Saturday, July 27, 2024
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आकांक्षा यादव – तीन लघुकथाएं।

तीन लघुकथाएं – आकांक्षा यादव।

दोहरा चरित्र

प्रिया! जल्दी से तैयार हो जाओ। हम सब पुजारी जी के घर जाकर दान-पुण्य करेंगे।

दीदी! आज कुछ खास है क्या ? अचानक यह दान-पुण्य क्यों ?

तुम्हें नहीं पता!  आज अक्षय तृतीया की तिथि है। इस दिन दान करने से बड़ा पुण्य मिलता है।

यदि ऐसा है तो उसके लिए पुजारीजी की क्या जरूरत ? हम किसी निर्धन व्यक्ति को भी तो दान दे सकते हैं।

अब अपना भाषण बंद भी करो और जल्दी से तैयार हो जाओ।

तैयार होकर परिवार के सभी लोग गाड़ी में बैेठकर निकल पड़े। ट्रैफिक ज्यादा होने से जाम में फँस गये।

”….ये जाम भी अभी लगना था, लगता है कि मुहूर्त समय यहीं बीत जायेगा।” दीदी के हाव-भाव से परेशानी साफ झलक रही थी।

तभी एक बूढ़ा आदमी कॉँपते हाथों से गाड़ी का शीशा साफ करने लगा। कुछ देर तक इंतजार कर रहा था कि बदले में शायद कुछ मिलेगा।

”….उफ्फ! आजकल लोग भीख मांँगने के ये नये तरीके ईजाद करते रहते हैं। कोई न दे, तब मेहनत करना सीखेंगे।” दीदी ने कहा।

प्रिया कभी अपनी दीदी का चेहरा देखती, कभी उस व्यक्ति का और कभी पुजारीजी के बारे में सोचती। दीदी के स्वभाव के इस दोहरेपन को देख वह अवाक् थी।

 

अरमान

मॉं! मुझे नौकरी मिल गई है। सुदेश की यह बात सुनकर उसकी माँ शीला मारे खुशी के उछल पड़ी। शीला ही क्यां घर के सारे सदस्य बेहद प्रसन्न और रोमांचित थे। कोई रिश्तेदारों, पड़ोसियों और मित्रों को फोन करके अपनी खुशी शेयर करता तो साथ में मुह मीठा कराने का सिलसिला भी चलता रहा।

रात्रि के भोजन के बाद पूरा परिवार एक साथ बैठा तो सपनों की उड़ान आरंभ हो गयी। सुदेश को लेकर हर किसी की आशायें थीं, सपने थे।

बातों ही बातों में सुदेश की माँ ने कहा-’’सुदेश की शादी में मैं तो दहेज में जी-भर के पैसे लूँगी, अपने हर अरमान पूरा करूँगी। आखिर सुदेश को सरकारी नौकरी जो मिली है। इतने धूमधाम से शादी करूँगी कि सारा शहर देखेगा। सबके लिए कपड़े, गहने, घर के सामान और भी बहुत कुछ।‘‘

’’दादी ! तो क्या आप चाचू को बेचेंगी ? शादी का मतलब बेचना होता है क्या ?‘‘ तभी अपनी दादी की गोद में बैठी रुचि बोल  उठी।

बहू ने बेटी को चुप कराने का प्रयास किया पर वह तपाक से बोल उठी- ’’आप ने ही तो बताया था कि जब हम कुछ बेचते हैं तो बदले में पैसे मिलते हैं।’’

अचानक माहौल में सन्नाटा छा गया था।

 

बेटियाँ 

अपनी जवानी के दिनों में कुलवंत सिंह ने बेटों को कोई तकलीफ नहीं होने दी। उनकी हर फरमाइश पूरी की। उनके दो बेटे थे। पडोसियों और रिश्तेदारों से बहुत गर्व के साथ कहते कि जरूर पिछले जन्म में कुछ अच्छे कर्म किए थे कि ईश्वर ने उन्हें दो-दो बेटे दिए।

वह बार-बार अपने पड़ोसी राधेश्याम को सुनाते रहते, जिनके पास तीन लड़कियाँ थीं। वक्त बीतने के साथ कुलवंत सिंह के दोनों बेटे अच्छी नौकरी पाकर विदेश में सेटल हो गए, वहीं राधेश्याम ने तीनों बेटियों की शादी कर मानो गंगा नहा लिया हो।

इस बीच कुलवंत सिंह की तबियत बिगड़ी तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उनकी पत्नी अकेले अस्पताल में पड़ी रहीं, पर बुढ़ापे में कितना दौड़तीं। कुछ दिन बाद कुलवंत सिंह का हाल-चाल लेने राधेश्याम अस्पताल पहुँचे तो साथ में बेटी भी थी।

”……अरे ! आपके बेटे नहीं दिख रहे? सब ठीक-ठाक तो है न?”

”…….बेटों को संदेश तो भेजा था, पर छुट्टी न मिलने की समस्या बताकर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अकेले कितनी भाग-दौड़ करूँ?”

”……..हम हैं न आंटीजी, आप चिंता मत कीजिए। दवाओं के लाने से लेकर फल व खाना लाने तक का जिम्मा मेरा।‘‘ यह राधेश्याम की बेटी की आवाज थी।

”मुझे माफ कर देना राधेश्याम। बेटियाँ तो बेटों से भी बढ़कर हैं।”………इतना कहकर बीमार  कुलवंत सिंह फफक-फफक कर रो पड़े थे।

 

आकांक्षा यादव,

टाइप 5 ऑफिसर्स क्वार्टर नंबर-15,

संचार कॉलोनी, अलीगंज, लखनऊ-226024

ई-मेलः [email protected] 

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