सोन पापड़ी हमारे देश की सबसे नामी गिरामी मिठाई है,यही वो मिठाई है जिस पर सबसे ज्यादा मीम बनते हैं। दीवाली आते ही हर तरफ इसके चर्चे शुरू हो जाते हैं। नाम सब जानते हैं पर इसके भाग्य में इस हाथ से उस हाथ का सफर ही लिखा है।
इसी तरह साहित्य में भी एक सोन पापड़ी है वो हैं सम्मान के शॉल। साहित्यकार जीवन भर सम्मान कि जुगत में लगा रहता है कुछ लेखक तो लिखने से ज्यादा सम्मान प्राप्त करने पर फोकस करते हैं। सम्मान में मिले शॉल और श्री फल को प्राप्त करने में जितने हथकंडे अपनाए जाते हैं। उसके बाद उस शॉल को कोई नहीं ओढ़ता बल्कि तरह तरह के उपाय खोजे जाते हैं।

लोगों के बक्से शॉल से भर जाते हैं जितना बड़ा लेखक उतना बड़ा बक्सा। सफेद शॉल का भंडार देख वे वैसे ही परेशान हो जाते हैं जैसे दीवाली पर किसी के घर एकसाथ दस बारह डिब्बे सोनपापड़ी के आ जाएं। जिस तरह सोन पापड़ी को निपटाने के उपाय खोजे जाते हैं ठीक वैसे ही इन सफेद शॉल को निपटाने के जुगाड़ बिठाए जाते हैं। 
किसी जान पहचान वाले ने कोई कार्यक्रम रखा तो तुरंत कहेंगे “मेरे पास शॉल रखे हैं खरीदना मत मैं ला दूंगा”  यदि किसी के पुस्तक विमोचन में भी जाएंगे तो शॉल साथ लेकर जाएंगे और लेखक प्रकाशक सबको उढ़ा कर सम्मानित कर डालेंगे उसके बाद सुकून भरी लंबी साँस खींचेंगे  “चलो दो तो कम हुए”
ये अनुभूति  कुछ वैसी ही होती है जैसी दीवाली के सोन पापड़ी के डिब्बे को किसी और को चिपका कर महसूस होती है। बेचारी सोनपापड़ी की अभिलाषा होती है कि कोई उसे खोले और प्यार से खाए काजू कतली की इज्जत देख मन ही मन अगले जन्म काजू कतली बनने की अभिलाषा लिए बेचारी इधर से उधर घूमती है।
उसी तरह इन शॉल का भी कठिन और दर्द भरा जीवन होता है इन्हे एक मिनट से ज्यादा किसी का कंधा नसीब नहीं होता, दूसरे ही मिनट में हाथ से टेबिल का सफर तय करके बक्से में पड़ी फिर नए कंधे का इंतजार करती अपने नसीब को कोसती है। जिसने लेखक का मान बढ़ाया वही बेचारी बेमानी सी हो जाती है और सोनपापड़ी की गति को प्राप्त होती है।

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