5 जून, 2022 और 12 जून, 2022 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीयों पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं
अनूप भार्गव, न्यू जर्सी
तेजेन्द्र भाई,
अपने संपादकीय में हिंदी साहित्य की पहुँच को बढ़ाने और उसे विश्व साहित्य में जगह दिलाने के लिए अंग्रेज़ी में अच्छे और समय पर किए गए अनुवाद की ज़रूरत है । आप ने इसे और कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे (जिस में सही मार्केटिंग भी शामिल भी शामिल है ) आलेख में ख़ूबसूरती से रेखांकित किए हैं ।
मीरा गौतम
तेजेन्द्र जी, सम्पादकीय में गहरा विश्लेषण किया गया है… जब किसी रचनाकार को पुरस्कार मिलता है तो आलोचना-प्रत्यालोचना होती ही हैं… यह हिन्दी रचना को मिला है,बड़ी बात है.
भारत की बात अलग है… यहाँ साहित्य सरकारी नियंत्रण में है और सरकार किसी न किसी राजनीतिक दल की होती है। तो,अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किनके दिन फिरे।
पिछले सालों की ख़बर है कि बुकर एक ऐसे शख़्स को मिला जो कर्ज़ में डूबकर कागज़ बीनने पर विवश हुआ! यह तब की बात है जब किरण बेदी को मेगासायसाय (संभवतः) मिला था। यह मिला है हिन्दी के लिए शुभ है…
हरप्रीत सिंह पुरी
बहुत बढ़िया आलेख, तेजेंद्र जी… धन्यवाद।💐 आपके आलेख ने ३६० डिग्री परिदृश्य उजागर कर दिया। पाठक को लेखन, प्रकाशन, पुरस्कार प्रक्रिया की बारीकी और गीतांजलि श्री की साहित्यिक यात्रा सब समझ आ जाते हैं।
सुधा जुगरान
तेजेन्द्र जी,
बहुत ही अच्छा और सटीक संपादकीय लिखा आपने “रेत समाधि’ और अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार को लेकर। काफी जानकारी पूर्ण भी रहा।
मैं आजकल ‘रेत समाधि’ पढ़ रही हूँ। यह बात बिल्कुल सच है कि जिनको यह उपन्यास समझ नहीं आ रहा, यह उनकी समस्या है उपन्यास की नहीं।
साहित्यिक पत्रिकाओं को पढ़ना ही जो लोग पसंद नहीं करते उन्हें ऐसी शिल्प शैली का उपन्यास कैसे पठनीय लग सकता है।
बात वही है कि तुरंत फुरत सब हो जाना चाहिए, दिखना छपना बिकना टिकना और पढ़ना भी। हर पुस्तक ट्रेन में सफर करते नहीं पढ़ी जा सकती। किसी भी विषय पर आपके बेबाक और स्पष्ट विचार संपादकीय को उत्कृष्ट बनाते हैं।
सुधा आदेश
संपादकीय ‘रेत समाधि के बहाने’ आपने भारतीय प्रकाशकों पर प्रश्रचिन्ह लगते हुए बुकर पुरस्कार तथा साहित्य अकादमी की चयन प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है जिससे स्वयं लेखक भी परिचित नहीं हैं।
1995 में कथा यू.के. द्वारा गीतांजलि श्री को सम्मानित किया जाना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि उन्होंने यह उपलब्धि रातों-रात हासिल नहीं की है वरन उसके लिए एक लंबी यात्रा तय की है।
हिंदी साहित्य का पटल बेहद विशाल है, कई कालजयी रचनाएं हैं किन्तु जब भारतवासी ही अपनी भाषा पर गौरवान्वित नहीं हैं तब अन्य से क्या आशा करना।
मैं तो बचपन से पढ़े- लिखे लोगों से यही सुनती आई हूँ कि हम तो हिंदी नावेल पढ़ते ही नहीं हैं। मेरा मानना है कि गीतांजलि श्री के उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिलना तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों की इस धारणा को तोड़ेगा, अब वह हिंदी साहित्य में भी रुचि लेंगे।
कुसुम पालीवाल
वाह ! बहुत सुन्दर और सटीक बात रखी है आपने सम्पादकीय में सर ! हमारा कहना है कि हर विधा में लेखक की अपनी भाषा-शैली होती है । भाषा शैली उसको अपने निजी स्थान , या जिस -जिस जगह पर लेखक रहा हो वहाँ के परिवेश , परिवार , और समाज से ही मिलती है । और कहानी में अपना अनुभव और कल्पनाएँ , आपका अपना विज़न और सामाजिक परिवेश में गुज़रने वाली वो घटनाएँ जिनको देख-सुनकर आपका ( लेखक ) मन आहत हुआ हो । पाठक किसी भी रचना को जब पढ़ता है और देखता , महसूस करता है कि इसमें तो किसी तरह का कोई तारतम्य ही नहीं नज़र नहीं आ रहा या भाषा शैली भी कुछ नही नज़र आ रही , तो ये पाठक की सोच है न कि लेखक की त्रुटि… लेखक जब लिखने पर आता है तो वो , वो सब लिखता है जो उसका ह्रदय कहता है और तब क़लम लिखवाती है ( कुछ लेखक सिर्फ़ पुरस्कार यानि कि प्योर साहित्यिक ही भाषा लिखते हैं पुरस्कृत होने के लिए ) लेकिन जब यहाँ पर लेखन में कुछ हटकर लगा ज्यूरी को , तो ही गीतांजलि श्री पुरस्कार की श्रेणी में आईं हैं वर्ना तो लाइन में और भी बहुत होंगे उनको क्यों नहीं मिला ?
क़िस्सों की समझ हर किसी को हो जाए तो फिर बात ही क्या .. यहाँ “ रेत समाधि” तो , बूझो तो जाने …वाली एक पहेली है । जिसने बूझ ली उसे अच्छी लगी और जो न बूझ सके उसे बोगस नज़र आ रही है किताब ..
“ किताब कोई बेकार या ख़ारिज नहीं की जा सकती , क्योंकि हर किताब अपने भीतर बहुत कुछ समेंटे रहती है ॥
डॉक्टर तारा सिंह अंशुल
तेजेन्द्र जी,
पुरवाई का संपादकीय पढ़ा
” रेत समाधि के बहाने ” शीर्षक से लेखकों के व्यक्तिगत विचारों को तठस्थ भाव से, पक्षपात रहित उल्लेख किया है, वह लेखन कला की उच्चता प्रदर्शित करता है।
अभी तो लोगों ने गीतांजलि श्री जी का उपन्यास
” रेत समाधि ” या ” tomb of sand ” पढ़ा भी नहीं है; तो भला किसी भी कहानी या उपन्यास को बगैर पढ़े उचित प्रतिक्रिया कैसे दी जा सकती है… यह मेरी समझ से बाहर है।
में स्वयं ” रेत समाधि ” उपन्यास पुस्तक पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकती ,क्योंकि इसे अभी तक पढ़ नहीं पाईं हूं।
संपादक महोदय तेजेन्द्र जी आप का उक्त संपादकीय आलेख पढ़कर पाठकों को यह फ़ायदा हुआ कि
बुकर पुरस्कार प्राप्त होने की सही प्रक्रिया का ज्ञान हो गया ? पुरवाई संपादकीय के पाठकों को सही जानकारी प्राप्त हो गई।
सर, स्वस्थ लोकतंत्र की यह विशेषता होती है कि इसमें एक आम आदमी भी शीर्ष नेतृत्व से सीधा प्रश्न कर सकता है।
यह जानकर अच्छा लगा कि बिट्रेन का लोकतंत्र इस दिशा में काफी परिपक्व है ।
भारत मे लोकतंत्र को परिपक्व होने मे अभी समय लगेगा। बढ़िया संपादकीय, सर ।
सुधा आदेश
तेजेन्द्र जी,
संपादकीय- बॉरिस जॉनसन का अविश्वास प्रस्ताव जीतना , में भारत और ब्रिटेन की राजनीतिक स्थितियों, परंपराओं पर सोचनीय प्रकाश डाला है। भारत में दल-बदल ही अस्थिरता की जड़ है जो देश के विकास में बाधक है।
पुनीत बिसरिया
ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पुरवाई’ के नवीनतम अंक के सम्पादकीय में तेजेन्द्र शर्मा जी ने ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री बोरिस जॉनसन के अविश्वास प्रस्ताव जीतने पर अपनी राय रखी है।
यह सच है कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने ही अपने प्रधानमन्त्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया और उनके अपने दल और ब्रिटिश पार्लियामेंट ने उन पर विश्वास जताते हुए उन्हें प्रधानमन्त्री बने रहने का अवसर दिया है। लेकिन मैं इस घटनाक्रम को थोड़े अलग दृष्टिकोण से देखना चाहूंगा।
अभी हाल ही में रूस की ओर से ब्रिटेन पर परमाणु बम से हमला करने की धमकी आई है, उधर चीन और उत्तर कोरिया के आसन्न खतरों को भी दुनिया के अन्य देशों की भांति ब्रिटेन भी अनदेखा नहीं कर सकता। तीसरी बात यह कि कोरोना काल में की गई पार्टी के लिए बोरिस माफी मांग चुके हैं और जुर्माना भर चुके हैं। ऐसे में उनके तख्तापलट का प्रयास उनके दल के विरोधियों द्वारा सत्ता हथियाने का असफल प्रयास अधिक दृष्टिगोचर होता है।
जहां तक भारत में ऐसे किसी प्रयास की कल्पना तक कर पाना मुश्किल होने की बात है तो यह सही है कि कांग्रेसी वंशवादी और शीर्ष नेता के चरण चापन की परम्परा का अनुसरण किए जाने के कारण भारतीय दलों में लोकतंत्र अपेक्षाकृत कम है, लेकिन यदि इसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो जब-जब किसी दल के निरंकुश नेता के विरुद्ध अंदर से आवाज़ उठी है, अधिकांश बार तब तब उस नेता को आम जनता ने सर आंखों पर बैठाया है।
मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, बीजू पटनायक, ममता बनर्जी, वाई एस आर जगनमोहन, हेमंत बिस्वा शर्मा ………… एक लम्बी श्रृंखला है… फिर भारत की राजनैतिक परम्परा ब्रिटेन की भांति द्विदलीय न होकर बहुदलीय है, ऐसे में यहां इस परम्परा के शुरू होने पर राजनैतिक अस्थिरता का खतरा अधिक है, इसलिए दोनों देशों के लोकतन्त्र की अपनी अपनी खूबियां हैं और खामियां भी, जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए।
तेजेन्द्र शर्मा जी को विचारोत्तेजक सम्पादकीय लिखने हेतु हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं।
विभा सिंह
“भारत के राजनीतिक सिस्टम को ब्रिटेन की परिपक्व लोकतंत्रीय प्रणाली से कुछ सीखना होगा।” बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी है सर। काश ऐसा हो….
“विरोधी लेबर पार्टी के नेताओं ने अविश्वास प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देते हुए आमतौर पर कहा कि देश के लिये अच्छा है कि अगले चुनावों तक बॉरिस जॉनसन प्रधानमंत्री बने रहें ताकि जो काम उन्होंने शुरू किये हैं पूरे कर पाएंगे।” ऐसा सोचना तो भारतीय राजनीति में स्वप्न में भी संभव नहीं…
साहित्य के साथ राजनीतिक गतिविधियों पर भी आपकी गहरी पकड़ है सर।आपके संपादकीय को संग्रहित कर एक पुस्तक तैयार हो सकती है।