मुझे वह शाम खूब याद है जब वह पहली दफ़ा मुझसे मिला था. उसके आने की ख़बर से मैं भी एक तरह से खुश था. एक ही ढर्रे पर ज़िन्दगी को रोज़-रोज़ जीते हुए मैं भी ऊब चुका था. मैं भी ज़रा तब्दीली चाह रहा था. उसके आने की ख़बर से एक उम्मीद बंधी थी कि अब शायद मेरे तौर-तरीके भी कुछ बदलेंगे. मेरे एक पुराने दोस्त ने फोन करके इस नमूने के बारे में मुझे बताया था. इस शहर में यह उसकी पहली पोस्टिंग थी. मेरे दोस्त ने मुझसे गुज़ारिश की थी कि मैं उसका ख़्याल रखूँ और जब तक उसके मन लायक ढंग की कोई जगह न मिल जाए, उसे अपने ही फ्लैट में रहने-खाने दूँ. साथ ही मुझे आगाह किया गया था कि उसकी लतीफ़ेबाज हरक़तों को मैं संजीदगी से न लूँ. उसके बारे में यह सब  सुन कर मेरे ज़ेहन में उसकी एक तस्वीर उभरी थी लेकिन उस रात स्टेशन पर जब उसने मेरी पीठ पर एक धौल जमाया तो तो उस तस्वीर के रंग तेजी से धुंधले पड़ने लगे थे. सफेद कार्डरॉय की पैंट, नीली कमीज़ और काले पुलोवर पहने अपने लापरवाह रंग-ढंग की वज़ह से वह आदमी कम और कोई अजूबा ज़्यादा दिख रहा था.
‘बड़े अजीब आदमी हो यार तुम भी! दस मिनट से इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारा.’ यह उसका कहा हुआ पहला जुमला था.
     मुझे स्टेशन पहुँचने में बेशक़ थोड़ी देर हुई थी लेकिन पहली ही मुलाक़ात में उससे इतनी ग़ैरज़िम्मेदार बात की उम्मीद तो मुझे कतई नहीं थी. जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि स्थितियों को देखने का उसका अपना ही नज़रिया था.
        तेज दौड़ती टैक्सी की खिड़की से उसने एक नज़र शहर को देखा और जेब से निकाल कर सिगरेट जला ली.
      ‘शहर और कितनी दूर है?’ उसके मुँह से घटिया दारू की तेज बास आ रही थी.
       ‘मुझे कोफ़्त हुई. हम शहर के एकदम बीच में थे. उसने सिगरेट का धुआँ उगलते हुए कहा, ‘यह भी कोई शहर है! लगता है किसी कब्रिस्तान में आ गया हूँ जैसे.
       मुझे हँसी सी आ गई क्योंकि वह खुद एक छोटे से पहाड़ी कस्बे से आया था. फिर भी मैंने यूँ ही कह दिया, ‘नई जगह आने से एडजस्टमेंट की थोड़ी-बहुत प्रॉब्लम होती है. थोड़ा वक्त लगेगा, फिर सब ठीक हो जाएगा.
      रात ज़्यादा हो चुकी थी. सड़कों पर इक्की-दुग्गी सवारियाँ अब भी आ-जा रही थीं. बन्द दुकानें, लौटते हुए ठेले और नीम नींद में डूबे हुए फ्लैट्स. उसने सिगरेट का आख़िरी कश लिया और बट को फेंक दिया, ‘यह कबूतरखाने कैसे हैं?
        मैं फिर से चौंका लेकिन उसके चेहरे की तटस्थता से मैंने अंदाज़ा लगाया कि उसका मतलब बहुमंजिली सोसाइटियों के फ्लैट्स से था. मेरे कमरे में दाखिल होते ही उसने जेब से पौव्वे की बोतल निकाली और बची हुई दारू एक ही घूंट में गटकने के बाद मेरे बिस्तर पर बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पसर गया.
       ‘सफ़र में कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई होगी?’ मैंने उसकी तरफ पानी का गिलास बढाते हुए यूँ ही पूछ लिया.
        ‘अमा नहीं यार. बल्कि ऐसा दिलचस्प सफ़र तो मैंने ज़िन्दगी में पहली दफ़ा किया था. एकदम किसी थ्रिलर स्टोरी के जैसा.’ उसने दो घूंट पानी पिया और गिलास को तिपाई पर रखते हुए पूरा वाकया तफ़सील से सुनाने के लिए तैयार हो गया.
        ‘हुआ यूँ कि किसी स्टेशन में मेरे ही कंपार्टमेंट में दो जवान लड़का-लड़की चढ़े. लड़की खूबसूरत थी लेकिन ज़रा डरी-डरी सी थी. मैं ताड़ गया कि दोनों पक्का घर से भागे हुए हैं. कुछ शोहदे मामले को समझ गए और उनके पीछे लग गए. लड़के की हिम्मत जवाब दे गई और वह किसी स्टेशन पर लड़की को अकेला छोड़ चुपचाप उतर गया. लड़का जब थोड़ी देर तक नहीं लौटा तो लड़की घबरा गई और इसी उधेड़बुन में पूरी रफ़्तार से दौड़ती ट्रेन से कूद पड़ी. डिब्बे में हंगामा मच गया …. जंजीरें खींची गईं. पुलिस और लोग ट्रेन रूकते ही दौड़ कर उसको देखने भागे, देखा तो लड़की दो टुकड़ों में मिली…’  वह बड़े आराम से बोलता रहा, जबकि मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे.
      ‘हादसे को देख कर तो आप सो नहीं पाए होंगे पूरी रात?’ मेरी आवाज़ अभी भी सिहरी हुई थी.
      ‘नहीं यार, ऐसे तमाशे तो कभी-कभार होते रहने चाहिए. इनसे ज़िन्दगी में ज़रा रौनक बनी रहती है.’
       मैंने गौर किया, यह सब कहते हुए उसकी नीली पुतलियाँ विस्फारित हो चुकी थीं और उनके विस्तार में मैंने सफेद परिंदे जैसी कोई कोई चीज को उड़ते हुए देखा…
        अगली सुबह जब सो कर उठा तो उसे बुकसेल्फ़ के पास खड़ा देखा.
        ‘किताबें तो बहुत जमा कर रखी है तुमने. पढ़ते भी हो कि सिर्फ़ सजाने के लिए खरीदी हैं?’ उसके बेहूदे सवाल से मुझे गुस्सा भी आया. लेकिन बेपरवाही से उसने कहा, ‘वैसे थोड़ा-बहुत पढ़ने का शौक़ मुझे भी है.’
       मैं ज़रा खुश हुआ, ‘अच्छी बात है. मैं दफ़्तर जाऊंगा तो आपका वक़्त आराम से कट जाएगा’.
        ‘कौन-कौन सी किताबें हैं?’
        ‘तक़रीबन हर तरह की’. मैं पूरे जोश में था… ‘खास तौर पर फिक्शन और फिलॉसफी.
         ‘रहने दो यार … तुम्हारे ये सार्त्र और देरिदा तो अपने वश की चीज नहीं. पैरी मेसन का कोई थ्रिलर या नैंसी फ्राइडे नुमा कुछ मज़ेदार बुक हो तो ठीक वर्ना आलमपनाह आराम करना पसंद करेंगे.
        ‘उस शाम जब वह बाज़ार से लौटा तो उसके हाथ में उसके पसन्द की कुछ किताबें और बकार्डी की एक पूरी बोतल थी. पूरी रात वह पीता रहा और पढ़ता रहा. बिना चेंज किए और बिना कुछ खाए-पिए. कोई डिटेक्टिव नॉवेल था. सुबह-सुबह उसने बताया, जिसमें जॉन एफ. कैनेडी के क़त्ल की अलग तरीके से तहकीकात करने की कोशिश की गई थी. नाश्ते के बाद हम चाय पी रहे थे. आधी सिगरेट के कश खींचता हुआ उसने अपने नज़रिए से आधी पढ़ी किताब का कन्क्लूजन निकालना शुरू किया. उसकी पड़ताल के मुताबिक मुमकिन था कि क़ातिल ओसवाल्ड दरअसल प्रसिडेंट के ड्राइवर को मारना चाहता था क्योंकि ड्राइवर की बीवी के साथ उसके नाजायज़ ताल्लुक़ात रहे हों और दोनों ने मिलकर ड्राइवर को रास्ते से हटाने की योजना बनाई हो. यानी साज़िश थी ड्राइवर को मारने की लेकिन निशाना  चूकने से गोली जा लगी कैनेडी को. ‘बेचारा कैनेडी..’ उसने सिगरेट को ऐशट्रे में रगड़ते हुए कहा.
       वह ऐसी ही ऊटपटांग बातें करता रहा और मैं उसकी विस्फारित नीली पुतलियों को देखता रहा जिसमें पंख फड़फड़ाती सी सफेद परिंदे जैसी कोई चीज थी …
            इस दरम्यान उसने अपना ऑफिस ज्वाइन कर लिया लेकिन हफ़्ते भर के भीतर ही उसने मेरे कमरे को बेतरह बेतरतीब कर दिया. मुझे हर चीज से निकोटिन की बास आती लगती. सिगरेट के टुकड़े पूरे कमरे में फैले रहते. कहीं जुराबें पड़ीं होती तो कहींं उसके कागज़ात बिखरे रहते और कहीं गन्दे-मुचड़े कपड़े. मेडिकल साइंस की भाषा में वह हाइपरकाइनेटिक था. मतलब बेचैन. देह और दिमाग दोनों से. मैंने शायद ही कभी उसे स्थिर और चुप बैठा देखा था. पता नहीं, किस  चीज की तलाश थी उसको. कभी ज़रा मायूस सा तो कभी बेवज़ह बहुत खुश. उसके जीवन में निषिद्ध या वर्जित जैसे कुछ भी नहीं था और वह दुनिया के किसी मुद्दे पर बेहिचक बोल सकता था. मसलन एक रोज़ मैं दफ़्तर से लौटा ही था कि उसने एलानिया तौर पर कहा,’यू नो, वीमेन आर मल्टीऑर्गेज़्मिक एंड वी स्टुपिड मेन थिंक दैट वी हैव द स्किल टू सैटिस्फाइ देम.’ यकबयक मेरी नज़र उसके सिरहाने रखे ‘मास्टर एन्ड जॉनसन’ पर पड़ी और मुझे उसके इस अन्वेषण के स्रोत का अंदाज़ा हो गया. ख़ैर.. जल्दी ही मैंने उसके रहने के लिए नई जगह का बंदोबस्त कर दिया. ज़ाहिरन नाखुश रहने की अपनी फ़ितरत की वजह से वह नई जगह भी उसे पसंद नहीं आई. लेकिन मैं ज़रूर खुश था. आख़िर उस अजूबे से छुटकारा जो मिल गया था. लेकिन यह सिर्फ़ एक खुशख्याली थी. वह वक़्त-बेवक्त मेरे घर टपक पड़ता…. देर रात गए, या फिर अल्लसुबह … किसी भी वक़्त. एक शाम दफ़्तर से अभी लौटा ही था कि वह हाज़िर हो गया..’अरे निकलो यार इस दड़बे से बाहर. देखो, कितना डल है सारा एटमॉस्फियर! … कहाँ किस शहर में आ फंसा मैं. बसें चींटियों की तरह रेंग रही हैं गोया… दफ़्तरों-दुकानों में लोग ऐसे बैठे हैं गोया अभी-अभी कब्रगाहों से लौटे हैं…. कोई वाक़या, कोई हादसा नहीं होता कहीं… कोई गज़ब का एक्सीडेंट नहीं होता… बॉर्डर पर सिर्फ़ तमाशे होते हैं कोई डिसाइसिव वार नहीं होता… सिर्फ लफ़्फ़ाज़ियों से चल रही है दुनिया… किसी को किसी की फ़िक्र नहीं.’ वह बिना रुके बके जा रहा था. ‘कल दफ़्तर में स्टेनो को ज़रा छेड़ दिया. सोचा, नाराज़ होकर बॉस से शिक़ायत कर देगी, जोर से चिल्ला कर पूरे दफ़्तर को इकट्ठा कर लेगी…मुझे एक चांटा रशीद कर देगी या फिर दो-चार रोज़ मेरी केबिन में नहीं आएगी. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. उल्टा खींसे निपोड़ कर हँसने लगी जैसे मेरे लिए ही इतने सालों से कुंवारी बैठी हो.’
          इतने दिनों में मैं उसकी ठर्रेबाज हरकतों से वाकिफ़ हो चुका था बल्कि आजिज आ चुका था. उसकी इस बेचैनी और पागलपन का सबब मेरी समझ से बाहर था. शायद ही मैंने उसकी ज़ुबान से उस दुनिया की बात सुनी थी जिसे वह अपने पीछे छोड़ आया था. वह कुछ कहता तो बस यही कुछ कि बड़ा सुस्त सा चल रहा है सबकुछ… कहीं कुछ नयापन नहीं …. वगैरह-वगैरह.
         इस आदमी की सोहबत के बाद धीरे-धीरे मुझे भी यह अहसास होने लगा कि इतनी आपाधापी के बावजूद वाक़ई ज़िन्दगी पर एक सुस्ती तारी है. गोया हर चीज के ऊपर जैसे धूल की कई तह मोटी परत जमा हो… एक कोहरे में जैसे डूबे हों सभी रिश्ते….
      एक इतवार मैं ही उसके घर गया तो उसे ख़ुद ही चाय उबालते देखा.
      ‘क्या बात है, कहाँ गया नौकर तुम्हारा?’ मैंने पूछ लिया.
       ‘साले को आज ही भगाया है.’ उसने बगैर किसी अफ़सोस के कहा. चाय का कप हाथ में देते हुए वह आदतन तफ़सील से बताने लगा.
         ‘यार, मेरा नौकर था तो वफ़ादार और मेहनती लेकिन डरपोक निकला. इधर कई महीनों से सामने फ्लैट में रहने वाली एक लड़की को ताड़ा करता था. मैं भी खुश था… सोचा कि मुहब्बत तूल पकड़ेगी तो ज़रा रौनक रहेगी. लेकिन महीने-दर-महीने गुज़र रहे थे लेकिन मामला वहीं का वहीं. एक सुबह साफ-साफ उससे पूछा तो वह एकदम से मुकर गया. कसमें खाने लगा कि ऐसी कोई बात नहीं. मैं क्या करता तुम्हीं बताओ. दो झापड़ दिया और घर से दफ़ा किया उसे.
चाय की प्यालियाँ हाथ में लिए हम उसके खुले से टैरेस में आ गए. मेरे मन में उसको लेकर कई कौतूहल थे. लेकिन इस बात को लेकर तक़रीबन मुतमईन था कि ये सारे ड्रामे वह अपने व्यक्तित्व की नाटकीय स्थापना के लिए किया करता था. उसे शायद ग़लतफ़हमी थी कि वह दूसरों से अलग है.
           ‘तुम्हारी उम्र के आदमी को ज़रा संजीदा विहेवियर करना चाहिए.’ थोड़ी देर खामोशी के साथ साथ-साथ टहलते हुए मैंने उसे बस ऐसे ही टटोला. जवाब में वह एकबारगी बिफर पड़ा, ‘इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि तुम पूरी तरह से सड़े-गले दिमाग के आदमी हो. मैं तुम दुनियादार लोगों की तरह सम्बन्धों की झूठी अर्थवत्ता और प्रपंचों में एक मिनट भी नहीं जी सकता. चीजों की तहों में बेवज़ह जाना मुझे उबाने लगता है. जो सामने दिख रहा है, घट रहा रहा है वही बात मुझे थ्रिल करती है…’
         उसने एक गहरी सांस ली फिर एक सिगरेट सुलगा ली, ‘तुम नहीं जानते, जब मैं पहाड़ों से यहाँ आया था, उस वक़्त मेरी एक्स-रे निकाली गई होती तो मेरी धड़कन में तुम्हें इंफ्रारेड रोशनी की तेजी और चुभन महसूस होती… मेरे खून में खौलता लोहा मिलता… मेरे फेफड़ों में पूर्णमासी का समंदर सिर पटकता दिखता… और मेरे दिल में तुम्हें देवदार का एक घना पेड़ मिलता जिसके छाए में ज़िन्दगी के नशे में चूर कोई पहाड़न लड़की अलमस्त लेटी होती…’
             मुझे उसकी बातों पर मसखरी सूझी, ‘और अब अगर तुम्हारी एक्स-रे निकाली जाए तो?’
          ‘अब मेरे खून में जमे हुए बदबूदार पानी का बरसाती तालाब मिलेगा जिसमें केचुओं से लिपटी नहाती हुई काली-काली भैंसे मिलेंगी.’ उसने थकी सी आवाज़ में कहा. उस वक़्त उसकी खोई हुई सी और सुदूर कुछ तलाशती आंखों में एक जहीन सी उदासी दिखी थी.
          … उसके बाद वह हफ़्तों लापता रहा. फिर एक दिन सुबह-सुबह ही वह हाज़िर हो गया.
         ‘यार, इस धुंध को काटने की एक नायाब तरक़ीब सूझी है. सुनोगे तो तुम भी हैरत में पड़ जाओगे.’ उसने दरवाज़े पर से ही इस अंदाज़ में लगभग चीखते हुए कहा गया कोई खुशखबर सुना रहा हो. हालांकि उसने कई दिनों से शेव नहीं किया था और उसके बाल भी बढ़े हुए और बेतरतीब थे. लेकिन उसकी आवाज़ में गजब का जोश और खनक थी. उसने मेरी टेबल से मेरा मोबाइल उठा कर मेरे हाथ में रखते हुए कहा.
         ‘देखो, मेरे घर वाले जानते हैं कि इस शहर में तुम्हीं मेरे इकलौते दोस्त हो. उनको एक मैसेज कर दो प्लीज़.’ उसने जेब से नम्बर की एक पर्ची निकाली.
          ‘लेकिन लिखना क्या है?’ मैंने एहतियातन पूछा.
           ‘बस, इतना भर लिखना है कि कल शाम दफ़्तर से लौटते हुए मैं एक बस की चपेट में आ गया और अब भी आई सी यू में बेहोश पड़ा हूँ.’ उसने एक निरपेक्ष उत्साह के साथ कहा.
            ‘लेकिन यह सब लिखने का क्या फायदा? तुम्हारे घर वाले बेवज़ह परेशान होंगे.’ मैंने चिढ़ते हुए कहा.
           ‘बस यूँ ही यार. ज़रा शगल रहेगा. हलचल रहेगी दो-चार रोज़.’
           ‘ तुम्हारे शगल की ऐसी तैसी.’ मैंने उसकी सनक पर उसको लताड़ा, ‘मैं आज तक समझ नहीं पाया कि ओढ़ी हुई उत्तेजना ही तुम्हें क्यों लुभाती है. कोई गिल्ट नहीं होता तुम्हें दूसरों को इस तरह परेशान कर?’
          ‘वह थोड़ी देर तक ख़ामोश बैठा रहा, फिर अचानक उठा और धड़ाम से कमरे का दरवाज़ा पटकता हुआ निकल गया, ‘तुम निहायत ही डरपोक और झक्की किस्म के आदमी हो.’ जाने से पहले वह घोषित करता गया. मैंने लिहाफ़ फिर सर तक खींच लिया और राहत की सांस ली.
            यह उससे मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी. इसके तीसरे ही दिन की बात थी. मैं अख़बार के पन्ने पलटता हुआ सुबह की चाय पी रहा था. अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी. इतनी सुबह-सुबह वही हो सकता है, मैंने कयास लगाया. ज़रूर उस रोज की घटना के लिए मुझपर लानत भेजेगा. लेकिन कॉल रिसीव की तो कोई अजनबी और परेशान आवाज़ थी, ‘देखिए मैं चड्ढा बोल रहा हूँ, आपके दोस्त मिस्टर बिष्ट का मकान मालिक. आपके दोस्त के साथ कोई हादसा हो गया लगता है. पिछले तीन रोज़ से उनके फ्लैट का दरवाज़ा भीतर से बंद है.’
            ‘मुझे बेतरह चिढ़ हुई. उसकी इन बचकानी हरकतों से मैं उकता चुका था.
            ‘आप परेशान न हों. हो सकता है, उसने ज़्यादा पी ली हो. एक बार उसके बाथरूम के हवादान का कांच तोड़ कर देखिए.’ मैंने खुद को संयत रखते हुए जवाब दिया.
            घण्टे भर बाद ही चड्ढा साहब का फोन दोबारा आया, ‘आप फौरन चले आइये. हमने पुलिस को भी इन्फॉर्म कर दिया है.’
          मेरे पहुँचते-पहुँचते बिल्डिंग के खासे लोग वहाँ इकट्ठा हो चुके थे. फिर पुलिस ने उसके फ्लैट का दरवाज़ा तोड़ा. भीड़ को चीर कर जब मैं भीतर घुसा तो एक तेज सड़ांध मेरे नथुने से टकराया. उसके कमरे का मंज़र देख कर मैं आवाक रह गया. वह बिस्तर पर औंधा पड़ा था. जिस्म पर वही कपड़े थे जो हमारी आखिरी मुलाक़ात के वक़्त उसने पहन रखे थे. तकिए पर सूख चुके झाग के धब्बे थे. सिरहाने किसी टेबलेट के कई खाली स्ट्रिप्स थे पड़े थे. फर्श के एक कोने में कुछ पुरानी तस्वीरों की चिंदियां थीं. हज़ार कोशिशों के बावज़ूद जिनमें कोई चेहरा पहचाने जाने लायक नहीं छोड़ा था कमबख्त ने. एक पुरानी डायरी के अधजले पन्ने भी थे जिनमें कुछ नज़्में थीं और कुछ आधे-अधूरे बेनामी ख़त. एक कांस्टेबल ने जब उसकी निश्चेत देह को चित्त किया तो मैंने आख़िरी बार उसकी शक़्ल को देखा. गोया शिक़ायत से भरी हो कि इतनी सुस्ती क्यों है यार!

        बहरहाल उसकी आँखें अब भी खुली थीं और उनकी नीली पुतलियों के पथराए आसमान में सफेद परिदों के पंख रुई के फाहों की मानिंद झरते हुए गिर रहे थे.


प्रभात मिलिंद

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