि से साहित्य-समीक्षा में निष्णात, निडर, स्पष्टवादी, अक्खड़ किन्तु उतना ही स्नेह करने वाले देवेश ठाकुर से परिचय हुआ जो हर बार मिलने पर नया कुछ पढ़ने-लिखने की प्रेरणा देने वाले लगे। मित्रों के गहरे मित्र किन्तु विरोधियों को दोटूक और खरी-खरी सुनाने वाले। वे कहा करते हैं कि जीवन में ‘ना’ कहने आना चाहिए। ‘ना’ कह पाना दृष्टिसंपन्नता, आत्मविश्वास, स्पष्टवादिता और प्रतिरोध-क्षमता का परिचायक है। देवेशजी का आरंभिक जीवन तमाम संघर्षों और प्रतिरोधों के बीच ही गुजरा लेकिन यही संघर्ष उनकी रचनाशीलता के लिए ऊर्जा का कार्य करता रहा।
देवेश ठाकुर के व्यक्तित्व से जो लोग परिचित रहे हैं, वे यह जानते हैं कि देवेश जी के अंतर में जो था, वही उनके लेखन और कथन में भी व्यक्त हुआ है। इस मामले में वे एक्सट्रीमिस्ट थे। इसीलिए उनके साथ लगभग 40 वर्षों के अपने जुड़ाव के दौरान मैंने देखा कि कई घनिष्ठ मित्र और आत्मीयजन प्रत्यक्ष व्यवहार में जो मधुसिक्त शालीन वाणी की व्यवहार कुशलता दर्शाते लेकिन मन में कटुता रखते, ऐसे लोगों से उनके संबंध अधिक दिनों तक नहीं चले। उनका यह दो-टूक व्यवहार कई लोगों को उनकी अक्खड़ता प्रतीत होता लेकिन यह उनकी व्यावहारिक पारदर्शिता और सिद्धांतप्रियता कही जा सकती है। इसके लिए उन्हें बहुत कुछ सहना और खोना भी पड़ा। वस्तुतः वे इतने सीधे, सरल, निश्छल और भावुक थे, जिसे अंग्रेजी में ‘सेंटीमेंटल’ अथवा ‘टची’ भी कहा जा सकता है कि उनके हृदय पर किसी बात की प्रतिक्रिया बहुत ही तीव्र होती थी। इसीलिए वे थोड़े से स्नेह और थोड़ी सी सदाशयता पर बेमोल बिक जाते या अतिशय उदार हो जाते और किंचित कुटिलता या कटुता पर विफर जाते।
देवेश जी लेखक बनने में अपने परिवेश का हाथ मानते थे। एम. ए. के दौरान उन्हें लिखने-पढ़ने वाले साथियों का साथ मिला और बाद के वर्षों में वे आचार्य नंददुलारे वाजपेई जैसे विद्वानों के संपर्क में आए। साथ ही, शैलेश मटियानी जैसे लेखकों से मित्रता हुई जो होटल की प्लेटें साफ करते हुए भी अपनी रचनाधर्मिता को प्रशस्त करते रहे। देवेश जी बहुआयामी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उन्होंने समीक्षा, शोध तथा रचनात्मक विधाओं में, खास तौर पर उपन्यास-लेखन में विशिष्ट स्वीकृति और ख्याति पाई। यद्यपि आरंभ में उन्होंने भी कविताएँ लिखीं लेकिन कालांतर में समीक्षा और शोध-ग्रंथों को ही गंभीरता से लिया। ‘नयी कविता के सात अध्याय’, ‘नदी के द्वीप की रचना प्रक्रिया’, ‘साहित्य की सामाजिक भूमिका’, ‘हिन्दी कहानी का विकास’, ‘साहित्य के मूल्य’, मैला आँचल की रचना प्रक्रिया’ जैसी रचनाओं में व्यक्त वस्तुपरक और प्रखर समीक्षा-दृष्टि के कारण ही आलोचना के क्षेत्र में उनकी एक विशिष्ट पहचान बनी। साथ ही, ‘प्रसाद के नारी पात्र’ और ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य की मानवतावादी भूमिकाएँ’ जैसे वृहद् शोध-ग्रंथों ने शोध की भी नई दिशा निर्मित की है।
सेवा-निवृत्ति के बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से स्वीकृत महत्वाकांक्षी परियोजना ‘हिन्दी साहित्य तथा साहित्येतिहास : अंतरानुशासनों का अनुशीलन’ पूरा किया, जो भारतीय विद्याभवन द्वारा प्रकाशित है। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की कड़ी में यह पुस्तक इस लिए विशिष्ट है क्योंकि इसमें हिन्दी साहित्य के हर काल का परिवेश दिया गया है और ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के आधार पर हर काल-खंड के साहित्य का मूल्यांकन भी किया गया है। साथ ही प्रमुख साहित्येतिहास ग्रन्थों में विभिन्न अनुशासनों के आधार किए गए मूल्यांकन का तुलनात्मक विवेचन भी किया गया है, जो अन्य किसी भी साहित्येतिहास में नहीं मिलता है। इनका एक और महत्वपूर्ण कार्य हिन्दी कहानी का समुचित स्वरूप प्रस्तुत करते हुए श्रेष्ठ हिन्दी कहानियों के संकलन के रूप में दो खंडों में ‘कथा-क्रम’ तथा ‘कथा-वर्ष’ के अनेक खंडों का विस्तृत भूमिकाओं के साथ कुशल संपादन रहा है। इन्होंने आज़ादी के बाद की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों का चिंतनपरक लेखा-जोखा ‘आजादी की आधी सदी और आम आदमी’ को तीन खंडों में प्रस्तुत किया है। बुद्ध की जीवनी ‘बुद्ध-गाथा’ तथा तीन खंडों में प्रकाशित आत्मकथा ‘मैं यों जिया’ इन्हें एक वस्तुपरक जीवनीकार-आत्मकथाकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है। ‘विचार’ और ‘समीचीन’ के संपादक के रूप में साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में इनके अवदान को नकारा नहीं जा सकता। अपनी साहित्यिक यात्रा के आरंभिक वर्षों में इन्होंने बाल साहित्य-लेखन भी किया था। सात खंडों में प्रकाशित रचनावली के पहले संस्कारण के बाद इस सम्यक रचना-कर्म को पुनः सोलह खंडों में दूसरे संस्करण में प्रकाशित होना उनकी लेखनी की निरंतरता का ही प्रमाण है।
यह उनकी रचनात्मक ऊर्जा, परिश्रम और लगन का ही प्रतिफल है कि रचनावली के प्रकाशन के बाद भी उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी इच्छा थी कि लिखने की मेज़ पर ही उनकी अंतिम साँस निकले और वे अंत तक रचनारत रहे। वर्ष 2023 में उनके दो उपन्यास “ऐसा भी होता है’ और ‘लड़ाई’ प्रकाशित हुए थे। दो उपन्यास ‘और सुबह हो गयी’ तथा ‘अपने-अपने अंतर्द्वंद्व’ प्रकाशनाधीन हैं। एक और उपन्यास ‘सम्बन्धों की तुरपाई’ टाइप होकर तथा एक उपन्यास अधूरा पड़ा है। सचमुच वे अंतिम साँस तक लिखते रहे।
निरंतर बनी रहने वाली सक्रियता उन्हें ऊष्मा एवं जिजीविषा से भर देती थी। वस्तुतः वे एक गंभीर, जुझारू एवं निर्भीक रचनाकर्मी थे। सच के समर्थन और प्रतिबद्धता के कारण उन्हें व्यक्तिगत जीवन एवं साहित्यिक जगत में निरंतर संघर्षरत रहना पड़ा। आम आदमी के सुख-दुख एवं संघर्ष को उन्होंने अपने साहित्य में प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया। उनका समूचा साहित्य इसी आम आदमी के जीवन को सुंदर एवं सुखमय बनाने का रचनात्मक प्रयास है।
देवेश ठाकुर का संपूर्ण लेखन अपने समय के यथार्थ का पुनर्सृजन है। उन्होंने एक संवेदनशील मानव-मन को विचलित करने वाली आसपास की घटनाओं और असंगत चरित्रों को अपनी रचनाओं में पुनर्सृजित किया है। भ्रमभंग की कथा उनके पारिवारिक अनुभवों से उपजी पीड़ा की अभिव्यक्ति रही है। इसे उनकी आत्मकथा ‘मैं यूँ जिया’ के प्रसंगों के बरक्स देखा जा सकता है। मुझे याद है जब उनका प्रयोगधर्मी उपन्यास ‘काँचघर’ आया था तो मुंबई के साहित्यिक हल्के में ये कयास लगाए जाते थे कि होटल के किस टेबल की कथा किस व्यक्ति से जुड़ी है। इसी तरह मुंबई विश्वविद्यालय और यहाँ के शैक्षिक-साहित्यिक जगत की विसंगतियों पर देवेश जी ने जब ‘गुरुकुल’ और ‘शिखर पुरुष’ लिखा तो इन उपन्यासों के कथा-सूत्र स्थानीय शिक्षा संस्थानों से जुड़े कई चरित्रों में सीधे-सीधे पहचाने जाने लगे थे। ‘गुरुकुल’ के प्रकाशन के बाद इस पर एक चर्चा-संगोष्ठी आयोजित की गई जिनके आलेख ‘गुरुकुल: मूल्यांकन प्रति मूल्यांकन’ नाम से प्रकाशित भी हुए। यह चर्चा-गोष्ठी कई मामले में विस्फोटक भी रही क्योंकि कई चित्रों के छल-छद्म और षड्यंत्र सीधे-सीधे उजागर हो गए थे। इसके बाद देवेश जी के पास कई लोगों के धमकी भरे फोन भी आए और मानहानि के मुकदमे करने की धमकी भी दी गई। इस प्रसंग में धमकी देने वालों से देवेश जी का एक ही कहना था कि ‘सार्वजनिक रूप से वे स्वीकार कर लें कि उनका चरित्र उपन्यास के अमुक भ्रष्ट और अनैतिक चरित्र जैसा ही है और यदि नहीं है तो कैसी मानहानि और कैसा मुकदमा।’ अंततः सबके मुँह पर ताले लग गए।
देवेश जी मित्रों के लिए मित्र थे और जिनके मित्र नहीं थे, उनके कुछ नहीं थे। बीच की कोई स्थिति नहीं थी। इस संदर्भ में वे कहा करते थे कि ‘मैं अपनी तरफ से पहल नहीं करता। जब तक कोई अपना घटियापन साबित न कर दें, उसे सहता रहता हूँ लेकिन एक बार निश्चय कर लेने के बाद फिर कोई समझौता नहीं करता।’ जिन लोगों की उनसे नहीं बनी, वे कई बार मुझसे पूछते कि तुम्हारी कैसे निभती है? मैं इस पर जब भी सोचता हूँ तो यही पाता हूँ कि शायद हम दोनों ने कभी स्वार्थ को बीच में नहीं आने दिया। वे न तो स्वयं कुटिलतापूर्ण व्यवहार करते थे और न ही अपने मित्रों से ऐसी अपेक्षा रखते थे। इसीलिए जिससे स्नेह रखते थे, उसके लिए बेमोल बिक जाने को तैयार हो जाते थे। ‘समीचीन’ पत्रिका के संयुक्त संपादक के रूप में लंबे समय से मैं जुड़ा रहा। बीच में मैंने ‘सृजन संदर्भ’ नाम से एक दूसरी पत्रिका का संपादन शुरू किया तब एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा था कि ‘क्या तुम चाहते हो कि समीचीन से तुम्हारा नाम हटा दिया जाए।’ मैंने बड़ी विनम्रता से उनसे अनुरोध किया था कि ‘जैसा आप उचित समझें क्योंकि मैं उसमें कोई योगदान तो नहीं कर पा रहा हूँ।’ यह मेरे प्रति उनका स्नेह ही था कि उन्होंने न सिर्फ मेरा नाम लगातार जोड़े रखा बल्कि बाद में मुझे संपादन की जिम्मेदारी भी सौंपी।
परिवार को लेकर देवेश ठाकुर की एक अलग अवधारणा थी। वे पुत्रेच्छा को सामंती प्रवृत्ति का प्रतीक मानते थे। उनका मानना था कि संतान तो संतान होती है। उसे बेटे और बेटी के रूप में विभाजित करना अपनी ही संतान के प्रति अन्याय करना है। इसी कारण इतना स्नेह करने वाला परिवार उन्हें मिला। उनके संघर्ष के दिनों में ही नहीं, उनकी साहित्य-साधना में भी उनकी पत्नी आदरणीया सुशीला ठाकुर का बड़ा योगदान था। स्वास्थ्य कारणों से अक्सर उनमें आपसी नोक-झोंक होती रहती थी और इस नोक-झोंक का विषय होता था कि तंबाकू क्यों खा लिया ? पाइप क्यों पीया ? मिठाई क्यों खा ली ? कसम खाने के बाद भी पान क्यों खाया ? या ड्रिंक्स क्यों ली ? आदि-आदि। हर बार देवेशजी के अपने तर्क (?) होते थे। जब उनके तरकश से तर्क के सारे बाण चुक जाते तो वे अवसर कह उठते कि ‘प्रण किये ही जाते हैं तोड़ने के लिए।’ उनकी कुछ बातें ऐसी थीं, जिन्हें तर्क की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता था। जैसे- वे कहते थे कि ‘वह झूठ-झूठ नहीं होता, जिससे दूसरों का नुकसान न होता हो।’ मिठाई आदि खाते समय यह कह कर सबको निरुत्तर कर देते कि ‘बचपन के अभावों का कांप्लेक्स दूर कर रहा हूँ।’ या ‘मुझे अपनी शर्तों पर जीने दो।’
वस्तुतः उन्होंने अपनी शर्तों पर ही अपना जीवन जीया। इस परिवार में स्नेह की धारा दोतरफा बह रही थी। इसीलिए पत्नी की पारकिंसन की बीमारी के समय देवेश जी की भूमिकाएँ बदल गईं। वे पत्नी की देखभाल उसी शिद्दत से करने लगे, विशेष रूप से तब, जब वे बिस्तर पर पड़ी थीं। उन दिनों के अनुभव उनके उपन्यास ‘संध्या-छाया’ तथा ‘स्मृतियों के कोलाज़’ में भरे पड़े हैं। अंततः वर्ष 2016 में पत्नी की मृत्यु के बाद देवेश जी टूट गए लेकिन इस समय उनकी दोनों बेटियाँ डॉ. आभा एवं डॉ. आरती, दामाद डॉ. संजय नागराल तथा पौत्र-पौत्री अंशुल और डॉ. निष्ठा ने उन्हें भावनात्मक रूप में संभाला और उनकी साहित्य साधना चलती रही। वे कहा करते थे कि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान है। उनकी इच्छा यह भी थी कि उनकी अंतिम साँस लिखने की मेज़ पर ही निकले। सचमुच एक तरह से उन्हें इच्छा मृत्यु ही मिली। अंतिम दिनों तक अपना अधूरा लेखन पूरा करते रहे। हॉस्पिटल में भर्ती होने पर करीब दस दिन पहले उन्होंने अपने सभी मित्रों-परिजनों को मिलने के लिए बुलाया और घोषित किया कि ‘अब मैं जा रहा हूँ।’ उसके कुछ ही दिनों बाद उनके चले जाने का समाचार आया। अपनी शर्तों पर जीने वाले देवेश जी अब हमारे बीच नहीं हैं।
वस्तुतः उन्होंने अपने आरंभिक जीवन में जिन अभावों को जीया और संघर्ष करते हुए जिस शिखर पर पहुँचे, वह हर मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए प्रेरणादायी है। उनके महत्वाकांक्षी मन की आँखों में ढेर सारे सपनों का ऐसा भंडार था जो उन्हें कभी संतुष्ट नहीं होने देता था। एक सपना पूरा होता, कि दूसरे की तैयारी शुरू कर देते थे। सिर्फ सपने तो बहुत से लोग देखते हैं लेकिन सपनों को सच करने के लिए जिस जीवट, परिश्रम, लगन, ईमानदारी और साहस की आवश्यकता होती है, वह उनमें अकूत मात्रा में थी। सपने साकार होने की यह ललक जहाँ उनमें ऊर्जा भरती थी, वहीं इनकी लेखनी को निरंतर गतिशील बनाये रखती थी। अपनी शर्तों पर जीने वाले ऐसे निश्छल, स्पष्टवादी, स्वाभिमानी, अनुशासनप्रिय, अध्ययनशील और दृष्टिसंपन्न रचनाकार का हमारे बीच से चले जाना हिन्दी साहित्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है। इस साहित्य मनीषी को मेरा शत-शत नमन।
संपादक : समीचीन
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