यह मैं नहीं, आज की अबला माँ नहीं, जयपुर के प्रवासी नगर में स्थित प्रेमलता हॉस्पिटल के निदेशक डॉ बजरंग सोनी का एक अनूठी मिसाल के तौर पर मनाये हुए उत्सव का नमूना है. उत्सव का ख़र्च भी अस्पताल ही उठाता है। यह उनके नर्सिंग होम का ध्येय वाक्य है :
जयपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल और बनस्थली विद्यापीठ की पूर्व डीन डॉ इंदु बंसल इस अवसर पर विशेष अतिथि रहे जिन्होंने इस अनूठे जन्मोत्सव पर केक काट कर बालिकाओं को हॉस्पिटल की ओर से उपहार भी प्रदान किए। यह एक नूतन प्रयास ही नहीं, पुख्तगी से उठाया हुआ एक ऐसा क़दम है जो देश की बेटियों के इस अभियान की पहल करते हुए अपना पाँव लक्ष्य पाने की ओर आगे बढ़ा रहा है.
बीते साल दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के चलते ये संभव नहीं हो पाया। अतः अब लॉकडाउन खुलने के बाद इस दौरान जन्म लेने वाली कई बच्चियों का जन्मदिन एक साथ भारी हर्षोल्लास से मनाया गया। प्रबोध कुमार गोविल जी ने कहा कि समाज बेटी को पराया करके दूसरे घर में भेज देता है और बेटों के भरोसे ये भ्रम पालता है कि वंश चल रहा है। ये कोरा छलावा है। ये मात्र रस्म, रिवाज़, संस्कृति या परंपरा नहीं है, सड़ी गली रूढ़ि है जिससे छुटकारा पाना किसी भी समाज के लिए ज़रूरी है। यह रस्म केवल इसलिए बनी होगी ताकि लोग लड़की को सुरक्षा देकर पालने की ज़िम्मेदारी से बच सकें। यह नारी का ऐलान भी है जो गूँज बनकर सुधा ओम ढींगरा के शब्दों में ललकार रहा है:
ऐसा साहित्य साधना है, तपस्या है और जो सचमुच ही साधक हैं, उन्हें फल जरूर मिलता है। जैसे बाढ़ का उफान अधिक समय नही रहता, वैसे ही इन परिस्थितियों में जन्मे साहित्यकार भी अल्पकालिक होते हैं। जो कालजयी रचनाओं का निर्माण करते हैं वे सदा अमर रहते हैं। आज प्रसंगवश पदुमलाल जी की वे पंक्तियां स्मृति में आ रही हैं “प्रसिद्धि का राजतिलक हर किसी के माथे नही होता।” यकीनन इसी बहती धारा में एक अंजुरी अपने सिहरते खौफ़ को फ़ातिमा हसन की कलम कि सियाही भी घोल रही है:
कलम, लफ़्ज़ों का खौफ़ ओढ़े हुए
सो गयी है, सोचती हूँ
पहले इसे जगाऊँ
या चादर हटा दूँ?
और देखिये इस बानगी में हरकीरत ‘हीर’ के हृदय का उफान क्या कह रहा है:
दर्द हैरान था
ये किसने आह भरी है
जो मेरी क़ब्र पर से आज
फिर रेत उड़ी है …
इंटरनेट के माध्यम से हर दिन किसी न किसी ब्लॉग पर या फेसबुक पर बेपनाह साहित्य पढ़ने के लिए हमारा इंतजार कर रहा होता है। अनेक ही विषय, अनेक ही विषयों पर विश्लेषण, उस पर वह अपना मतदान देने वाले साहित्यकार, आलोचक व पाठक सभी प्रस्तुत होते हैं, अपनी बात रखने के लिए। आज आँखों के सामने से एक उन्वान गुज़रा –
‘बेटियां कुछ लेने नहीं आती”
पढ़कर लगा यह कविता नहीं, एक सच है जो हर घर आंगन में पनपता है। आज नारी अपने आस-पास की गुस्ताखियाँ देखते हुए बर्दाश्त करने पर मजबूर हो जाती है, शायद पुरुष सत्ता नारी को अबला मानकर उसपर हावी हो रही है। नारीअपने सक्षम होने के प्रमाण कई स्थानों पर अपनी कार्य क्षमता के दौरान देती आ रही है, फिर भी कभी कहीं, कुछ अनुचित परिस्थितियों में वह अपने पक्ष में अन्याय का शिकार हो जाती है, यही सबसे बड़ी विडम्बना है, जहाँ वह कमज़ोर पड़ जाती है। ऐसे ही एक अनुचित बात को आगे रखते हुए लेखिका कुसुम अंसल अपने कविता ‘वृन्दावन’ में उसी वारदात को शब्दों में ज़ाहिर करते हुए लिखती हैं:
ईंट पत्थरों को किसी ने रोते हुए नहीं देखा है, पर उन मकानों में रहने वाले मकीं इंसान होते हैं, जिनके सीने में दिल धड़कते हैं। बेटी की विदाई पर उनकी आँखें नम हो जाती हैं। बेटी भी इस दहलीज़ के उस पार जाते-जाते आँखों में सपने सजा जाती है। बाबुल के घर का वैभव छोड़ उस अपने निज घर की ओर पदार्पण करती है, वहीं अपने सपनों का एक नया संसार बसाती है। एक जनम में कितने जन्म लेती है औरत जो बेटी बनकर पैदा हुई, माँ बनकर अपना संसार रचा, और अपने सभ्य संस्कारों को साथ लिए सभी इतर रिश्तों को एक डोर में समेटकर बांधती है।
कुछ इस तरह जैसे अमृता प्रीतम जी की जुबानी यह बानगी कह उठी है:
चरखा चलाती मां
धागा बनाती मां
बुनती है सपनों के खेस री
समझ ना पाऊं मैं
किसको बताऊं मैं
मैया छुड़ाती क्यों देस री
बेटे को देती है महल अटरिया
बेटी को देती परदेस री…
यह एक बेटी नहीं, एक नारी के ममत्व की महत्ता है जो अपने आँचल में एक सद्भावना संजोए रहती है। कभी माँ बनकर, कभी बहिन बनकर, कभी पत्नि तो कभी, भाभी, नानी, दादी बन कर। एक वसीह संसार की जन्मदात्री है वह, यही है उसकी पहचान:
ये है पहचान एक औरत की
मां, बहन, बीवी, बेटी या देवी…स्वयं
अब परिचित होते है, भारती परिमल की भावनाओं से जो खुद एक समूर्ण नारी की परिचायक है। अपने-अपने जीवन के अनुभवों की भावाभिव्यक्ति में देखिये एक बेटी के अहसासात किस तरह पेश कर रही हैं:
एक बेटी की उम्मीद…बस मात्र
सवाल बनकर रह जाती है, जब इस समाज की पुरानी रीतियाँ घर को, परिवार को परिपूर्ण तब मानती है जब घर को एक वारिस मिलता है। भ्रूण हत्या तो जैसे एक फ़ितरत बन गई है, ये बेटियाँ जानती हैं, माँ जानती है, क्योंकि वह भी किसी के घर आंगन की बेटी रही है। हक़ीक़त तो यह है कि सृष्टि के निर्माण में एक बेटी, एक बहन, एक माँ, एक नारी का योगदान है जो अपनी कोख में नौ माह बच्चे का पोषण करते हुए उसे जन्म देती है। यहाँ एक बेटी की ललकार है, एक सवाल उसकी आँखों में जवाब पाने की ललक लिए हुए पूछ रहा है…..
पूरे नौ माह का सफ़र तय कर
तेरी गोद की मंजिल पाई है
सोचा था पाकर मुझे,
होठों पर तेरे मुस्कान खिलेगी,
पर देख मुझे आँख तेरी भर आई है…
वही बेटी अब माँ को आश्वासन दिला रही है, कि अब माँ तू अकेली नहीं, हम दो है, मैं तेरा ही प्रतिरूप हूँ। न देर हुई है, न अँधेर हुआ है, अब भी समय है, एक और एक का मिलन सम्पूर्ण बनेगा, एक ऊर्जा का स्त्रोत होगा, एक शक्ति का उत्पादन होगा, जहाँ पुरुष सत्ता को वह अपना लोहा मनवाकर ही रहेगी। सुनिए भारती जी की ज़बानी —
कल शक्ति बनूँगी मैं तेरी,
एक दूजे में समाहित होकर
एक बन जाएँगे हम
तू जो साथ दे, तो
एक नया जहाँ बनाएँगे हम…
नारी की इस ललकार में कोई सुर शामिल नहीं है, उस परिवार में जहाँ पुरुष की महत्ता की जडें गहरी हैं। उस जन्मदात्री नारी के अस्तित्व को बच्चों को जन्म देने के सिवा और कोई महत्वता देने की गरज ही नहीं रहती। दस्तावेजी लेखिका संतोष श्रीवास्तव की एक कविता “ये कैसी चुप है?” का अंश यहाँ जोड़ रही हूँ जो अपने मौन में बहुत कुछ कह जाती है-
ये कैसी चुप है?
जिसमें कोठों में, बिकते जिस्मों का
सरेआम लुटती अस्मत का
मजबूर शोर है, और चीखती सर पटकती
हवाएँ बेआवाज़ गुज़र जाती हैं।
परवरदिगार..
इस चुप में, बस एक बार जीकर दिखा
मैं माफ कर दूँगी
मुझे जन्म देने का गुनाह तेरा…
नारी की सम्पूर्णता भी अपने घर संसार, परीवार, परिवेश व समाज में रहते हुए अपना उत्तरदायित्व निभाने में है। एक घर की बेटी, दूसरे घर के आँगन में जब रोप दी जाती है तब उसका दायित्व और भी गरिमामय बन जाता है। सुविधाओं, असुविधाओं के संघर्ष से गुज़रते हुए ख़ुद को स्थापित करने का संकल्प उसे लेना पड़ता है, रिश्तों को कड़ियों को जोड़े रखने में पहल भी उसे करनी पड़ती है। ऐसे कई सन्दर्भों में उसको अपनी इच्छाओं को, परिवार के सुख शांति के लिए त्यागना पड़ता है। यह तो संकीर्ण सोच है, कि एक छत के तले कई सारे अनबन के अवसर आते है, पर उन परिस्थितियों को सोच विचार व विवेक से सुलझाना पड़ता है। ऐसा तो कतई नहीं होना है कि सोच में ताल-मेल न बैठे तो अलग हो जाओ, मनमुटाव होता है तो साथ मत रहो, किसी बड़े के लिये मन में सेवा भाव न हो, ममत्व की भावना न हो। ऐसे में साथ रहना पीड़ादायक हो जाता है, उस वृद्ध के लिए जिसने अपने जीवन के बेहतर साल बच्चों को समर्पित कर दिये, और इस दौर में उन्हें पनाह देने के लिए वृद्धाश्रम भी बाहें पसारे उनका स्वागत कर रहा हो। यहाँ आकर आज नव पीढ़ी को अपनी सोच बदलनी है, बेटियों को भी अपने आने वाले कल के आईने में अपनी तस्वीर देखनी चहिये। इस आशा भरे लहलहाते सन्देश में एक आशावादी सोच के सकारात्मक धरातल पर फिर से नव निर्माण होगा। जहाँ बेटियाँ अपनी पहचान का परचम फहराएगीं। अपने बलबूते पर, अपनी शिक्षा की शमा साथ लिए अपना रास्ता खुद तय करते हुए आगे बढ़ेंगी।
इसी भाषा-भाव के संगम में एक अँजुरी सिंध की अत्तिया दाऊद की, जो हृदय विदारक चीख के रूप में अपनी बेटी को एक पैगाम देती है कि उसे अगर प्यार करने के एवज़, अपनी मनचाही ज़िन्दगी जीने के एवज़ मौत के घाट भी उतारा जाय, या ‘कारी’ कहकर उसका नामोनिशान मिटाया जाय तो भी वह जीवन के बदले मौत को स्वीकार कर ले। ‘‘अपनी बेटी के नाम’’ ऐसी ही एक कविता है जो शताब्दियों से नारी के साथ हुए असीम अन्याय के चलते लावा की तरह फूट पड़ी है :
अगर तुम्हें ‘कारी’ कहकर मार दें
मर जाना, प्यार जरूर करना!
शराफ़त के शोकेस में
नक़ाब ओढ़कर मत बैठना
प्यार जरूर करना! (पृ. 33)
इतना ज़रूर है कि नारी निर्बल या निराधार नहीं। अपनी पूर्ण पहचान के साथ सबल हो गई है और उसी पहचान का वह परिचय देते हुए वह तेजस्विनी बनकर अपने कदम आगे बढ़ा रही है। आशा और विश्वास के दिन अब झिलमिला रहे हैं। इसी उजाले में नारी अपने अस्तित्व की मर्यादा कायम-दायम रखते हुए एक नई उम्मीद की रौशन किरण बनकर छा रही है।