देश विकसित हो रहा है,
ठीक है पर;
आपसी सद्भाव बेहद
कम हुआ है।
नफ़रतों के राजपथ पर
भीड़ कितनी,
प्रेम पगडण्डी मगर
सूनी पड़ी है।
द्वेष के वाहन सड़क पर
दौड़ते हैं,
और ममता
बैलगाड़ी सी खड़ी है।
हर महीने-दो महीने
में कहीं पर,
रक्तरंजित प्रेम का
परचम हुआ है।
भाईचारे की फ़सल
जबसे जली है,
बस्तियाँ सारी
डरी-सहमी हुई हैं।
ले सहारा अविश्वासी
धरोहर का,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ
वहमी हुई हैं।
सामने वाला लिए है
एक ख़ंजर,
हर किसी को दूर से
यह भ्रम हुआ है।
शान्ति की दुल्हन
परित्यक्ता सरीखी,
मौन धारण कर यहाँ
गुमसुम पड़ी है।
आक्रामक मानसिकता
मुक्त होकर,
भीड़ का चोला पहन
मुखरित खड़ी है।
आज फिर मारा गया
निर्दोष कोई,
फिर किसी के गाँव में
मातम हुआ है।
बृज राज किशोर ‘राहगीर’