एक डाक्टर का हौसला (कहानी)

  • प्रगति गुप्ता

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    झमाझम बारिश में देबू का रिक्शे से उतर कर, बारह साल बाद डाक्टर देवेंद्र बनकर अपने गाँव मथानियां लौटना उसके लिए बहुत आनन्दित करने वाला क्षण था। बारिश की बूंदें ,उसको बचपन से जुड़े अनगिनत स्मृतियों से रूबरू करवा रही थी।
    हालांकि  उसके लिए गाँव लौटना तो कोई बड़ी बात नहीं थी, पर गांव वालों के लिए आश्चर्य का कारण जरूर बन गया था। कौन शहर से पढ़ कर गांव वापस आता है? यही गांव वालों के बीच चर्चा का विषय बन गया था।
    खैर -गांव की जमीन पर कदम रखना, उसकी उत्सुकता बढाने जैसा भी था क्योंकि वह बारह साल बाद ,अपने मक़सद को पूरा करने गांव वापस लौट आया था।   जब इन्सान लौटने के इरादे लेकर, किसी मक़सद के लिए निकलता है, तो लौटना उबाऊ नही होता बल्कि मक़सद बहुत से अच्छे – बुरे अनुभवों से जुड़कर कभी खुशियां देता है तो कभी निराश भी करता है।यही जीवन का बहुत बड़ा सत्य है।।
    “देबू भैया सालों बाद पधारे हो, अपनी मिट्टी में, थोड़ी तकलीफ जरूर होगी, पर घर की देहरी पर पहुंचते ही सब ठीक लगेगा । ”
    ऐसा कहकर रिक्शे वाले ने अपनी थोड़ी बहुत पुरानी जान पहचान से, उसको हल्का करने की कोशिश की, तो देबू को, उसका अपनापन खूब भाया।  वैसे भी अपने गाँव, कस्बे या शहर में कुछ भी अपना – सा ,अगर महसूस हो, बहुत सुखद और सुकून भरा लगता है। एक अनकही – सी मुस्कान, व्यक्ति के होठों पर खुद -ब – खुद जगह ले लेती है।
    “हां काका अपनी जमीन तो अपनी ही होती है ना ,और घर भी तो है यहाँ मेरा। गाँव से शहर पढ़ने गया था, पर वापस आने को यहां। …तो बताओ तकलीफ क्यों होगी ? अब सच कहूं तो, मन से बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं। ”
    रिक्शे से उतर कर ,रिक्शे वाले को किराया चुका कर, धन्यवाद कहकर, मैं घर की तरफ मुड़ तो गया ,पर रास्ता  कुछ अधिक लम्बा होता गया। जाने कितनी बातें, गांव की गलियों से गुजर कर भी, वहीं की वहीं खड़ी हुई महसूस होने लगी, मानो कल की ही बात हो।

    गांव के लगभग पांच सौ घरों में करीब डेढ़ सौ बच्चे, विद्यालय के लिए जाने वाले होते थे। पूरे गांव में एक ही विद्यालय था। हम सबको पढाने को पांच – छः अध्यापक हुआ करते थे। गाँवों में विद्यालयों की हालात बहुत लचर थे। जैसे – तैसे करके आठवीं का इम्तिहान दिया। अच्छे नम्बरों में पास हुए तो पिताजी ने आगे पढ़ाने के लिए शहर भेजने का मानस बनाया। हम बेहद़ खुश हुए ,चलो पढ़कर डॉक्टर बनने का सपना पूरा होगा हमारा भी। एक दिन सवेरे – सवेरे पिताजी की पुकार सुनाई दी।
    “देबू बेटा ! तनिक हमारे पास आकर बैठो बेटा। कुछ जरूरी बात करना चाहते है तुमसे ।”
    “हां -हां पिताजी बताये आप क्या कहना चाहते हैं हमसे। ”
    “बेटा ! हम तो बहुत पढ़े लिखे नही हैं , पर पढ़ाई की कीमत बहुत है यह सच हम दिल से महसूस करते हैं । तभी तुमको पढ़ने, शहर भेज रहे हैं।”..
    ” पर एक बात कहे बेटा, तुम पढ़ने जरूर जाओ पर एक वादा, हमसे करो बेटा, वापस हमारे पास ही आओगे। यह गाँव तुम्हारा है बेटा इसको तुम्हारी बहुत जरूरत है। ”
    पिताजी की बात, हमें बुरी कहां लगी, सो वादा भी कर दिया।
    ” हां पिताजी – हम जरूर लौटगे आपके सपने को पूरा करने, गाँव से दिल से जुड़ने”।
    बस तभी से पढाई शहर में की, पर सपने में हमारा गांव मथानियां ही था, और पिताजी की इच्छा, समय के साथ मजबूती का रूप ले, हमारी भी इच्छा बन गई।
    घर की गली को जब मुड़ने लगे, तो अनायास ही ,एक घर के आगे कदम ठिठक गये। हमारी सहपाठी राधा का ही तो घर था। सोचा कुन्डी खटखटा दे या न खटखटाये इसी असमंजस में थे।  हालांकि गांवों में औपचारिकताओं का माहौल कम ही था, पर शहर से पढ़ कर लौटे थे ,सो थोड़े औपचारिक हम भी हो गये थे। असमंजस में पड़े ,सोच ही रहे थे, कि अचानक खुद ही दरवाजा खुल गया। काकी ने दरवाजा खोला तो कुछ – कुछ पहचानते हुए बोली..
    “देबू बेटा, तुम हो क्या ?”  …
    ”  हां काकी, देबू ही हूँ आज ही शहर से लौट रहे थे ,घर की तरफ जाते – जाते, सोचा ,आपका कुशल मंगल जान ले , सो रुक गये  । कैसी है आप? ”
    “बस बेटा इन दस – बारह सालों में बहुत कुछ बदल गया है ,ना बेटा। ”
    “राधा का ब्याह किया था। ब्याह के बाद समझ आया ,कम उम्र में ब्याह करना कितना गलत होता है। कच्ची उम्र में पति की मौत, मेरी बच्ची को हिला गया बेटा। …..अब अफसोस करने से, क्या होता है।मेरी ही मति मारी गई थी। मेरी बच्ची परेशान हुई सो अलग।”…
    फिर एक लम्बी साँस लेकर बोली..”उन लोगों ने, कलंकनी कहकर घर से निकाल दिया राधा को, बेटा। उसकी सारी परेशानियों की जिम्मेवार मैं ही हूँ बेटा। अब क्या होता है अफसोस करने से। ”
    मेरे पास सान्त्वना देने के अलावा, उस समय कुछ भी नही था। सो सुनकर चुपचाप चला आया।
    राधा के साथ हुए हादसे को सुन, हृदय बहुत दुःखी हुआ। राधा  कक्षा आठ तक मेरे साथ ही पढ़ती थी। बहुत मेधावी थी वो भी ,पर गाँव मे लड़कियों को कौन आगे पढने शहर भेजता है। सो कर दी होगी शादी। खैर वहां से निकल घर को चल दिया। रास्ते में पंच काका हरी नारायण जी भी मिले उनसे अगले दिन मिलने का वादा कर। आखिरकार जब घर पहुंचा तो माँ – पिताजी की तो आंखों से अश्रु धारा ही बह निकली।
    “वैसे तो बेटा मुझे विश्वास था, तू जरूर लौटगा, पर मन में कहीं डर भी था कहीं तुझे शहर की हवा न लग जाये और तू हमसे वापस न आ पाने की माफी ना मांग ले। पर माथा ऊंचा कर दिया तूने बेटा। आज तो मैं पीपली वाले मन्दिर में प्रसाद चढाऊंगा बेटा। “…
    आज पिताजी – माताजी को देख कर यह तो मुझे महसूस हो गया कि माँ बाप की खुशियाँ बच्चों के, आसपास होने से ही होती हैं। मैने उनके चरण स्पर्श कर, उन्हें आश्वस्त किया बस। गाँवों से जुड़ी एक खासियत और होती है गाँव के लोगों को, जो जंच जाये उसे स्वीकारने में समय नही लगाते । हालांकि उनको समझाने में, शुरु में समय देना होता है बस।
    मेरे पिता वंसीलाल की कुछ खेतीबाड़ी थी बाकी एक अपना पक्का मकान था। और मै पिताजी की अकेली सन्तान था।  आज के समय में ,सच सोचे तो पिताजी ने, मुझे शहर भेज कर एक बहुत बड़ा दावं खेला था और उसमें मेरे लौट आने पर उनको लगा वो विजयी हो गये। उनके चेहरे की मुस्कुराहट, मेरे लिये उनका भरोसा जीतने में ,मेरी जीत थी। माँ सीता देवी सीधी – सादी बहुत ही सरल महिला थी। सो मेरी हर खुशी में खुश रहती थी वह।
    अब पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं छोटा सा दवाखाना खोल, काम शुरु करुँ। सो मिल गया मुझे भी मेरी पसन्द का काम। क्योंकि मैं जानता था इस काम के जरिये मै गांव में, वो परिवर्तन भी ला सकता हूं जो कि जरूरी था, गांव की दशा सुधारने के लिये।।
    गांव का देबू, अब डाक्टर देवेन्द्र ने अपना दवाखाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे करके मरीजों का आना बढने लगा। डॉक्टर देवेंद्र ने दवाखाने के साथ – साथ, जो एक काम नियमित रूप से करना शुरू किया, वो था हर रोज चार – पाँच  घर जाकर उनको साफ-  सफाई के लिये जागरूक करना.. उनके साथ बैठना, खाना और इस तरह उनको अपना बना लेना।
    “देबू भैया आप कल फलाँ के यहां गये थे मेरे यहाँ कब आयेगे।” ….
    ऐसा ही हर रोज का मनुहार डाक्टर देवेन्द्र को रोज ही सुनने को मिलता। यह बात देबू को अच्छे से समझ आने लगी थी कि लोगों को प्रेम से अपना बनाना बहुत आसान होता है।
    एक दिन राधा का अचानक उसके क्लिनिक पर आना हुआ, बुखार में तप रही थी बेचारी। पर राधा को देखते ही देबू, बचपन में लौट गया।

    “राधा कितने देर में निकलेगी घर से? देर हो रही है विद्यालय को, जल्दी बाहर आ। हर रोज यही कहती है । आ तो रही हूँ।”
    “बहुत चिल्लाता है तू देबू, बाहर आ जल्दी, बाहर आ जल्दी ।”…..
    हर रोज की प्यारी -सी नोंक-झोंक हमको गुस्सा तो करती थी। पर एक-दूसरे को देखते ही गुस्सा याद भी नहीं रहता था। जिस रोज़ दोनों में से एक भी विद्यालय नहीं आता, दूसरा उसके घर पहुंच कर, अपना रूसना जता देता। गांव की सीधी सादी जिन्दगी में बहुत प्रपंच नही होते, बहुत कुछ सरल – सा ही होता है।
    जिस रोज़ शहर के लिए निकल रहा था, राधा आई थी मुझसे मिलने।
    “देबू !जा रहा है तू? …मुझे याद करेगा क्या? मुझे तो बहुत याद आयेगा तू। ”
    ” हां राधा जा रहा हूँ, पर लौटूंगा जरूर, तू राह देखेगी मेरी?”…
    इस बात का कोई जवाब तो नही दिया राधा ने बस सिर हाँ में  हिला दिया।
    गांव ऐसे ही हुआ करते है ,बेचारी को, कौन मेरी राह देखने देता, कौन उसकी मर्जी पूछता, पढ़ाई खत्म होते ही अठारह – उन्नीस में उसकी ब्याह रचा दिया। ब्याह के कुछ साल बाद ही वह विधवा भी हो गई। गांव में विधवा स्त्री की दशा तो और बुरी होती है। हजार तरह की पाबंदियां उस पर लगा दी गई। किसी भी शुभ काम में उसकी उपस्थिति अपशकुन माना जाता। विधवा होते ही राधा घर तक ही सिमट कर रह गई।
    “देबू ! कहकर राधा के वापस पुकारने पर, मेरी सुद लौटी। पर उसके मुँह से मेरा नाम पुकारना मुझे बहुत सुकून भरा लगा।
    दवाखाना खुल जाने से, पंचो और गांव वालों में डाक्टर देवेन्द्र का नाम आदर से लिया जाने लगा.. सबको धीरे-धीरे करके अपने व्यवहार से उसने अपना बना लिया। गांव के स्त्री – पुरुष बच्चे बड़े – बूढे़ सभी बीमारी के अलावा, विभिन्न सलाहें लेने उसके पास आने लगे। और लोग देबू को भगवान के बाद का दर्जा देने लगे। डाक्टर देवेन्द्र तो शायद ही कोई उसे पुकारता था। सभी देबू – देबू कर उसके पास आते। देबू को भी उनका ऐसे पुकारना अपनापन देता था।
    गाँव में मेहनत, लगन और ईमानदारी के साथ काम करते-करते डाक्टर देवेन्द्र को यह लगने लगा, अगर इरादे नेक हो तो ईश्वर रास्ते खुद बना देता है।
    एक दिन अचानक राधा के बाजार में मिलने पर देबू को कुछ नही सूझा तो राधा से पूछ बैठा।
    “राधा ! मेरे साथ काम करेगी दवाखाने में ?.. ”
    राधा भी इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी सो अचकचा कर बोली…
    ” यह अचानक क्या सूझा तुमको?…गाँव वाले और मेरे माता-पिता क्या हाँ करेगे?”
    “तुम अपनी मंशा बताओ तुम क्या चाहती हो ?”. ..अगर गांव वालों की सेवा करना चाहती हो तो मेरे साथ दवाखाने में काम करने आ जाओ। ”
    देबू का यह प्रस्ताव राधा को बहुत भाया। होशियार तो वो थी ही और अब देबू का, उसको जीवन का मकसद दिखाना बहुत भाया। सो सिर हिला कर सहमति दे दी उसने।
    राधा जाने के लिए मुड़ी ही थी कि अगला प्रश्न फिर सुनाई दिया उसे…
    ” शादी करोगी मुझसे राधा? ”
    अब तो राधा हंसना – मुस्कुराना तो भूल ही गई ,शब्द भी उसके होठों पर आकर ठहर गये। उसको ऐसे प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी। गाँवों में विधवा विवाह को मान्यता देना तो दूर की बात ,सोचना भी गलत माना जाता है।
    बोली.. “यह क्या सूझा तुमको? …सारे गाँव से लड़ोगे?”..
    उसके इसी प्रश्न में मुझे मेरा उत्तर मिल गया।
    अगले ही दिन सबसे पहले अपने माता-पिता के पैर छू कर देबू ने, माता -पिता से तो अनुमति ले ली। पर उसके और माता-पिता के मन में ,गांव वालों को लेकर, कुछ आशंकाएं थी।
    पर उनको अपने बेटे की, हर बात पर पूरा भरोसा था कि वह गलत निर्णय कभी नही लेगा, और देबू के लिये माता – पिता का विश्वास और सहमति बहुत बड़ा सम्बल था। जब माँ – बाप खम्भों के जैसे बच्चों के साथ खड़े हो जाते है तो बच्चों की भरोसे भी आसमान छूते है। यह जीवन का एक और बड़ा सत्य है जिसका अनुभव डाक्टर देवेन्द्र ने किया।
    अगले ही दिन डाक्टर देवेन्द्र ने पंचो के बीच अपनी हाजिरी लगाई।
    “देबू आज हमारे पास कैसे आया बेटा?  .. आज क्लिनिक नही खोली क्या बेटा? …मरीज तुम्हारा इन्तजार कर रहे होगें। ”
    “नही काका सारे मरीजों को देख कर आया हूँ कोई तकलीफ में हो, उसे छोड़ कर नहीं आऊंगा आप सबको भी पता है। बस कुछ निजी काम के साथ, आप सबकी सलाह चाहता था सो आना पड़ा काका। ”
    काका कुछ आपसे दवाखाने के सिलसिले में आपकी सलाह लेना चाहता था, सो सोचा आप सभी मेरे पूज्य है मुझे सही राह ही दिखायेंगे।
    “हां – हां पूछ बेटा कौन सी दिक्कत आन पड़ी ?”..
    “काका वह बात यह थी कि, दवाखाने में बहुत – सी लड़कियां और महिलाएं अपनी – अपनी समस्याओं को लेकर आती हैं।….अपनी समस्याओं को बताने में हिचकती हैं, सो सोचता हूँ, किसी पढी – लिखी महिला को मदद के लिये रख लूँ। मैं उसे काम सिखा दूंगा या कोई छोटी ट्रेनिंग करवाकर, वो मेरी मदद कर पायेगी। इससे गांव की औरतों को काफी मदद हो जायेगी। आप लोगों की क्या सलाह है?”….
    “हां – हां बेटा ! यह तो तेरा बहुत अच्छा विचार है। तेरी निगाह में, है कोई तो बोल?”
    “हां बाबा !आप लोगों के आगे उसका नाम रखने से पहले मैं आप लोगों से, उससे विवाह करने की भी अनुमति भी चाहूंगा, ताकि उसके साथ काम करने में कोई अड़चन ना आये। ”
    यह तो बहुत ही श्रेष्ठ विचार है बेटा। सभी पंचो ने एक सुर में सहमति दी।
    आज देबू को अच्छे से और समझ में आ गया कि, नेक इरादो में अड़चन आ सकती है पर इरादे पक्के हो तो पूरे हो कर ही रहते है।
    “देबू नाम तो बता बेटा.. सारे पंच एक ही सुर में बोले। ”
    काका ! “उसका नाम राधा है, पढी – लिखी समझदार है। वो मेरी पूरी मदद कर पायेगी।”
    अब विवाह की सहमति तो, सारे पंच पहले ही दे चुके थे ,पर विधवा से विवाह करने को देबू कहेगा, यह उन सबको उम्मीद नही थी । अब क्या तीर तो म्यान से निकल ही चुका था। अब तो सारे पंच यही सोच रहे थे कि अभी तक जिसने गांव की भलाई के लिए ही काम किया है, तो वो उसको, गलत कैसे साबित करें?
    आज डाक्टर देवेन्द्र का, ईश्वर में विश्वास और भी बढ़ गया क्योंकि कि उसने एक तीर से कई शिकार किये थे। डाक्टर देवेन्द्र ने विधवा – पुनर्विवाह पर लोगों को सोचने पर मजबूर कर, विचार करने को भी प्रेरित किया, साथ ही उनकी पढाई और उनके काम करने को सही ठहराया।
    आज डाक्टर देवेन्द्र को, खुद के डाक्टर बनने पर गर्व हुआ क्योंकि वह एक साथ कई सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में सफल होने लगा था और अब तो राधा भी उसकी ताकत बन उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को साथ खड़ी थी।
    नेक इरादे और सच्ची चाहतें इन्सान को बुलन्दियां छूने में मदद करती है ।रूपया- पैसा सब एक तरफ रह जाता अगर इन्सान साथ, चलने वालों के सिर का ताज बन जाये ,इससे बड़ा खिताब कोई नही होता।
    डाक्टर देवेन्द्र ने यह साबित करके दिखा दिया… कि सच्चा जज्बा क्या होता है। जिसमें हारने जैसी बातों की उम्मीदें कम ही होती है, आगे बढने के हौसले ज्यादा होते है। ऐसे ही लोग आसमान की बुलंदियों तक पहुँचते हैं। बस ईश्वर को साक्षी मानकर उनको आगे बढना होता है।

प्रगति गुप्ता
58,सरदार क्लब स्कीम, जोधपुर -342001
फ़ोन: 09460248348  (व्हाट्सएप न.) ,07425834878, मेल:pragatigupta.raj@gmail. com

1 टिप्पणी

  1. बहुत अच्छी कहानी प्रगति जी।आज के समय में विदेश जाकर अपने लिये धनोपार्जन करना ही मुख्य ध्येय हो गया है।ऐसे में डाक्टर का हौसला लाजवाब है और विधवा से विवाह भी समाज को रूढ़ियाँ तोड़ने की सीख दे रहा है।बधाई आपको।

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