स्कूल और कॉलेज में बैठीं,
हँसतीं, गुनगुनातीं,
अपनी दो चोटियों को
हवा में झुलातीं,
आँखों को गोल-गोल नचाती लड़कियाँ
कभी पढ़तीं हैं प्रेमचन्द की “बूढ़ी काकी”
तो कभी निराला की “वह तोडती पत्थर”
अभी उन्हें पढ़ना है
शेक्सपियर की “सॉलिलोकीज़”
और वर्डस्वर्थ की “डैफोडिल”,
करने हैं दो-दो हाथ
पाइथागोरस की प्रमेय से..
वे दौड़ कर जातीं हैं
केमेस्ट्री की प्रैक्टिकल लैब में,
सबकी नज़रें चुराकर
सोडियम के छोटे से टुक़ड़े पर
पानी की बूँदें डाल
पूरी लैब में सोडियम का गोल-गोल घूमना
और फिर भक्क-से
आग की लपटों में बदल जाना
विस्फारित नज़रों से देखती रहती हैं
और फिर देर तक
ठठाकर हँसतीं हैं
अपनी इस चंचल, जानलेवा शरारत पर…
अरे हाँ..
मौका मिलते ही
वे कस देतीं हैं फब्तियाँ
पास से गुजरते
गाँव के दो शर्मीले लड़कों पर,
हीरो-से दिखाई देते
अपने अंग्रेजी के प्रोफेसर की क्लास में
लड़कों को धकिया कर,
सबसे आगे की बेंच पर बैठकर,
वे बिना पलक झपकाए सुनतीं हैं
जेन आयर की प्रेम कहानी…
पूरे दिन गिलास में से छलकते
एनर्जी ड्रिंक की तरह तरोताज़ा
ठहके लगाती, शोर मचाती लड़कियाँ
शाम ढले धीरे-धीरे कदमों से
चल देतीं हैं अपने घरों को
हवा में उड़ते दुपट्टे
सिमट जाते हैं वक्ष पर
बेपरवाह चाल
हो जाती है तब्दील
सधे हुए कदमों में
बिन्दास हँसी…शरारती नज़रें…चुलबुले ठहाके
सब समा जाते हैं
किसी जादुई बोतल में
कसमसाते-कसमसाते
अगले दिन का इंतज़ार करने के लिये..
घर आते-आते
ये लड़कियाँ
इतनी क्यों बदल जातीं हैं ???
मालिनी गौतम
2 एक सोता मीठे पानी का
अपने घर-आँगन के बाहर
किसी आधे फूटे मटके में,
पुरानी तगारी में
या सीमेंट की नाँद में
सुबह-शाम
भरकर रखना शीतल जल
कि चिलचिलाती धूप में
हैरान-परेशान, राह भटकते
गाय-भैंस,कुत्ता-बिल्ली,मुर्गी-बकरी
पी सकें मुँह भर पानी,
छत की मुँडेर पर
घर के वराण्डे में
बगीचे में छायादार जगहों पर
सुबह-शाम रखना
पानी भरे मिट्टी के सकोरे
कि चिड़िया-कौआ, कोयल-बुलबुल
पी सकें चोंच भर पानी…
मन को जलाते, चोट पहुँचाते
इन कठिन और दग्ध दिनों में
चाहे जितना भी हो
लहूलुहान हृदय तुम्हारा
अन्तर्मन की गीली कन्दराओं से
खोद निकालना
एक सोता मीठे पानी का
और बाँटना
आँख भर करूणा
अँजुरी भर ममता
निरीह और ख़ामोश जुबानों को..
कि धूप-अगन, जलन और थकन में
वे होते हैं
तुम्हारे बराबर के साथी
वाचाल भाषा में
मौन को समझने की
इतनी लियाकत तो होनी
मालिनी गौतम
3 पिता का होना
एलबम के पन्ने पलटते हुए
किसी पुरानी-पीली तस्वीर में
अपने नाती-पोतों को
सहेज कर बैठे हुए
पिता को देखकर
मन सुकून से भर जाता है,
जैसे भर आई हो गुनगुनी धूप
सर्द अँधेरे कोनों में,
जैसे चिलचिलाती धूप में झुलसते
घर के बीचोबीच अचानक ही
उग आया हो एक घटादार दरख्त
जिसकी छाँव में
रूठे हुए रिश्ते
फिर से घर-घर खेलेंगे,
दूर उड़ गयी चिड़िया-कोयल
फिर से अपना हक जमायेंगी
कच्ची-पक्की अमिया पर,
सावन धीरे से आकर
शाख़ पर डाल जाएगा झूला,
बरसों से कोने में पड़ी मूँज की खाट
फिर भर जाएगी
बड़ी और पापड़ की महक से…
पड़ौस की आवाजें फिर
आँगन तक सुनाई देने लगेंगी,
यहाँ तक कि देहरी छोड़ चुका
भूरा कुत्ता भी वापिस लौट आएगा…
पिता सहेज लेंगे सबको
वैसे ही
जैसे सहेजते थे कभी
अपने नाती-पोतों को ।
मालिनी गौतम
4 ओ दोस्त तुम्हारे लिये
उसे कुछ फूल चाहिए थे
हॉस्टल में होने वाली
गुलदस्ता प्रतियोगिता के लिए,
तुम अलसुबह हॉस्टल के
दरवाजे पर खड़े दिखे
ढेर सारे रजनीगंधा, गुलाब और डहेलिया के साथ,
गुलदस्ते में तुम्हारा नेह था या फूल
पता नहीं……पर
पहला पुरस्कार लेते समय,
हॉस्टल मेस में
मेहमानों के स्वागत में कभी-कभी बनती
पूड़ी और पनीर की सब्जी खाते समय,
वह सर झुकाये सोचती रही
तुम्हारे हॉस्टल में बनती
पानीदार आलू-गोभी की तरकारी के बारे में
जिसमें गोता लगाकर गोभी ढ़ूँढनी पड़ती थी,
दूसरे दिन कूदती-फाँदती
वह तुम्हे अपनी ट्रॉफी दिखाती
और तुम हँसते हुए कहते
बस….चपटे चेहरे वाली आयशा जुल्का
कितनी बावरी हो जाती हो जरा-जरा सी बात पर
हमेशा दो चोटी बाँधने वाली वह
एक दिन बिखरे बालों में चली आई
तुमने जेब से रुमाल निकाल कर बाँध दिया
बोले पगली…इस झरने में बह जायेंगे सब
वो परेशान होती
तुम उसे ले जाते डबराल बाबा के पास
जहां हॉस्टल के सब लड़के-लड़कियाँ
जाते थे अपना नसीब जानने,
वो भीड़ में भी अकेली थी
तुम उसे ले जाते महाकाल
सखी क्षिप्रा से मिलवाने,
उसके हर मर्ज के हकीम लुकमान थे तुम
ऐसे न जाने कितने ही
चमकीले पल-छिन
वह चुरा-चुराकर सहेजती रही
वक्त की मखमली डिबिया में
घर वापिस लौटने से पहले
तुमने उकेरे कुछ सुनहले हर्फ़
उसकी केसरिया डायरी में
जिसे उसने छुपा लिया
डिबिया में यादों के नीचे
न वो रोई…न तुम रोये
वह कसकर थामे रही डिबिया
हर हफ्ते आते तुम्हारे पत्रों को फाड़कर
अक्षर सहेजती रही डिबिया में,
जानती थी वह
कि मायके की देहरी से विदा होते ही
सब नाते पीछे छूट जायेंगे,
साँसे अधूरी रह जाएँगी
लड़कियाँ कोरी स्लेट की तरह
जाती हैं ससुराल में
दोस्तों को साथ ले जाने की
इज़ाज़त नहीं होती उन्हें
वो नई इबारत लिखतीं हैं स्लेट पर
नए हर्फ़ पढ़ती हैं
नए अर्थ समझती हैं
नए जोड़-घटाव सीखती हैं
और जब दम घुटता है
तो हथेली में बन्द डिबिया खोलकर
कुछ साँसे चुरा लेती हैं …
और तुम अब भी नहीं जान पाते राज़
कि लड़कियाँ इतना कुछ
क्यों सहेजती चलती हैं …..
मालिनी गौतम
574, मंगल ज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-389260
गुजरात