बृज राज किशोर “राहगीर” की ग़ज़ल
किताब-ए-हुस्न में कोई वफ़ा की बात भी है क्या?
कहानी-दर-कहानी बस वही हालात होते हैं,
हमेशा आदमी के अश्क़ दिखलाई नहीं देते,
मुक़द्दर में लिखा है जो, ज़रा सा भी बदल पाए,
पुलिस मुस्तैद है लेकिन मुसलसल ज़ुर्म होते हैं,
बृज राज किशोर “राहगीर”
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बहुत सुंदर ग़ज़ल है ब्रज किशोर जी!
हर शेर अच्छा है। आखिरी शेर कबीलेगौर है।
बधाई।
वाह…. बेहतरीन